नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 128वीं जयंती को मनाया जा रहा पराक्रम दिवस के रूप में

आजादी की लड़ाई में महात्‍मा गांधी से अलग राह चुनी और ब्रिटिश हुकूमत से सीधा लोहा लिया

 

– आजाद हिंद फौज बनाई और लोगों में जोश भरने के लिए ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्‍हें आजादी दूंगा’ का दिया नारा

अशोक झा, सिलीगुड़ी: आज नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 128वीं जयंती है। इसे आज देश पराक्रम दिवस के रूप में मना रहा है। 23 जनवरी 1897 में ओडिशा के कटक में उनका हुआ था। देश को आजाद कराने में नेताजी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। सुभाष चंद्र बोस ने आजादी की लड़ाई में महात्‍मा गांधी से अलग राह चुनी और ब्रिटिश हुकूमत से सीधा लोहा लिया। उन्‍होंने इसके लिए आजाद हिंद फौज बनाई और लोगों में जोश भरने के लिए ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्‍हें आजादी दूंगा’ का नारा दिया। हर साल उनकी जयंती के दिन को देश में पराक्रम दिवस के तौर पर मनाया जाता है। नेता जी सुभाष चंद्र बोस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महान नेता क्रांतिकारी थे। सुभाष चंद्र बोस को उनके साहस, दृढ़ संकल्प के लिए जाना जाता है। आजादी की लड़ाई में सुभाष चंद्र बोस ने अपने आप को अर्पित किया था। भारतीय जनता युवा मोर्चा के राष्ट्रीय महासचिव राजू विष्ट का कहना है कि उनकी प्रेरणा हमें देश समाज के प्रति समर्पण की सीख देती है। साथ यह भी सिखाता है कि जब उद्देश्य महान हो तो हर समस्या को पार किया जा सकता है। डेढ़ दशक पहले तक ये पब्लिक के हीरो तो थे मगर सरकारों ने कभी भी इन्हें प्रतिष्ठित करने की नहीं सोची। लेफ़्टिस्ट और लिबरल लोग इन्हें धार्मिक और फासिस्ट बता कर खारिज करते रहे तो राइटिस्ट को कभी इनमें कोई मसाला नहीं मिला. पर अब इन दोनों को सब याद कर रहे हैं। नेता जी सुभाष चंद्र बोस तो आजादी के ऐसे हीरो हैं, जिनकी सदैव अनदेखी ही की गई। 1939 की त्रिपुरी कांग्रेस में जीतने के बाद भी इन्हें अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा। वे कट्टर देशभक्त थे परंतु सरकारें उन्हें कभी अपना नहीं सकी। आधिकारिक तौर पर भले उन्हें भगोड़ा बताया गया हो पर पब्लिक ने सदैव उन्हें सिर आंखों रखा।अंग्रेजों का दुश्मन सुभाष का दोस्त: अब भले ही उन्हें सरकार भी पूछ रही हो लेकिन सरकार ने कोई जांच नहीं शुरू करवाई कि सुभाष बोस 18 अगस्त 1945 को वाकई एक विमान दुर्घटना में मारे गए थे। अथवा वे रहस्यमय परिस्थितियों में गायब हो गए। चूंकि दूसरा विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद मित्र राष्ट्रों की नजर में जर्मनी व जापान को दोषी करार दिया गया और इसी नाते नेता जी भी दूसरे विश्वयुद्ध के खलनायक समझ गए।