देश की मांग समान नागरिक संहिता, सभी धर्मों के लोगों में विवाह, तलाक, गोद लेना आदि मामलों में समानता
मुसलमानों को तंग करने का कोई इरादा नहीं': सैयद शाहनवाज हुसैन

बांग्लादेश बोर्डर से अशोक झा: समान नागरिक संहिता के लागू होने से सभी धर्मों के लोगों में विवाह, तलाक, गोद लेना आदि मामलों में समानता आएगी।
बीजेपी के मुस्लिम नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री शाहनवाज हुसैन ने ओवैसी के दावे को खारिज करते हुए कहा कि यूसीसी मुसलमानों के खिलाफ नहीं बल्कि विवाह सुधार के लिए है।शाहनवाज हुसैन ने कहा कि देश में संविधान है, क्रिमिनल लॉ को सभी मानते हैं, लेकिन जब सिविल लॉ में बराबरी की बात आती है, तो उस पर ऐतराज हो जाता है। उन्होंने कहा कि जो मुसलमान यूरोप और इंग्लैंड में रहते हैं, वे वहां के कानून, सिविल लॉ को मानते हैं, यहां तक कि अपने देश गोवा में भी मानते हैं।
‘मुसलमानों को तंग करने का कोई इरादा नहीं’ : बीजेपी नेता ने कहा कि मुसलमानों को तंग करने का कोई इरादा नहीं है। बल्कि विवाह सुधार के लिए ये कानून लाया जा रहा है. संविधान निर्माताओं ने भी कहा था कि विवाह सुधार और यूसीसी होना चाहिए, जिसके लिए हम प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि यह संहिता लागू होने से सामाजिक सद्भाव और एकरूपता आएगी। केंद्र के स्तर पर यह कब होगा, फिलहाल यह निश्चित नहीं है। उत्तराखंड देश का सर्वप्रथम राज्य बन गया है। उत्तराखंड के बाद अब गुजरात में समान नागरिक संहिता यानी यूसीसी लागू हो सकता है। इसको लेकर राज्य सरकार द्वारा तैयारी शुरू कर दी गई है। समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए इसके कार्यान्वयन के लिए एक समिति का गठन किया गया है। समिति राज्य सरकार को 45 दिनों में अपनी रिपोर्ट सौंपेगी और इसके आधार पर सरकार निर्णय लेगी। गुजरात की भाजपा सरकार ने समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए दिशा-निर्देश तैयार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज रंजना देसाई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय समिति 45 दिनों के भीतर अपनी रिपोर्ट सौंपेगी।भाजपा के मातृ-दल जनसंघ ने अनुच्छेद 370 को समाप्त करने और तीन तलाक को कानूनन बनाने सरीखे मुद्दों को अपना वैचारिक एजेंडा तय किया था और उसी के आधार पर राजनीति की थी। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण भाजपा और विहिप का साझा एजेंडा था। आरएसएस बंगलादेशी घुसपैठियों को देश के बाहर खदेड़ने का पक्षधर रहा है। देखा जाए तो ये संघ परिवार के ही वैचारिक मुद्दे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने उन मुद्दों को साकार कराया है, बेशक समान नागरिक संहिता पर वह राज्यवार चलना चाहते हैं। यह बचाव-मुद्रा इसलिए है, ताकि देश भर में सांप्रदायिक बवाल न मचे और दंगों की नौबत न आए। उत्तराखंड ने जो पहल की है, उसका भी त्वरित विरोध ‘जमायत-ए-हिंद’ ने किया है और समान संहिता को मुसलमानों के मजहबी हुकूक में दखलअंदाजी माना है। उन्होंने इस कानूनी व्यवस्था को सर्वोच्च अदालत में चुनौती देने का भी ऐलान किया है। वैसे समान नागरिक संहिता कोई ‘संघी व्यवस्था’ नहीं है। संविधान बनाने वाले हमारे पुरखों ने अनुच्छेद 44 में यह प्रावधान निहित किया था कि केंद्र अथवा राज्य सरकारें समान नागरिक संहिता लागू करने के प्रयास जरूर करें। देश की सर्वोच्च अदालत ने भी इसकी पक्षधरता कुछ अवसरों पर व्यक्त की है। तो यह बुनियादी निष्कर्ष तय है कि समान संहिता को लागू करना अवैध और असंवैधानिक नहीं है। यह भाजपा सरकार ने ही तय नहीं किया है, बल्कि सर्वोच्च अदालत की न्यायाधीश रह चुकीं जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई के नेतृत्व में 2.35 लाख लोगों से विमर्श किया गया। उस प्रक्रिया के बाद ही 740 पन्नों का मसविदा सामने आया। उसे विधानसभा में पारित किया गया, फिर राज्यपाल ने सहमति दी और 12 मार्च, 2024 को राष्ट्रपति ने अनुमोदित किया। विमर्श की गुंजाइश अब भी है। साफ है कि समान नागरिक संहिता के तहत सभी धर्मों के सभी लोगों को समान अधिकार देने की व्यवस्था की गई है। उत्तराखंड यूसीसी अनुसूचित जनजातियों और कुछ संरक्षित समुदायों को छोड़कर सभी निवासियों पर लागू होता है। इसके तहत सभी विवाह