श्रीकृष्ण रुक्मणि विवाह में किया गया पुष्प वर्षा, महारासके आनंद में डूबे रहे श्रद्धालु

कथा के अंतिम दिन कल होगा द्वारिका लीला, सुदामा चरित्र का मनमोहक वर्णन


अशोक झा, सिलीगुड़ी: डालमिया परिवार द्वारा आयोजित संगीतमय श्रीमद भागवत कथा के छठे दिन अग्रसेन भवन श्रीमद् भागवत कथा में कथावाचक व्यास केशव कृष्ण महाराज ने श्रीकृष्ण-रुक्मणी विवाह प्रसंग सुनाया। श्रद्धालुओं ने भगवान श्रीकृष्ण-रुक्मणी विवाह को एकाग्रता से सुना। श्रीकृष्ण-रुक्मणि का वेश धारण किए बाल कलाकारों पर भारी संख्या में आए श्रद्धालुओं ने पुष्पवर्षा कर स्वागत किया। श्रद्धालुओं ने विवाह के मंगल गीत गाए। केशव कृष्ण ने कहा कि कथावाचक ने आगे कहा कि गोपियों ने भगवान श्रीकृष्ण से उन्हें पति रूप में पाने की इच्छा प्रकट की। भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों की इस कामना को पूरी करने का वचन दिया। अपने वचन को पूरा करने के लिए भगवान ने महारास का आयोजन किया। इसके लिए शरद पूर्णिमा की रात को यमुना तट पर गोपियों को मिलने के लिए कहा गया। सभी गोपियां सज-धजकर नियत समय पर यमुना तट पर पहुंच गईं। कृष्ण की बांसुरी की धुन सुनकर सभी गोपियां अपनी सुध-बुध खोकर कृष्ण के पास पहुंच गईं। उन सभी गोपियों के मन में कृष्ण के नजदीक जाने, उनसे प्रेम करने का भाव तो जागा, लेकिन यह पूरी तरह वासना रहित था। इसके बाद भगवान ने रास आरंभ किया। माना जाता है कि वृंदावन स्थित निधिवन ही वह स्थान है, जहां श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था। यहां भगवान ने एक अद्भुत लीला दिखाई थी, जितनी गोपियां उतने ही श्रीकृष्ण के प्रतिरूप प्रकट हो गए। सभी गोपियों को उनका कृष्ण मिल गया और दिव्य नृत्य व प्रेमानंद शुरू हुआ। रुक्मिणी विवाह का वर्णन करते हुऐ कहा कि भगवान श्रीकृष्ण ने सभी राजाओं को हराकर विदर्भ की राजकुमारी रुक्मिणी को द्वारका में लाकर उनका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया। मौके पर आयोजक मंडली की ओर से आकर्षक वेश-भूषा में श्रीकृष्ण व रुक्मिणी विवाह की झांकी प्रस्तुत कर विवाह संस्कार की रस्मों को पूरा किया गया। कथा के साथ-साथ भजन संगीत भी प्रस्तुत किया गया।
रुक्मणी विदर्भ देश के राजा भीष्मक की पुत्री और साक्षात लक्ष्मी जी का अवतार थी। रुक्मणी ने जब देवर्षि नारद के मुख से श्रीकृष्ण के रूप, सौंदर्य एवं गुणों की प्रशंसा सुनी तो उसने मन ही मन श्रीकृष्ण से विवाह करने का निश्चय किया। रुक्मणी का बड़ा भाई रुक्मी श्रीकृष्ण से शत्रुता रखता था और अपनी बहन का विवाह चेदिनरेश राजा दमघोष के पुत्र शिशुपाल से कराना चाहता था। रुक्मणी को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने एक ब्राह्मण संदेशवाहक द्वारा श्रीकृष्ण के पास अपना परिणय संदेश भिजवाया। तब श्रीकृष्ण विदर्भ देश की नगरी कुंडीनपुर पहुंचे और वहां बारात लेकर आए शिशुपाल व उसके मित्र राजाओं शाल्व, जरासंध, दंतवक्त्र, विदु रथ और पौंडरक को युद्ध में परास्त करके रुक्मणी का उनकी इच्छा से हरण कर लाए। वे द्वारिकापुरी आ ही रहे थे कि उनका मार्ग रुक्मी ने रोक लिया और कृष्ण को युद्ध के लिए ललकारा। तब युद्ध में श्रीकृष्ण व बलराम ने