मगर नेता जी का मकसद अलग था वे कोई बाजार की होड़ में आकर इस युद्ध में जर्मनी व जापान के साथ नहीं कूदे। उनका मकसद तो भारत को अंग्रेजों से आजाद करना था। उन्हें भारत में कांग्रेस से कोई उम्मीद नहीं दिखी इसलिए उन्होंने उन सब की मदद ली जो उनकी नज़र में ब्रिटेन से लड़ रहे थे. फिर वे भले फासिस्ट रहे हों या डेमोक्रेटिक शक्तियां. उनका उद्देश्य था किसी तरह अंग्रेजों को पराजित करना। नेता जी का कांग्रेस पर वर्चस्व: कांग्रेस और उसके डिक्टेटर महात्मा गांधी 1939 से 1942 के शुरुआती सात महीनों तक युद्ध को लेकर अपना स्टैंड साफ नहीं कर पा रहे थे। किंतु नेताजी की सक्रियता देखकर अचानक 9 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने भी अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा दे दिया। यह बताता है कि कांग्रेस के अंदर नेताजी के विचारों का दबाव इतना अधिक था कि गांधी जी को भी खुलकर अंग्रेजों के विरुद्ध कड़े रूख का आह्वान करना पड़ा। यद्यपि कांग्रेस के भीतर जवाहर लाल नेहरू ने उनको आगे लाने के प्रयास किए थे। नेहरू जी जब अध्यक्ष निर्वाचित हुए तब उन्होंने युवा सुभाष बोस को अपना सहायक भी नियुक्त किया था। युवाओं को कांग्रेस से जोड़ने का काम भी सौंपा. नेहरू जी ने उन्हें यूरोप भी भेजा था ताकि वे जर्मनी में चल रहे सोशलिस्ट इंटरनेशनल को समझ सकें।
कलेक्टरी को लात मार दी: 23 जनवरी 1897 को कटक में एक बंगाली परिवार में जन्में सुभाष चंद्र बोस को अपने घर पर अपनी माँ से देशभक्ति और राष्ट्र प्रेम के संस्कार मिले थे। देश की आजादी को लेकर तमाम तरह के प्रश्न उनके मस्तिष्क में घुमड़ा करते और उनकी माँ यथासंभव उन्हें शांत करने का प्रयत्न करतीं। पहले तो उन्हें लगा कि देश की जनता की सेवा अंग्रेज सरकार में कलेक्टर बनकर की जा सकती थी इसलिए वे लंदन जाकर सिविल सेवा की परीक्षा में बैठे और पास हुए पर फिर लगा कि यह सिर्फ मृग मरीचिका ही है।वे सरकारी सेवा में रहकर अंग्रेज स्वामियों के विरुद्ध नहीं जा सकते इसलिए उन्होंने इस नौकरी को लात मार दी और राजनीति में आ गए। उनकी मशहूर पुस्तक तरुणाई के सपने में यह सब बातें विस्तार से बताई गई हैं। देश सेवा का जज्बा सिर्फ महत्वाकांक्षा पालना ही नहीं है बल्कि उसे पूरा करने के लिए निरंतर प्रयास करना भी है।नौकरी जीवन का मकसद नहीं: सुभाषचंद्र बोस के पिता बंगाल प्रांत के ओडिशा डिवीजन में कटक में वकालत करते थे. उनकी मां प्रभावती देवी एक सामान्य घरेलू महिला थीं। अपने चौदह भाई-बहनों में सुभाष बोस नौवें नंबर के बच्चे थे. कटक के प्रोटेस्टेंट स्कूल में उनकी शुरुआती पढ़ाई हुई। 1913 में वे कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में गए और बाद में स्कॉटिश चर्च कॉलेज से दर्शन में उन्होंने बीए किया। अपने पिता की इच्छा को पूरा करते हुए वे इंग्लैंड गए और वहां के फिट्ज बिलियन कॉलेज से पढ़ाई पूरी की और इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा में बैठे और जल्द ही उन्हें लग गया कि कलेक्टर बनना और देश सेवा में फर्क है। इसलिए सिविल सर्विस की परीक्षा के 1919 बैच में चयनित होने तथा चौथे नंबर पर आने के बाद भी उन्होंने सरकारी नौकरी नहीं की. 1921 में उन्होंने इंडियन सिविल सर्विस से इस्तीफा दे दिया। इस्तीफे के पूर्व उन्होंने अपने बड़े भाई शरतचंद्र बोस को एक पत्र लिखा कि मात्र नौकरी करना ही जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता। अपनी मातृभूमि के प्रति भी उनका कोई दायित्व है।
