बांग्लादेश में हिंसा के बीच अल्पसंख्यक अधिकारों के संरक्षण की आवश्यकता

दुर्गापूजा के समय तुगलकी फरमान से परेशान है हिंदू

बांग्लादेश बॉर्डर से अशोक झा: बांग्लादेश में शेख हसीन को सत्‍ता से बेदखल क‍िये जाने के बाद पड़ोसी मुल्‍क के हालात सही नहीं चल रहे. मुहम्‍मद यूनुस के नेतृत्व में बांग्‍लादेश में अंतर‍िम सरकार भले ही बन गई है लेक‍िन हालात सुधरने का नाम नहीं ले रहे हैं।अगर मुल्क को प्रगति के रास्ते पर आगे ले जाना है और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना करनी है तो ना केवल बांग्लादेश के समाज बल्कि संपूर्ण विश्व को ऐसे आधुनिक मूल्यों को आत्मसात् करना होगा जिसके केंद्र में “मनुष्यता” हो ना की धर्म, जाति, लिंग, प्रजाति और क्षेत्र पर आधारित संकुचित दृष्टिकोण अपनाना होगा। हिंदुओं के खिलाफ एक बार फिर तुगलकी फरमान जारी किया गया है। सवाल उठता है की बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के अधिकार का संरक्षण होना चाहिए। बांग्लादेश में आरक्षण विरोधी आंदोलन मुख्य रूप से 2018 में उभरा। यह आंदोलन छात्रों और युवाओं द्वारा सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्रणाली के विरोध में शुरू किया गया था। आंदोलन का मुख्य उद्देश्य सरकारी नौकरियों में उपलब्ध 56% आरक्षित कोटा को खत्म करना था, जो विभिन्न सामाजिक और आर्थिक समूहों के लिए निर्धारित था। आंदोलनकारियों का कहना था कि यह कोटा प्रणाली योग्य उम्मीदवारों के साथ अन्याय करती है और सरकारी नौकरियों में भर्ती के लिए मेरिट को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। 2024 में बांग्लादेश में आरक्षण विरोधी आंदोलन ने फिर से जोर पकड़ा। 2024 में इस आंदोलन ने एक बार फिर राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकर्षित किया और इसके तहत बड़े पैमाने पर प्रदर्शन और रैलियां आयोजित की गईं। इस बार आंदोलन को और भी व्यापक जन समर्थन मिला, और सरकार पर आरक्षण प्रणाली में सुधार के लिए दबाव बढ़ गया। यह आंदोलन जून में शुरू हुआ और जुलाई में व्यापक विरोध प्रदर्शनों में बदल गया, जो पूरे देश में फैल गए।बड़े पैमाने पर होने वाली हिंसा और हिंसा से उपजा तनाव अक्सर अल्पसंख्यक एवं कमजोर समूहों को अपना शिकार बनाती है। बांग्लादेश की जनसांख्यिकीय संरचना को देखा जाय तो यह बहु-धार्मिक और बहु सांस्कृतिक देश है जिसमें हिंदू एक महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक धार्मिक समूह है। राजनीतिक अस्थिरता और सरकार विरोधी प्रदर्शनों के बीच हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़ गए। इस हिंसा में कई हिंदू मंदिरों, घरों और व्यवसायों को नुकसान पहुंचाया गया है। रिपोर्ट्स के अनुसार, अब तक लगभग सैकड़ों लोग इस हिंसा में मारे गए हैं, जिनमें से अधिकांश हिंदू समुदाय से थे। यह हिंसा उस समय और भड़क उठी जब प्रधानमंत्री शेख हसीना ने पद से इस्तीफा दे दिया और देश छोड़ दिया। लेकिन इन सब के बीच कुछ ऐसे खबरें भी है जिनके हवाले से यह जानने को मिला कि हिंसक और नकारात्मक माहौल में भी कुछ स्थानों पर स्थानीय मुसलमानों, उलेमाओं, मदरसा छात्रों, छात्र कार्यकर्ताओं द्वारा हिंदू घरों और मंदिरों की रक्षा की पहल की गयी है। कुछेक धार्मिक संगठनों द्वारा सामुदायिक सद्भाव बनाये रखने का निर्देश दिया जा रहा है और यह समझाया जा रहा कि यह विरोध आंदोलन किसी समुदाय विशेष के बजाय भ्रष्ट राजनेताओं और अधिकारियों के ख़िलाफ़ है।अशांति के समय और पूरे विश्व की सतर्क निगाहों की बीच हिंदुओं की जीवन और सम्पति की रक्षा के लिए आगे आना बांग्लादेशी मुसलमानों का नैतिक कर्तव्य है। सरकार, अधिकारी और विरोध आंदोलन के नेता सद्भाव बनाए रखने के लिए बाध्य हैं। इस्लाम उन्हें अल्पसंख्यकों की रक्षा करने का कर्तव्य देता है। इसे एक आदर्श और कानून बनाया जाना चाहिए। धार्मिक नेताओं को मस्जिदों से यह घोषणा करने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए कि अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए स्थानीय पहल की जानी चाहिए। बांग्लादेश में छात्रों के नेतृत्व वाले विरोध आंदोलन ने देश के भीतर गहरी निराशा और बदलाव की मांग को रेखांकित किया है। हालांकि राजनीतिक कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार और आर्थिक अक्षमताओं ने इस अशांति को बढ़ावा दिया है, लेकिन इस वैश्विक युग में, यह आंदोलन अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा और बहु-धार्मिक समाज में सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने की आवश्यकता पर भी प्रकाश डालता है। जैसे-जैसे विरोध प्रदर्शन विकसित होते हैं, सरकार और प्रदर्शनकारियों दोनों के लिए न्याय और अहिंसा के सिद्धांतों को बनाए रखना महत्वपूर्ण है, यह सुनिश्चित करना कि राजनीतिक सुधार की खोज सांप्रदायिक आधार पर और अधिक विभाजन या नुकसान का कारण न बने। इस्लामी शिक्षाओं और सभी नागरिकों की नैतिक जिम्मेदारियों को अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के प्रयासों का मार्गदर्शन करना चाहिए। यह सुनिश्चित करते हुए कि आंदोलन का असली ध्यान प्रणालीगत भ्रष्टाचार को चुनौती देने और सभी के लिए अधिक न्यायसंगत समाज बनाने पर है।बांग्लादेश के नागरिक समाज, बुद्धिजीवी और आंदोलनरत विद्यार्थियों की यह नैतिक ज़िम्मेदारी है कि आंदोलन की आड़ में मुल्क के कमजोर और अल्पसंख्यक वर्ग के साथ किसी प्रकार की कोई ज़्यादती ना हो। अभी तक के इतिहास से मानवीय सभ्यता ने यही सीखा है कि “लोकतंत्र” ही सबसे उत्तम राजनीतिक- सामाजिक व्यवस्था है और लोकतंत्र एकआयामी नहीं हो सकता कि जिसमें केवल बहुसंख्यकों के हित में ही न्यायपूर्ण समाज की आकांक्षा हो और वंचित, कमजोर अल्पसंख्यकों के अधिकारों की क़ीमत पर मुल्क को आगे बढ़ाया जाय। लोकतंत्र “कम्पलीट पैकेज” देता है जिसमें सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक, लोकतांत्रिक व्यवस्था, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता मुख्य घटक होते है।

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