रुक्मी को पराजित करके दंडित किया। तत्पश्चात श्रीकृष्ण ने द्वारिका में अपने संबंधियों के समक्ष रुक्मणी से विवाह किया। इस विवाह के पीछे जब हम प्रेम की परिभाषा के बारे में बात करते हैं, तो जहन में केवल एक ही तस्वीर उभरती है जो है श्री राधा-कृष्ण की। हमनें दोनों के प्रेम प्रसंग से जुड़ी अनेकों कथाएं सुनी हैं। मगर सारा जग इस बात को भी जानता है कि श्री राधा रानी भगवान श्री कृष्ण की कभी धर्मपत्नी नहीं बन पाई थीं। हालांकि, ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार ब्रह्म देव ने स्वयं राधा-कृष्ण का विवाह कराया था। मगर और किसी भी वेद-पुराण में इस बात के साक्ष नहीं मिलते हैं। वेद-पुराणों और साहित्य पर विश्वास किया जाए तो श्रीकृष्ण की 8 रानियां थीं, जिनसे उन्होंने विधिपूर्वक विवाह किया था और इन 8 रानियों में सबसे पहली रानी रुक्मिणी देवी थीं। देवी रुक्मिणी और श्रीकृष्ण की शादी की कथा बेहद रोचक है। आज हम आपको बताएंगे कि आखिर श्रीकृष्ण और रुक्मिणी मिले कैसे थे और कैसे दोनों का विवाह हुआ था। शुकदेव मुनि राजा परीक्षित से कहने लगे, हे राजन! इस प्रकार जब भगवान श्री बलराम जी का विवाह रेवत नंदिनी रेवती के साथ संपन्न हुआ। और भगवान श्री कृष्ण ने रुक्मणी से प्रेम किया। श्री कृष्ण ने रुक्मणी को शिशुपाल आदि सैकड़ों राजाओं के बीच से हरण कर वैदिक रीति से विवाह रचाया। तब राजा परीक्षित ने हाथ जोड़कर के निवेदन किया। भगवन! आप कृपा करके मुझे कृष्ण रुक्मणी विवाह की कथा को विस्तार से वर्णन कीजिए। तब शुकदेवमुनि कहने लगे हे राजन! मैं तुम्हें रुक्मणी मंगल की कथा सुनाता हूं। देखो राजन! विदर्भ देश के कुंडिनपुर में भीष्मक महाराज का राज्य था। भीष्मक के पांच पुत्र व एक कन्या थी। कन्या सबसे छोटी थी जिसका नाम था रुक्मणी। जब रुक्मणी जी का जन्म हुआ तब भीष्मक ने बड़े ही आनंद से संपूर्ण नगर में बधाइयां बंटवाई व आनंदित होकर ब्राह्मणों को दान दक्षिणा लुटाई क्योंकि हे राजन! रुक्मणी जी का जन्म शुभ सगुनो व लक्षणों से युक्त था। हो भी क्यों न क्योंकि आज भीष्म के घर साक्षात लक्ष्मी जी का अवतार जो हुआ था। रुकमणी के जन्म के बाद ब्राह्मणों ने उसकी जन्म पत्रिका देखकर के राजा भीष्म को बताया कि महाराज आपकी कन्या साधारण कन्या नहीं है। यह साक्षात लक्ष्मी स्वरूपा है। इस प्रकार हे राजन! जब धीरे धीरे रुकमणी बड़ी होने लगी। जब रुक्मणी अपनी सहेलियों के साथ खेलती थी। जब सखियां संध्या के बाद लुकाछिपी का खेल खेलती थी। तो सखीया रुक्मणी से कहती थी। हे रुकमणी! तुम हमारे साथ यह लुका छुपी का खेल मत खेला करो, क्योंकि जब भी तुम आती हो तो तुम्हारी दिव्य देह से प्रकाश चमकता है। जिससे हम छुप नहीं पाते हैं। ऐसा दिव्य तेज व दिव्य सौंदर्य भीष्मक : नंदनी रुक्मणी जी का था। एक दिन जब देव ऋषि नारद का आगमन कुंडिनपुर में होता है। देव ऋषि को आया हुआ देखकर महाराज भीष्मक नंगे चरण चल कर के द्वार से देव ऋषि नारद का स्वागत सत्कार अभिनंदन करते हैं। और आदर के साथ उचित आसन देकर के बिठाते हैं। तत्पश्चात राजा और रानी अपनी लाडली पुत्री रुक्मणी को बुलाकर देव ऋषि नारद को प्रणाम करवाते हैं। नारद जी ने शुभाशीष दिया। तब राजा रानी ने कहा, कि