बाबू चितरंजन दास ने सुभाष की प्रतिभा को पहचाना: नेता जी भारत लौट आए और राजनीति में कुछ करने के लिए वे कांग्रेस के निकट आए। उस वक्त कांग्रेस में जिन क्षत्रपों की तूती बोलती थी उनमें से एक चितरंजन दास थे। बाबू चितरंजन दास कई मायनों में गांधी जी से अलग राय रखते थे। दास बाबू ने नेताजी की प्रतिभा पहचानी और उन्हें बंगाल कांग्रेस की प्रांतीय कमेटी का प्रभारी बना दिया। साथ में नेता जी दास बाबू का अखबार स्वराज और फारवर्ड का कामकाज भी देखने लगे।जल्दी ही नेताजी काम करने की अपनी ललक, मेहनत व जनसंपर्क के चलते बंगाल ही नहीं पूरे देश की कांग्रेस में पहचाने जाने लगे। नेताजी युवाओं के बीच इतने लोकप्रिय हो गए कि कांग्रेस की युवा इकाई का उन्हें अध्यक्ष चुन लिया गया। तब ही दास बाबू कलकत्ता नगर निगम में मेयर चुने गए तो उन्होंने नेता जी सुभाष चंद्र बोस को निगम का सीईओ बना दिया। नेहरू से निकटता: निगम व सरकार में टकराव हुआ तो सुभाष बाबू को गिरफ्तार कर अंग्रेज सरकार ने बर्मा प्रांत की मांडला जेल में डाल दिया। वहां से नेता जी 1927 में आजाद हुए और उनके जेल से रिहा होते ही उन्हें कांग्रेस का राष्ट्रीय सचिव बना दिया गया। इसी दौरान सुभाष बाबू की निकटता जवाहर लाल नेहरू से हुई जो उनसे महज आठ साल बड़े थे। दोनों ही प्रतिभाशाली और आजाद ख्यालों और विचारों के. जवाहर लाल जी जब कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए तो उन्होंने कांग्रेस का कामकाज देखने के लिए अपना सहायक सुभाष बोस को रखा। सुभाष बाबू एक अद्भुत स्वप्नदृष्टा थे. शायद इसीलिए उन्हीं दिनों उन्होंने कलकत्ता में कांग्रेस की अखिल भारतीय सभा उन्होंने करवाई और कांग्रेस स्वयंसेवकों की कमांडरी उन्हें सौंपी गई। बतौर कमांडर उनके काम की तारीफ खुद महात्मा गांधी ने भी की थी. उनकी इस कमांडरी के बाद ही उन्हें नेताजी का खिताब मिला। अंग्रेजों की कड़ी नजर: 1929 में नेता जी पुन: गिरफ्तार कर लिए गए। रिहा होने के बाद वे लंदन गए और वहां पर तमाम यूरोपीय नेताओं से मिले। वे कम्युनिस्ट नेताओं के भी संपर्क में आए और फासिस्ट नेताओं के भी। अंग्रेज सरकार के एजेंट इस युवा नेता की हर गतिविधि पर नजर रखे थे। उन्हें लगा कि कांग्रेस में इसकी बढ़ती लोकप्रियता और इस नेता के विचार पूरी पार्टी को यूरोप के मित्र देशों के हितों के विरुद्ध ले जाएंगे। इसलिए कहा जाता है कि उन्होंने गांधी जी पर दबाव बनाया कि अगर नेता जी सुभाष चंद्र बोस की गतिविधियों पर रोक न लगाई गई तो भारत को आजाद करने के जिस प्लान पर वे सोच रहे हैं उस पर अंकुश लग जाएगा. उधर नेता जी कांग्रेस के भीतर युवाओं के हीरो बन चुके थे. यही कारण था कि 1938 में गुजरात के हरिपुरा में हुई कांग्रेस में अध्यक्ष चुन लिए गए।
