– सीएम ममता बनर्जी ने कहा जान दे देंगे पर यह बंगाल में लागू नहीं होने देंगे
– भाजपा का दावा यहां हिन्दू मुस्लिम की बात नहीं , बात है फर्जी वोटर को बाहर निकालने का
– वोटबैंक पॉलिटिक्स में किसे और क्यों लग रहा है डर
अशोक झा/ कोलकोता: पश्चिम बंगाल में चुनाव आयोग (ECI) ने वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) का पहला चरण मंगलवार से शुरू कर दिया। तीन चरणों वाले इस अभियान के तहत 2002 की वोटर लिस्ट और मौजूदा लिस्ट का मिलान किया है। दोनों सूचियों के बीच अब तक हुए ‘मैपिंग और मैचिंग’ के निष्कर्षों के अनुसार, मौजूदा मतदाता सूची में केवल 32.06 प्रतिशत नाम ही 2002 की मतदाता सूची में मौजूद हैं। बिहार चुनाव में विपक्ष की पूरी कोशिश के बाद भी विशेष मतदाता पुनरीक्षण कार्यक्रम (एसआईआर) चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया। स्वयं राहुल गांधी ने ही इस मुद्दे का कोई असर न होते देख इसे छोड़ दिया। इस परिस्थिति के बीच आज 4 नवंबर से पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु सहित 12 राज्यों-केंद्र शासित प्रदेशों में एसआईआर की प्रक्रिया शुरु हो चुकी है। पश्चिम बंगाल में लगभग छः महीने के बाद विधानसभा चुनाव होने हैं। ममता बनर्जी इस मुद्दे के प्रति जितनी आक्रामक रही हैं, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में इस मुद्दे को लेकर बड़ी प्रतिक्रिया देखने को मिल सकती है। क्या एसआईआर का मुद्दा पश्चिम बंगाल चुनाव पर कोई असर दिखा सकता है? भाजपा ने बिहार चुनाव में भी यही दावा किया था कि एसआईआर की प्रक्रिया के सहारे विदेशी घुसपैठियों की पहचान कर उन्हें मतदाता सूची से बाहर किया जाएगा। इससे वे देश के चुनावों को प्रभावित नहीं कर सकेंगे। इसके बाद हुई एसआईआर प्रक्रिया में बिहार में 65 लाख से अधिक वोट काटे गए। लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि चुनाव आयोग ने यह नहीं बताया कि कितने बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान की जा सकी और कितने विदेशी घुसपैठियों का नाम मतदाता सूची से हटाया गया। पश्चिम बंगाल में भी भाजपा विदेशी घुसपैठिया विवाद को जमकर हवा दे रही है। उसका आरोप है कि ममता बनर्जी की सरकार अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए विदेशी मुस्लिम घुसपैठियों को आधार कार्ड और पहचान पत्र बनवाकर उन्हें वोटर बनाती रही है जिससे चुनावों में इसका लाभ उठाया जा सके। लेकिन बिहार के अनुभव को देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि पश्चिम बंगाल में भी कितने घुसपैठियों की पहचान हो सकेगी और इसका कितना राजनीतिक लाभ भाजपा उठा पाएगी। लेकिन गरमाएगी राजनीति: ममता बनर्जी अपने विशेष अंदाज में कहती रही हैं कि एसआईआर के बहाने मुसलमानों का नाम वोटर लिस्ट से काटने नहीं दिया जाएगा। यानी इस विवाद के जरिए राज्य सरकार मुसलमान वोटरों को अपने पक्ष में एकजुट करने की योजना पर काम कर रही है। एसआईआर शुरू होने के पहले अचानक सैकड़ों बड़े पदों पर बैठे अधिकारियों का स्थानांतरण कर ममता बनर्जी ने अपने इरादे साफ कर दिए हैं। पश्चिम बंगाल की हिंसात्मक राजनीति में एसआईआर कराना बड़ी चुनौती : एसआईआर की प्रक्रिया राज्य के ही राजनीतिक दलों और अधिकारियों के सहयोग से चलाई जाती है। पश्चिम बंगाल की हिंसक राजनीतिक संस्कृति को देखते हुए एसआईआर प्रक्रिया के दौरान भी अप्रिय घटना होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। निचले स्तर के कर्मचारियों ने एसआईआर प्रक्रिया शुरु होने के पहले केंद्रिय बलों की उपस्थिति की मांग कर अपने इसी डर को जाहिर किया है। इस संस्कृति के होते विवादित नामों को मतदाता सूची से हटाने पर भी विवाद गहरा सकता है। पश्चिम बंगाल में एसआईआर को समुचित तरीके से संपन्न कराना चुनाव आयोग के लिए बड़ी चुनौती साबित होने जा रहा है। पश्चिम बंगाल में मुसलमान वोटों का गणित
