व्यास केशव कृष्ण के मुख से ध्रुव चरित्र और शिव विवाह प्रसंग सुनकर मंत्रमुग्ध हुए श्रोता

– अग्रसेन भवन में गूंजा हर हर महादेव,माता पार्वती हरे हरे
अशोक झा, सिलीगुड़ी: डालमिया परिवार द्वारा अग्रसेन भवन में 3आयोजित सात दिवसीय श्रीमद भागवत कथा के दूसरे दिन भागवत कथा मर्मज्ञ कथा व्यास केशव कृष्ण महाराज ने कहा की कपिल अवतार ध्रुव चरित्र सृष्टि की रचना पर प्रकाश डालते हुए कहा कि, मनुष्य जीवन आदमी को बार-बार नहीं मिलता है इसलिए इस कलयुग में दया धर्म भगवान के स्मरण से ही सारी योनियों को पार करता है। मनुष्य जीवन का महत्व समझते हुए भगवान की भक्ति में अधिक से अधिक समय देना चाहिए। उन्होंने बताया कि, भगवान विष्णु ने पांचवा अवतार कपिल मुनि के रुप में लिया। उन्होंने बताया कि, किसी भी काम को करने के लिए मन में विश्वास होना चाहिए तो कभी भी जीवन में असफल नहीं होंगे। जीवन को सफल बनाने के लिए कथा श्रवण करने से जन्मों का पाप कट जाता है। ध्रुव चरित्र की कथा के बारे में भक्तों को विस्तार से वर्णन कर बताया। भागवत कथा मर्मज्ञ कथा व्यास केशव कृष्ण महाराज ने ध्रुव चरित्रदूसरे दिन भक्त ध्रुव चरित्र का वर्णन करते हुए बताया कि एक बार उत्तानपाद सिंहासन पर बैठे हुए थे। ध्रुव भी खेलते हुए राजमहल में पहुंच गए। उस समय उनकी अवस्था पांच वर्ष की थी। उत्तम राजा उत्तनपाद की गोदी में बैठा हुआ था। ध्रुव जी भी राजा की गोदी में चढ़ने का प्रयास करने लगे। रे ध्रुव मेरा पुत्र करहीं, चाह न कर नृप गोदन का, चाहे मेरा सुत बनना तो ध्यान धरो पुरुषोत्तम का”।। सुरुचि ने कहा कि अगर तु राजा की गोद में बैठना चाहता है तो तुझे मेरी कोख से जन्म लेना होगा और इसके लिये तुझे भगवान की तपस्या करनी होगी। अगर इस गोद में चढ़ना है तो पहले भगवान का भजन करके इस शरीर का त्याग कर और फिर मेरे गर्भ से जन्म लेकर मेरा पुत्र बन।” तब तू इस गोद में बैठने का अधिकारी होगा का ज्ञान प्रदान करके श्रद्धालुओं को निहाल किया गया। हम मनु की संतान हैं। “मनोर जासौ अयतौ सुख: च”। मनु की संतान होने के कारण ही हम मननशील, चिन्तनशील मानव/मनुष्य हैं। उन्हीं मनु की संतानों में उत्तानपाद हुए थे। संस्कृत भाषा की यही सुन्दरता है कि शब्द में ही उनके जीवन की प्रक्रिया वैसे भर दी जाती है, जैसे छोटे से पीपल के बीज में विशाल वृक्ष। कोई भी लैब में यह साबित नहीं कर सकता की छोटे से बीज में इतना विशाल वृक्ष कैसे छिपा था वरना बरसिम्ह का बीज तो इतना बड़ा होता है।उत्तानपाद शब्द का अर्थ ही है, जिनका पैर उठा हुआ हो। यानि जीवन के संघर्ष की लड़ाई में उनका पैर उठ चूका है और अब वो गिरेंगे। गिरते कब हैं? जब आपका भीतर का दुश्मन बलवान हो जाता है, जब आप भीतर से टूट जाते हैं तो जीवन से पराजित हो जाते हैं। बड़े मनोवैज्ञानिक हैं भागवत की कथाएँ।उत्तानपाद की दो पटरानियाँ थीं- सुनीति और सुरुचि।सुनीति यानि सुन्दर नीति। नीति का अर्थ है सदाचार, धर्म। ये तीनों शब्द अलग हैं पर सच्चाई एक ही है। “ध्रीयते धार्यते इति धर्मः”। धर्म का अर्थ है कर्तव्य, जो हमें धारण करता है। कर्तव्य के विपरीत कर्म करना ही अधर्म है। आँख का जो कर्तव्य है वो कान का नहीं हो सकता। समाज के हर वर्ग को अपना नियत कर्म करना चाहिए। जैसे शरीर को तभी स्वस्थ समझा कहा जाता है जब उसके सारे अंग ठीक काम करें, वैसे ही समाज भी तभी स्वस्थ कहा जाता है जब सभी अपने-अपने अपने धर्म का पालन करें।