नेहरू व मौलाना आजाद दोनों पीछे हटे: दूसरा विश्वयुद्ध जब छिड़ा तब गांधी जी पर अंग्रेजों का दबाव था कि वे उनकी फौज के लिए जवान भरती कराएं। पर कांग्रेस में इस बात का घोर विरोध हुआ। इसलिए अगले ही वर्ष जबलपुर के त्रिपुरी में जब कांग्रेस बैठी तो गांधी जी ने नेताजी की पुन: अध्यक्ष का घोर विरोध किया। सुभाष बोस को रोकने के लिए उन्होंने जवाहर लाल नेहरू से अध्यक्ष पद हेतु चुनाव लड़ने के लिए कहा। मगर जवाहर लाल नेहरू समझ रहे थे कि नेता जी के विरोध का मतलब सीधे अलोकप्रिय हो जाना है इसलिए उन्होंने गांधी जी को जवाब भेजा कि एक तो इस समय मैं लंदन में हूं, आ नहीं सकता दूसरे एक बार मैं रह चुका हूं इसलिए दुसरे युवा मौलाना आजाद को आप कहें. मगर मौलाना तो सिरे से ही नहीं कर दिया क्योंकि वे ताड़ गए कि उन्हें बलि का बकरा बनाया जा रहा है।
पट्टाभि नेता जी से लड़े और हारे: अंत में गांधी जी ने अपने विश्वस्त पट्टाभि सीतारमैया को चुनाव नेता जी के विरुद्ध चुनाव लड़वाया. मगर वे चुनाव हार गए तथा नेता जी सुभाष चंद्र बोस फिर से अध्यक्ष चुन लिए गए. इस पर गांधी जी ने खुलकर कहा कि यह मेरी हार है और मैं अनशन करूंगा. तब नेताजी पर दबाव बना और उन्होंने अध्यक्ष की कुर्सी बाबू राजेंद्र प्रसाद को सौंप दी।इसके बाद नेता जी ने कांग्रेस छोड़ दी और बंगाल आकर 22 जून 1939 को आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक के नाम से अलग पार्टी बनाई जिसका झुकाव कम्युनिज्म के प्रति अधिक था। कांग्रेस के उनके सहयोगी एमएन धेवर भी कांग्रेस छोड़कर नेता जी के साथ चले गए। धेवर ने तमिलनाडु के मद्रास शहर में फारवर्ड ब्लाक की तरफ से नेता जी के सम्मान में एक रैली कराई। उसमें इतनी भीड़ जुटी कि कांग्रेस को एक बड़ा झटका लगा। वार इनेमी मान लिए गए सुभाष बोस: तब तक नेता जी जापान और जर्मनी के सीधे संपर्क में आ गए और भारत को आजाद कराने की खातिर बर्मा में जाकर आजाद हिंद फौज बनाई। इस फौज में वे देशी जवान व अफसर आ गए जिन्हें अंग्रेज सरकार ने बर्मा जाकर जापानियों से मोर्चा लेने को भेजा था। यह देखकर गांधी जी ने भी अंग्रेजों के विरुद्घ सीधी लड़ाई छेड़ दी और क्विट इंडिया का नारा देकर सुभाष बाबू को करारा झटका दिया। नेता जी अकेले पड़ते गए। एक तरफ तो हार से भयभीत जापानी शासकों ने उन्हें मदद नहीं की और चूंकि तब तक सोवियत रूस भी लड़ाई में मित्र राष्ट्रों की तरफ से कूद चुका था इसलिए जर्मनी उसमें उलझ गया।उधर नेता जी मित्र राष्ट्रों द्वारा के वार इनेमी मान लिए गए। कांग्रेस उनके खिलाफ थी और यूरोपीय देश भी। इसी हताशा में 18 अगस्त 1945 को एक विमान दुर्घटना में नेता जी के मारे जाने की खबर आई। पूरा देश स्तब्ध रह गया पर देशवासियों को नेता जी की इस रहस्यमयी मौत पर आज तक भरोसा नहीं हुआ है।

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