प्रलेक आलोचना सम्मान BHU के डॉ प्रभात मिश्र को मिला

वाराणसी। प्रलेक न्यास द्वारा वर्ष 2022 का प्रलेक आलोचना सम्मान प्रतिष्ठित युवा आलोचक हिन्दी विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में सहायक आचार्य डॉ प्रभात मिश्र को प्रदान किया गया है। यह सम्मान प्रभात जी को हिंदी आलोचना के क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए दिया जा रहा है।
प्रभात जी की कृति “हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन” हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। हर समाज और भाषा के साहित्य के स्वरूप और विकास को ठीक-ठीक समझने के लिए साहित्य के इतिहास की ज़रूरत होती है। इस ज़रूरत-पूर्ति के क्रम में बहुत सारे साहित्येतिहास संबंधी ग्रंथ लिखे गए हैं। जिससे हिंदी साहित्येतिहास लेखन की एक सुदीर्घ परंपरा हमारे सामने उपस्थित हो आई है। हर प्रकार के साहित्येतिहास लेखन के पीछे एक अपनी दृष्टि होती है; यही दृष्टि उस साहित्येतिहास को विशिष्ट बनाती है। विधेयवादी, मार्क्सवादी, संरचनावादी और उत्तरसंरचनावादी आदि दृष्टियां प्रमुख रूप से इतिहास लेखन के काम आती रही हैं। इन विविध दृष्टियों से हिंदी साहित्येतिहास का स्वरूप निर्धारित होता रहा है। साहित्य के इतिहास लेखन में काल विभाजन, नामकरण, लोकभाषा और उसके साहित्य से संबंधित ऐसी बहुत सी समस्याएं हैं जो आज भी अनिर्णीत हैं और विद्वानों के बीच विचाराधीन हैं। डॉ. प्रभात कुमार मिश्र ने इस पुस्तक में स्वतंत्र लेखों के माध्यम से आचार्य रामचंद्र शुक्ल से लेकर मैनेजर पाण्डेय और सुमन राजे तक की इतिहास दृष्टि की समीक्षा बहुत ही तार्किक तरीके से पक्ष-प्रतिपक्ष प्रस्तुत करते हुए की है; साथ ही साथ काल विभाजन, नामकरण और लोक-भाषा तथा उसके साहित्य संबंधी आग्रहों और पूर्वाग्रहों पर तर्कसम्मत विचार प्रस्तुत किया है, जिससे यह पुस्तक विद्यार्थियों, शोधार्थियों और पठन-पाठन करने वाले साहित्येतिहासकारों के लिए बहुत उपयोगी बन पड़ी है। इस सम्मान से न केवल प्रभात मिश्र सम्मानित हुए हैं,बल्कि पूरा हिंदी विभाग भी गौरवान्वित हुआ है! हिन्दी विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में सहायक आचार्य डॉ प्रभात मिश्र को प्रदान किया गया है। यह सम्मान प्रभात जी को हिंदी आलोचना के क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए दिया जा रहा है।
प्रभात जी की कृति “हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन” हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। हर समाज और भाषा के साहित्य के स्वरूप और विकास को ठीक-ठीक समझने के लिए साहित्य के इतिहास की ज़रूरत होती है। इस ज़रूरत-पूर्ति के क्रम में बहुत सारे साहित्येतिहास संबंधी ग्रंथ लिखे गए हैं। जिससे हिंदी साहित्येतिहास लेखन की एक सुदीर्घ परंपरा हमारे सामने उपस्थित हो आई है। हर प्रकार के साहित्येतिहास लेखन के पीछे एक अपनी दृष्टि होती है; यही दृष्टि उस साहित्येतिहास को विशिष्ट बनाती है। विधेयवादी, मार्क्सवादी, संरचनावादी और उत्तरसंरचनावादी आदि दृष्टियां प्रमुख रूप से इतिहास लेखन के काम आती रही हैं। इन विविध दृष्टियों से हिंदी साहित्येतिहास का स्वरूप निर्धारित होता रहा है। साहित्य के इतिहास लेखन में काल विभाजन, नामकरण, लोकभाषा और उसके साहित्य से संबंधित ऐसी बहुत सी समस्याएं हैं जो आज भी अनिर्णीत हैं और विद्वानों के बीच विचाराधीन हैं। डॉ. प्रभात कुमार मिश्र ने इस पुस्तक में स्वतंत्र लेखों के माध्यम से आचार्य रामचंद्र शुक्ल से लेकर मैनेजर पाण्डेय और सुमन राजे तक की इतिहास दृष्टि की समीक्षा बहुत ही तार्किक तरीके से पक्ष-प्रतिपक्ष प्रस्तुत करते हुए की है; साथ ही साथ काल विभाजन, नामकरण और लोक-भाषा तथा उसके साहित्य संबंधी आग्रहों और पूर्वाग्रहों पर तर्कसम्मत विचार प्रस्तुत किया है, जिससे यह पुस्तक विद्यार्थियों, शोधार्थियों और पठन-पाठन करने वाले साहित्येतिहासकारों के लिए बहुत उपयोगी बन पड़ी है। इस सम्मान से न केवल प्रभात मिश्र सम्मानित हुए हैं,बल्कि पूरा हिंदी विभाग भी गौरवान्वित हुआ है!

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