
– आज दीपदान के साथ गंगा स्नान, दान पुण्य का विशेष महत्व
– सिलीगुड़ी महानंदा घाट पर दिखेगा वनारस जैसा नजारा
अशोक झा/ सिलीगुड़ी: कहते है कि सनातन के हर पर्व के पीछे कोई ना कोई कहानी ओर उसका फल छुपा होता है। कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाने वाली देव दीपावली का हिंदू धर्म में विशेष महत्व है। यह पर्व देवताओं के पृथ्वी पर आगमन और उनकी प्रसन्नता का प्रतीक है। इस दिन गंगा स्नान, दान और दीपदान का विधान है। जिससे न सिर्फ देवी-देवता प्रसन्न होते हैं, बल्कि पितरों की आत्मा को भी शांति मिलती है। माना जाता है कि यह पावन तिथि आपको पितृ ऋण से मुक्ति दिलाने और घर में अखंड सुख-समृद्धि का वास सुनिश्चित करने का एक सुनहरा अवसर प्रदान करती है। बुधवार को कार्तिक माह का आखिरी दिन है और पूर्णिमा की वजह से धर्म और दान की दृष्टि से अति फलदायक दिन है। यही कारण है कि सिलीगुड़ी महानंदा घाट को दीप से सजाया जायेगा। है गा आरती की जाएगी। माना जाता है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन दान करने से सभी पापों का नाश होता है और धन-धान्य, सुख-संपदा तथा ईश्वर की कृपा का आशीर्वाद प्राप्त होता है। हालांकि इस दिन किन चीजों का दान करना चाहिए, ये भी मायने रखता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन अन्न दान करने का बड़ा महत्व है। इस दिन गेहूं, चावल, दालें, आटा या चीनी का दान किया जा सकता है। माना जाता है कि जो भी कार्तिक पूर्णिमा को अन्न का दान करता है, उसके घर में अन्न के भंडार भरे रहते हैं। मान्यता है कि इस दिन देवता धरती पर आते हैं और दीपावली मनाते हैं। इस दिन देवताओं द्वारा दीपावली मनाए जाने के लिए इस पर्व को देव दिवाली के नाम से जाना जाता है। साल 2025 में यह त्योहार 5 नवंबर दिन बुधवार को मनाया जा रहा है। पंडित हरिमोहन झा और अभय झा के अनुसार, पूर्णिमा तिथि 4 नवंबर की रात 10:36 बजे शुरू होकर 5 नवंबर शाम 6:48 बजे तक रहेगी, लेकिन उदय तिथि के कारण 5 नवंबर को ही मुख्य उत्सव होगा। इस दिन वाराणसी के गंगा घाटों पर लाखों दीपों की रौशनी से जगमगाती नगरी का नजारा देखने लायक होता है, मान्यता है कि यहां देवता स्वयं पृथ्वी पर उतरकर दीप जलाते हैं। हालांकि यह पर्व क्यों मनाया जाता है, इसके पीछे एक पौराणिक कथा है। आइए जानते हैं इस पर्व को मनाने का क्या कारण है।
देव दीपावली की कथा: देव दीपावली का उत्सव भगवान शिव की महिमा से जुड़ा है, इसी कारण इसे ‘त्रिपुरारी पूर्णिमा’ भी कहते हैं। शिव पुराण और देवी भागवत पुराण के अनुसार, प्राचीन काल में त्रिपुर नामक राक्षस ने तीनों लोकों स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल में आतंक मचा रखा था। उसका नाम त्रिपुर इसलिए पड़ा क्योंकि उसने तीन उड़नखंडों (त्रिपुर) पर तीन किले बनवाए थे। जिसमें एक सोने का, एक चांदी का और एक लोहे का था। ये किले आकाश में तैरते थे और राक्षस ने ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त कर लिया था कि उसके किले नष्ट नहीं होंगे जब तक कोई एक ही बाण से तीनों को नष्ट न कर दे।त्रिपुरासुर के अत्याचारों से त्रस्त होकर सभी देवता, ऋषि-मुनि और मनुष्य भगवान शिव के पास गए। भगवान शिव ने देवताओं की प्रार्थना पर राक्षस का संहार करने का संकल्प लिया। उन्होंने अपने धनुष पिनाक पर एक विशेष बाण चढ़ाया, जो ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र की शक्तियों से युक्त था। कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव ने एक ही बाण से तीनों किलों को भस्म कर दिया और त्रिपुरासुर का वध कर दिया। इस विजय पर देवताओं ने प्रसन्न होकर दीप जलाए, आकाश से फूल बरसाए और पृथ्वी को प्रकाश से जगमगा दिया। उसी दिन से यह दिन ‘देव दीपावली’ का पर्व मनाया जाने लगा। इसी कारण देवता इस दिन दीपावली मानता हैं। । यह कथा में वर्णित है, जो अच्छाई पर बुराई की हमेशा जीत का संदेश देती है।धरती के निकट आते हैं नौ ग्रह : देव दीपावली का इतिहास वैदिक काल से जुड़ा है, जहां कार्तिक पूर्णिमा को चंद्रमा का पूर्ण रूप प्रकट होने का प्रतीक माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार इस दिन सभी नौ ग्रह धरती के निकट आते हैं, जिससे स्नान, दान और पूजा के फल अनेक गुना बढ़ जाते हैं। वाराणसी (काशी) में यह पर्व भव्य रूप से मनाया जाता है, क्योंकि काशी भगवान शिव की नगरी है। मान्यता है कि त्रिपुरासुर वध के बाद देवता काशी में ही उतरे थे और गंगा के घाटों पर दीपदान किया था।आज भी 5 नवंबर 2025 को वाराणसी के 84 घाटों पर लाखों दीप जलाए जाएंगे और गंगा आरती का नजारा स्वर्गीय लगेगा। अन्य स्थानों पर भी घरों में दीपक जलाने, शिव पूजा और तुलसी पूजन की परंपरा है। यह पर्व दीपावली से अलग है। ऐसा इस कारण है क्योंकि कार्तिक माह की अमावस्या को मनुष्य दीपावली मनाते हैं, वहीं पूर्णिमा को देवता दीपावली मनाते हैं। 2025 में यह पर्व शिववास योग में मनाया जाएगा, जो शाम 6:48 बजे से शुरू होगा। इस योग में शिव-पार्वती पूजा से सभी कार्य सफल होते हैं।







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