और लिव-इन रिलेशनशिप रजिस्टर किए जाएंगे। इसके लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन की सुविधा भी उपलब्ध है। इसके तहत 26 मार्च 2010 से पहले या उत्तराखंड के बाहर हुए विवाह भी कानूनी मानदंडों को पूरा करने पर रजिस्टर किए जा सकते हैं। उत्तराखंड में लागू किए गए यूसीसी के तहत विवाह केवल मानसिक रूप से सक्षम व्यक्तियों के बीच ही हो सकता हैं, जिसमें पुरुष की आयु कम से कम 21 वर्ष और महिला की आयु कम से कम 18 साल होनी चाहिए। यह सभी धर्मों में पति और पत्नी दोनों के लिए समान तलाक के अधिकार सुनिश्चित करता है और सभी समुदायों में बेटों और बेटियों को समान उत्तराधिकार अधिकार प्रदान करता है। यूसीसी मुस्लिम समुदाय में हलाला और इद्दत जैसी प्रथाओं पर भी प्रतिबंध लगाता है और संपत्ति के अधिकारों के संबंध में वैध और नाजायज बच्चों के बीच कोई भेदभाव नहीं होने देता है। इसमें सैन्य कर्मियों के लिए विशेषाधिकार प्राप्त वसीयत बनाने के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं। ऐसे में अहम सवाल है कि अनुसूचित जनजातियों को भी इससे अलग क्यों रखा गया है? आदिवासी अब पूरी तरह कबीलाई नहीं हैं। वे भी सुशिक्षित हैं, सरकारी नौकरियां कर रहे हैं, आईएएस/आईपीएस अधिकारी भी हैं। नए दौर, नए युग की करवटें वे भी देख रहे हैं। उन आदिवासियों को इस कानून से अलग रखा जा सकता था, जो आज भी अनपढ़ हैं और जंगल की जिंदगी जी रहे हैं। निस्संदेह, देश में पहली बार समान नागरिक संहिता को लागू करना उत्तराखंड सरकार का ऐतिहासिक कदम है। जो सभी धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों को मानकीकृत करने के लक्ष्य को निर्धारित कर राज्य में समानता और न्याय की राह में कदम बढ़ाता है। हालांकि, कानून के विशेषज्ञ कुछ खमियों की ओर भी इशारा करते हैं। फाइलों में यह कोड एक साहसिक दृष्टिकोण को दर्शाता है। मसलन विवाह व लिव इन संबंधों का अनिवार्य पंजीकरण, बहुविवाह और निकाह हलाला पर प्रतिबंध और बच्चों के लिये समान विरासत अधिकार देता है, चाहे उनके माता-पिता की वैवाहिक स्थिति कुछ भी हो। दूसरे शब्दों में स्त्री के अधिकारों को संरक्षण प्रदान करके समतामूलक समाज की स्थापना का वायदा करता है। एक मायने में यह लैंगिक न्याय और प्रगतिशील सोच व आधुनिक मूल्यों का प्रतीक है। लेकिन जब हम इसके प्रावधानों का गहराई से मूल्यांकन करते हैं तो कई तरह की विसंगतियां सामने आती हैं।दरअसल, कई मुद्दों पर व्यापक विमर्श की कमी को लेकर भी सवाल उठते हैं। कुछ लोग समलैंगिक विवाहों की स्वीकार्यता के प्रश्न का जिक्र करते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यूसीसी के प्रावधानों में गोद लेने के कानूनों पर खामोशी क्यों है? सवाल यह है कि क्या ये प्रयास व्यापक सुधारों को अंजाम दे पाएंगे? या फिर ये महज पैचवर्क की कवायद मात्र है? सरकार की दलील है कि सांस्कृतिक रूप से संवेदनशीलता को ध्यान रखते हुए अनुसूचित जनजातियों को इसमें छूट दी गई है। सवाल उठाये जा रहे हैं कि क्या इससे समान नागरिक संहिता के आदर्श लक्ष्यों की पूर्ति होती है? इसको लेकर एकरूपता के सवाल उठाते हुए कहा जा रहा है कि क्या यूसीसी का सार इसे सभी पर समान रूप से लागू करना नहीं है? आलोचकों का कहना है कि इस मुद्दे पर पर्याप्त विधायी बहस नहीं हो पायी है। यह भी कि इस गंभीर मुद्दे पर सर्वसम्माति बनाने के लिये वास्तविक प्रयास नहीं हुए। बजाय इसके इसे जल्दीबाजी में अंजाम दिया गया। विपक्षी लोगों का कहना है कि इस गंभीर मुद्दे पर लोगों की सक्रिय भागीदारी होनी चाहिए थी और सभी लोगों की आवाजें पर्याप्त रूप से सुनी जानी चाहिए थीं। यदि ऐसा नहीं हो पाया है तो इसे हम कैसे सब लोगों का कानून कह सकते हैं? कुछ लोगों की दलील है कि कुछ प्रावधान नैतिक पुलिसिंग के करीब हैं। बहरहाल समान नागरिक संहिता में विवाह, तलाक, बहुविवाह, बाल विवाह, बेटा-बेटी बराबर, गोद लेने की कानूनी व्यवस्था, विरासत, वसीयत और लिव-इन सरीखी तमाम व्यवस्थाएं समान रूप से लागू की जा सकती हैं। उत्तराखंड ने अपने कानून में ‘हलाला’ को ‘अपराध’ करार दिया है। धारा 63 और 51, महिला से क्रूरता या उत्पीडऩ धारा 69 में अपराध है। हलाला पर 10 साल तक जेल की सजा का प्रावधान किया गया है। समान नागरिक संहिता देशभर में लागू क्यों न की जाए।