बांग्ला नववर्ष, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक पहलुओं के महत्व का ही नहीं बल्कि लजीज व्यंजनों का भी उत्सव

सिलीगुड़ी: बंगाल में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक पहलुओं के महत्व का ही नहीं बल्कि लजीज व्यंजनों का भी उत्सव है। सिलीगुड़ी नगर निगम के मेयर गौतम देव नए वर्ष के स्वागत में शहर के मुख्यमार्ग पर रंगोली बनाने व्यस्त रहे। बंगाली समुदाय व बंगभाषी गीत, संगीत व नृत्य ही नहीं बल्कि खान-पान के भी शौकीन होते हैं। पोइला बैसाख के पर्व से बहुत सारी मान्यताएं जुड़ी हुई हैं। ऐसा कहा जाता है कि मुगल शासन के दौरान इस्लामी हिजरी कैलेंडर के साथ करों का संग्रह किया जाता था। लेकिन हिजरी कैलेंडर और चंद्र कैलेंडर मेल नहीं खाता था क्योंकि दोनों कैलेंडर में कृषि चक्र अलग हुआ करते थे। इसलिए बंगालियों ने दूसरे कैलेंडर की शुरुआत करने का सोचा और उसका नाम बंगबाड़ा रखा। इसी कैलेंडर के हिसाब से उन्होंने नव वर्ष मनाने की शुरुआत की। वही एक दूसरी मान्यता के हिसाब से बंगाली कैलेंडर को राजा शशांक से जोड़ा जाता है। बंगबाड़ा का उल्लेख दो शिव मंदिरों में पाया जाता है. इससे यह पता चलता है कि बंगाली कैलेंडर की उत्पत्ति अकबर काल से पहले हुई थी। वह कहते हैं कि मान्यता है कि गौड़ आधुनिक पूर्व व पश्चिम बंगाल के राजा शशांक ने सर्वप्रथम बांग्ला नववर्ष की शुरुआत की थी। बारह नक्षत्रों के अनुसार, बांग्ला में बारह महीनों का नाम रखा गया है। बांग्ला वर्ष पंजी ख्रिस्ट पंजी से 593 वर्ष बाद प्रारंभ हुई है, जो महाराज शशांक का काल था। बांग्ला वर्ष पंजी मूलत: एक सौर पंजी है लेकिन बाद में बंगाल के सुल्तान अलाउद्दीन हुसैन साह और सम्राट अकबर ने चिंद्र मास के अनुसार वर्ष पंजी में फसल चक्र के अनुसार कुछ परिवर्तन कर सूबे बंगाल तबके बांग्लादेश और पश्चिम बंग में फसली सन के नाम से लागू किया गया।चितल मछली। इस पंजी को हिंदू पर्व और अंग्रेजी लिप वर्ष के साथ सामंजस्य बनाए रखने के लिए बैशाख से आश्विन तक 31 दिनों, कार्तिक से माघ और चैत्र मास 30 दिनों का और फाल्गुन माह 29 दिनों का किया गया है। लिप वर्ष में फाल्गुन माह 30 दिनों का किया गया।बंगभाषी समुदाय के लिए बैसाख माह को एक पवित्र और आध्यात्मिक माह के रूप में मान्यता है। वर्ष के पहले दिन को पोयला बैशाख के रूप में मनाया जाता है।इस दिन से तमाम वित्तीय लेन-देन का हिसाब रखने के लिए हाल खाता अर्थात नया हिसाब बही खोलने की परंपरा है। सभी व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में गणपति और लक्ष्मी पूजा के पश्चात हिसाब-किताब का नवीकरण हाल खाता के माध्यम से किया जाता है। पहला बैशाख की शाम को हर बंग भाषियों के गांव में परंपरागत लाट शाला या नट्टशाला में श्रीकृष्ण गौरांग का घट स्थापना कर संपूर्ण माह भर रोज शाम को गांव के ही कीर्तन मंडली के द्वारा श्रीकृष्ण लीला कीर्तन गान आयोजित करने की परंपरा अब भी कायम है। यह लीला कीर्तन लाट शाला से प्रारंभ होकर गांव के सभी गलियों से गुजरता है और पुनः लाट शाला में जलार्पण के बाद समाप्त होता है। इसे कुली कीर्तन भी कहा जाता है। इस दौरान प्रतिदिन गांव के एक या अधिक परिवारों के द्वारा छोला-गुड़ का भोग की परंपरा है। माह के अंतिम दिन कीर्तन समाप्त होने पर धुलोट और मच्छव महोत्सव का आयोजन कर खिचड़ी भोग लगाया जाता है।नववर्ष पर रविंद्र संगीत की खास छाप : बांग्ला नववर्ष पर सांस्कृतिक अनुष्ठानों की शुरुआत गुरुदेव रविंद्रनाथ ठाकुर के परिवार जोड़ासांको कोलकाता से प्रारंभ हुई है। गुरु देव रविंद्रनाथ ठाकुर पहले एशो हे नूतन एशो.., गीत लिखकर सांस्कृतिक कार्यक्रमों की शुरुआत किए थे। इसे बाद में एशो हे बैसाख एशो में बदल दिया गया। इस दिन बंग समुदाय के लोग रविंद्र संगीत को सुनकर ही दिनचर्या को आगे बढ़ाते हैं। इलिस माछ आर डाटा चच्चड़ी दाल के संग लाऊ बड़ी पोस्ता: दयामय कहते हैं कि बांग्ला नववर्ष पर पर बैशाखी मेला व खान-पान की परंपरा अनूठा है। इस दिन कई तरह के शाकाहारी और मांसाहारी व्यंजनों की थाली सजती है।खास तौर पर इस दिन डाटा चच्चड़ी दाल, लाउ बड़ी पोस्ता, इलिस ,कतला,पावदा,भेटकी मछली के सरसों बांटा,भापा और मांस की पोस्ता झोल विशेष तौर पर बनाया जाता है। शाकाहारी खाना में नलेन गुड़ेर पायस, मूंग दाल का खीर, पक्का केला का मालपुआ, नारियल छोला, मखाना दाल, मसाला चना, बड़ी पोस्ता बनाने की परंपरा है। चितल मछली, गच्छी मछली,देशी और गलदा चिंड़ि का भी व्यंजन भी खास है। जबकि नाश्ते में फुलको लुचि, आलुर दम, जलेबी, रसोगुल्ला, सूजी का हलवा विशेष है। आमपन्ना, आमेर मिष्टी चाटनी, आम-मसुर,आम- चिंगड़ी, आम-पुदिना, आम-सिलवर मछली के टक और मिष्ठी दोई को भी विशेष तौर पर शामिल किया जाता है।
रिपोर्ट अशोक झा

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