आप कृपा करके मेरी पुत्री का भाग्य बताइए? इसका वर कैसा होगा? इसके भाग्य में क्या लिखा है? तब देव ऋषि नारद कहने लगे हे राजन! मैं देख रहा हूं। कि रुक्मणी का विवाह किसी साधारण पुरुष से नहीं होगा अपितु जो दिव्य देह धारण करके पृथ्वी पर अवतार दिए हुए हैं उन्हीं के साथ इसका विवाह होगा। तब महाराज भीष्म कहने लगे, अब आप कृपा करके यह भी बताइए? कि इस समय ऐसा कौन है। जो मेरी पुत्री के योग्य हैं। तब नारद जी ने कहा कि राजन! द्वारिकाधीश श्री कृष्ण रुक्मणी के विवाह के योग्य है। और इसका विवाह श्रीकृष्ण के साथ संपन्न होगा। जो अभी दुष्टों का संहार करके द्वारिकापुरी में विराजित है। राजन! इस समय श्री कृष्ण श्री नारायण के अवतार रूप में भू मंडल पर लीलाएं कर रहे हैं। इस प्रकार देव ऋषि नारद ने जब रुकमणी के सामने भगवान श्री कृष्ण के दिव्य सौंदर्य माधुरी व उनकी वीरता का वर्णन किया। तबसे रुकमणी जी भगवान श्री कृष्ण को अपना प्रियतम मान करके प्रेम करने लगी है। आठों प्रहर भगवान श्री कृष्ण की श्याम मूर्ति का ध्यान करती रहती है। जैसा जैसा वर्णन श्री नारद जी ने सुनाया वैसी ही छवि अपने अंतःकरण में बना करके भगवान श्री कृष्ण को अपना प्रियतम मान रूप में ध्यान करने लगी है। उधर देव ऋषि नारद ने द्वारिकाधीश भगवान श्री कृष्ण से भी भीष्म के नंदनी रुकमणी के रूप सौन्दर्य का वर्णन किया। भगवान श्री कृष्ण भी देवी रुक्मणी से प्रेम करने लगे हैं। शिशुपाल के साथ रुक्मणी का लग्न तय होना : इस प्रकार हे राजन! सभी कुंडिनपुर वासी रुक्मणी से बहुत अधिक स्नेह करते थे। परिवार में भी सबसे की लाडली थी। एक दिन महाराज भीष्मक अपने परिवारजनों के साथ रुक्मणी के विवाह की चर्चा करने लगे। कि रुक्मणी का विवाह किसके साथ किया जाए। तब रुक्मणी का सबसे छोटा भाई रुक्मरथी ने कहा। कि पिताश्री! मेरी दृष्टि से द्वारिकाधीश श्री कृष्ण से योग्य कोई हमारी रुकमणी के योग्य सुवर नहीं है। अतः हमारी प्यारी बहन का विवाह श्रीकृष्ण के साथ संपन्न होना चाहिए। रुक्मणि के भाई रुक्म का वह परम मित्र था। रुक्म अपनी बहन का विवाह शिशुपाल से करना चाहता था। रुक्म ने माता-पिता के विरोध के बावजूद अपनी बहन का शिशुपाल के साथ रिश्ता तय कर विवाह की तैयारियां शुरू कर दी थीं। रुक्मिणी को जब इस बात का पता लगा, तो वह बड़ी दुखी हुई। उसने अपना निश्चय प्रकट करने के लिए एक ब्राह्मण को द्वारिका श्रीकृष्ण के पास भेजी थीं देवी रुक्मिणी? विदर्भ राज्य के राजा भीष्मक के एक पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्र का नाम रुक्‍मी और पुत्री का नाम रुक्मिणी था। राजा भीष्म अपनी पुत्री से बहुत प्रेम करते थे और उनके विवाह के लिए योग्य वर की तलाश में थे। इस विषय में राजा भीष्म के सबसे करीबी मित्र एवं महाभारत कालीन मगध राज्य के नरेश जरासंध को भी पता था। जरासंध को उस वक्त का शक्तिशाली राजा माना जाता था और ऐसा भी कहा जाता था कि जरासंध का वध कोई नहीं कर सकता है। जरासंध देवी रुक्मिणी को अपनी पुत्री जैसा ही मानते थे और इसलिए वह खुद भी रुक्मिणी के लिए योग्य वर की तलाश में थे। मगर रुक्मिणी के मन में शुरू से ही भगवान श्रीकृष्ण की छवि बसी हुई थी। बड़े-बड़े महारथी को