2011 की जनगणना के अनुसार, पश्चिम बंगाल में 27.01 प्रतिशत मुसलमान थे। अब अनुमान लगाया जाता है कि पश्चिम बंगाल में मुसलमान मतदाताओं की संख्या करीब 30 प्रतिशत हो चुकी है। इसमें मुर्शिदाबाद में मुसलमानों की आबादी करीब 66.27 प्रतिशत, मालदा में 51 प्रतिशत से अधिक, उत्तर दिनाजपुर में करीब 50 प्रतिशत, और दक्षिण 24 परगना जिले में मुस्लिम आबादी 36 प्रतिशत के करीब है। इन इलाकों में मुसलमान मतदाता लगभग एक तरफा चुनाव परिणाम प्रभावित करने की स्थिति में हैं। लेकिन इन प्रमुख इलाकों के अलावा दूसरे इलाकों में भी मुसलमान अच्छी-खासी संख्या में रहते हैं और वर्तमान दौर में ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस को एकजुट होकर वोट करते हैं। कांग्रेस और वामदलों ने लगभग मैदान छोड़ने जैसी स्थिति पैदा कर दी है। इससे मुसलमान मतदाताओं के बिखरने की संभावना समाप्त हो गई है। यह पूरी तरह ममता बनर्जी के साथ एकजुट हो गया है। ममता बनर्जी प. बंगाल में क्यों अजेय राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि ममता बनर्जी 30 प्रतिशत मुसलमान वोटरों के साथ 20-25 प्रतिशत भी हिंदू वोट हासिल कर लेती हैं तो वे 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर हासिल करने की स्थिति में होंगी। इससे वे पश्चिम बंगाल में अजेय होने की स्थिति में आ जाती हैं। इसके पिछले विधानसभा चुनाव में ठीक यही हुआ था जब भाजपा बड़ी बढ़त का सपना लेकर उतरी थी, लेकिन मुसलमान और हिंदू वोटों के एक हिस्से के सहारे ममता बनर्जी ने अब तक की सबसे बड़ी सफलता हासिल की थी।निचले स्तर पर भाजपा के पास कार्यकर्ता नहीं : पश्चिम बंगाल में हिंदू-मुसलमानों के अलावा कुछ स्थानीय समुदाय भी हैं जो अपने आपको इन दो वर्गों से अलग करके देखते हैं। उनकी मतदान करने की सोच स्थानीय कारकों से ज्यादा प्रभावित होती है। राज्य सरकार से लाभ हासिल करने की कोशिश और ममता बनर्जी के स्थानीय मजबूत छत्रप इन वर्गों को सत्ता के पक्ष में मतदान करने के लिए मजबूर करते हैं। पहले यही काम वाम सरकार के लिए होता था, आरोप है कि अब यही वर्ग ममता बनर्जी के लिए वोट करने को बाध्य करता है। कहा यही जाता है कि इस वर्ग को प्रभावित करने की क्षमता अभी भी भाजपा में नहीं है क्योंकि निचले स्तर पर भाजपा के पास मजबूत कार्यकर्ता बल नहीं है। भाजपा ने पश्चिम बंगाल के पिछले विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में निचले स्तर पर काडर खड़ा करने की कोशिश की थी। लेकिन बाद में राजनीतिक हिंसा में इनके साथ क्रूर व्यवहार हुआ। आरोप है कि तृणंमूल कार्यकर्ताओं ने सैकड़ों भाजपा समर्थक लोगों के घरों को आग के हवाले कर दिया और बाद में ये लोग भी तृणमूल कांग्रेस के साथ जाने को मजबूर हो गए। ऐसे में नई परिस्थितियों में पश्चिम बंगाल में भाजपा के लिए अपना काडर खड़ा कर पाना आसान नहीं होगा। भाजपा के पास क्या विकल्प : भाजपा पश्चिम बंगाल में वोटों के ध्रुवीकरण पर ही विश्वास कर सकती है। 30 प्रतिशत के करीब मुसलमान आबादी में उसे लगभग नगण्य वोट ही मिल सकता है। ममता बनर्जी से जीतने के लिए उसे शेष 70 प्रतिशत में से 50 प्रतिशत हासिल करने की स्थिति पैदा करनी होगी। लेकिन पश्चिम बंगाल में अभी सांप्रदायिक विभाजन इतना गहरा नहीं हुआ है कि भाजपा वहां अकेले हिंदुओं में 50 प्रतिशत से अधिक मत हासिल कर सके। भाजपा की यही मुश्किल सबसे बड़ी है जिसकी काट फिलहाल उसके तरकश में दिखाई नहीं दे रहा है। घुसपैठियों का मुद्दा कितना होगा कारगर: अमित शाह लगातार पश्चिम बंगाल में बांग्लादेशी मुसलमानों का मुद्दा उठा रहे हैं। वे घुसपैठियों को बाहर करने के नारे के साथ स्थानीय हिंदू समुदाय का समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने आरोप लगाया है कि विदेशी घुसपैठिये पश्चिम बंगाल के लोगों का हक और नौकरी छीन रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि घुसपैठियों के विरोध में स्थानीय लोगों के बीच एक संवेदना अवश्य है, लेकिन यह इतना बड़ा नहीं है कि वह भाजपा को अकेले जीत की स्थिति में ला सके। एसआईआर का मुद्दा घुसपैठिया विवाद को नई हवा देकर भाजपा को नई ऊर्जा अवश्य दे सकता है। बिहार में नहीं मिले विदेशी घुसपैठिये : भाजपा पश्चिम बंगाल में घुसपैठिया विवाद के सहारे एक भावनात्मक मुद्दा पैदा करने की कोशिश कर रही है। लेकिन इसी बीच यह पता चला है कि बिहार के सीमांत इलाकों में विदेशी घुसपैठियों की संख्या न के बराबर ही मिली है। यानी जिस घुसपैठियों को बाहर करने की बात उठाकर भाजपा इस मुद्दे को बड़ा बनाना चाहती है, बिहार में उसका कोई असर नहीं हुआ है। सीमांचल के इलाकों के बारे में यही दावा किया जा रहा था कि यहां बड़ी संख्या में बांग्लादेशी-म्यांमार से आए घुसपैठिये अपनी पहचान छिपाकर रह रहे हैं। लेकिन बिहार एसआईआर संपन्न होने के बाद भी चुनाव आयोग यह नहीं बता पाया कि कितने विदेशी घुसपैठियों की पहचान करने और उनका नाम मतदाता सूची से हटाने में सफलता मिली है। ऐसे में पश्चिम बंगाल में इसका कितना असर होगा, कहना मुश्किल है।








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