सुरुचि यानि सुन्दर रूचि। रूचि का अर्थ है इच्छा या चाह। गुणों के तारतम्य से रूचि सात्त्विक, राजस या तामसी होती है। इन दोनों के नाम से ही इनके जीवन का चरित्र स्पष्ट है। सुनीति के पुत्र का नाम ध्रुव रखा गया और सुरूचि के पुत्र का नाम उत्तम। राजा की आसक्ति नीति में कम और रूचि में अधिक थी इसलिए उनका नाम उत्तानपाद हुआ। ध्रुव उत्तम से बड़े थे। सृष्टि की रचना व शिव-पार्वती विवाह का प्रसंग सुनाते हुए कहा कि मनुष्य जीवन बार-बार नहीं मिलता है इसलिए इस कलयुग में दया धर्म, भगवान के स्मरण से ही सारी योनियों को भवपार करता है। मनुष्य जीवन का महत्व समझाते हुए कहा कि भगवान की भक्ति में अधिक से अधिक समय देना चाहिए। कथा श्रवण करने से जन्म जन्मांतर का पाप कट जाता है। जीवन मे विश्वास के साथ किये गए कार्य मे सफलता निश्चित तौर पर मिलती है। शिव-पार्वती विवाह का प्रसंग सुनाते हुए कहा कि यह विवाह एक पवित्र संस्कार है लेकिन आधुनिक समय में प्राणी संस्कारों से दूर भाग रहा है। आत्मा के बिना शरीर निरर्थक होता है ऐसे ही संस्कारों के बिना जीवन का कोई मूल्य नहीं होता। भक्ति में दिखावा नहीं होना चाहिए। जब सती के विरह में भगवान शंकर की दशा दयनीय हो गई तो सती ने भी संकल्प के अनुसार राजा हिमांचल के घर पर्वतराज की पुत्री होने पर पार्वती के रुप में जन्म लिया। पार्वती जब बड़ी हुईं तो हिमांचल को उनकी शादी की चिंता सताने लगी। एक दिन देवर्षि नारद हिमांचल के महल पहुंचे और पार्वती को देखकर उन्हें भगवान शिव के योग्य बताया। इसके बाद सारी प्रक्रिया शुरु तो हो गई, लेकिन शिव अब भी सती के विरह में ही रहे। ऐसे में शिव को पार्वती के प्रति अनुरक्त करने कामदेव को उनके पास भेजा गया, लेकिन वे भी शिव को विचलित नहीं कर सके और उनकी क्रोध की अग्नि में कामदेव भस्म हो गए। इसके बाद वे कैलाश पर्वत चले गए। तीन हजार सालों तक उन्होंने भगवान शिव को पाने के लिए तपस्या की। शिव-पार्वती विवाह का प्रसंग बताते हुए कहा कि, यह पवित्र संस्कार है, लेकिन आधुनिक समय में प्राणी संस्कारों से दूर भाग रहा है। जीव के बिना शरीर निरर्थक होता है, ऐसे ही संस्कारों के बिना जीवन का कोई मूल्य नहीं होता। भक्ति में दिखावा नहीं होना चाहिए। जब सती के विरह में भगवान शंकर की दशा दयनीय हो गई। सती ने भी संकल्प के अनुसार राजा हिमालय के घर पर्वतराज की पुत्री होने पर पार्वती के रुप में जन्म लिया। पार्वती जब बड़ी हुईं तो हिमालय को उनकी शादी की चिंता सताने लगी। एक दिन देवर्षि नारद हिमालय के महल पहुंचे और पार्वती को देखकर उन्हें भगवान शिव के योग्य बताया। इसके बाद सारी प्रक्रिया शुरु तो हो गई लेकिन शिव अब भी सती के विरह में ही रहे। ऐसे में शिव को पार्वती के प्रति अनुरक्त करने कामदेव को उनके पास भेजा गया, लेकिन वे भी शिव को विचलित नहीं कर सके और उनकी क्रोध की अग्नि में कामदेव भस्म हो गए। इसके बाद वे कैलाश पर्वत चले गए। तीन हजार सालों तक उन्होंने भगवान शिव को पाने के लिए तपस्या की। इसके बाद भगवान शिव का विवाह पार्वती के साथ हुआ। कथा स्थल पर भगवान शिव और माता पार्वती के पात्रों का विवाह कराया गया। विवाह में सारे बाराती बने और खुशियां मनाई। कथा में भूतों की टोली के साथ नाचते-गाते हुए शिवजी बारात आई। बारात का भक्तों ने पुष्प वर्षा कर स्वागत किया। शिव-पार्वती की सचित्र झांकी सजाई गई। विधि-विधान पूर्वक विवाह सम्पन्न हुआ। महिलाओं ने मंगल गीत गाए ओर विवाह की रस्म पूरी हुई। महाआरती के बाद महा प्रसाद का वितरण किया गया। कथा में तीसरे दिन शनिवार को नृसिंह अवतार, बावन अवतार का कथा किया जाएगा।कथा अपराह्न 3 बजे से शाम 6 बजे तक होगा।