परास्त करने वाले श्रीकृष्ण की कथा रुक्मिणी कई लोगों के मुंह से सुन चुकी थीं। देवी रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण के विषय में सुनकर ही यह तय कर लिया था कि वह उन्हीं से विवाह करेंगी। मथुरा के राजा कंस को झटके में ढेर करने के बाद तो श्रीकृष्ण की ख्‍याती और भी बढ़ गई थी। उनकी वीरता के चर्चे चौतरफा गूंज रहे थे। मगर वहीं श्रीकृष्ण ने कंस का वध करके बहुत से राज्यों को अपना दुश्मन भी बना लिया था, जिसमें से एक था मगध का राजा जरासंध। दरअसल, कंस जरासंध का दामाद था और इसलिए वह श्रीकृष्ण से घृणा करता था। जब जरासंध को इस विषय में ज्ञात हुआ कि रुक्मिणी को श्रीकृष्ण से प्रेम है , तो देवी रुक्मिणी के भाई रुक्‍मी के साथ मिलकर जरासंध ने छेदी नरेश शिशुपाल के साथ रुक्मिणी का विवाह तय कर दिया। मगर विधि को तो कुछ और ही मंजूर था, इसलिए यह विवाह कभी हो ही नहीं सका। श्रीकृष्ण और रुक्मिणी की प्रेम कथा:
रुक्मिणी ने अपने पिता को यह बात पहले ही बता दी थी कि वह विवाह केवल श्रीकृष्‍ण से ही करेंगी क्योंकि वह मन ही मन उन्हें अपना पति मान चुकी हैं। ऐसे में रुक्मिणी के पिता ने भी उन्हें सहयोग देने की ठान ली। मगर जरासंध और देवी रुक्मिणी के भाई को जैसे ही इस बात की भनक लगी उन्होंने राजा भीष्मक और राजकुमारी देवी रुक्मिणी को कारागार में डाल दिया।कारागार में बंदी बने हुए ही देवी रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण की सखी एवं बरसाने की रानी देवी राधा को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने बताया कि कैसे उन्हें और उनके पिता को बंधक बना लिया गया है और वह चाहती हैं कि श्रीकृष्ण उन्हें बचाने के लिए स्वयं विदर्भ राज्य पधारें। श्री राधा रानी को जब यह पत्र मिला तो उन्होंने स्वयं श्रीकृष्‍ण से देवी रुक्मिणी की मदद करने का आग्रह किया। इस बात से श्रीकृष्‍ण पहले ही वाकिफ थे कि देवी रुक्मिणी को यदि वह बचाने गए तो उन्हें उनसे विवाह भी करना पड़ेगा। मगर सखी राधा के आग्रह पर उन्‍हें विवशतापूर्वक देवी रुक्मिणी को बचाने के लिए जाना पड़ा। श्रीकृष्‍ण जब विदर्भ देश पहुंचे तो वहां देवी रुक्मिणी का स्वयंवर चल रहा था। कृष्ण और देवी रुक्मिणी के भाई रुक्मी के बीच भयानक द्वंद्व हुआ। लोक कथाओं के अनुसार श्रीकृष्‍ण ने रुक्‍मी का वध करने के लिए अपना सुदर्शन भी उठा लिया था मगर देवी रुक्मिणी के आग्रह पर उन्होंने रुक्‍मी को छोड़ दिया भरी सभा में देवी रुक्मिणी को अपहरण कर उन्हें अपने साथ ले गए।।रुक्मिणी तो पहले ही श्री कृष्‍ण से प्रेम करती थीं और मन ही मन उन्हें अपना पति मान चुकी थीं। इस बात को श्रीकृष्ण भली भांति समझते थे और इसलिए अपहरण के बाद जब वह श्रीकृष्ण का रथ गुजरात राज्‍य के छोटे से गांव ‘माध्‍वपुर घे’ पहुंचा , तो वहां श्रीकृष्ण ने देवी रुक्मणी से विवाह कर लिया। आपको बता दें कि आज भी माधोपुर में ‘माधवराय जी मंदिर’ है, जहां हर वर्ष आज भी रामनवमी के अवसर पर विशेष मेले का आयोजन किया जाता है। रुक्मिणी से विवाह के बाद श्रीकृष्‍ण उन्हें अपनी द्वारका नगरी ले गए, जहां उनका धूमधाम से स्वागत किया गया।

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