राष्ट्रपिता महात्मा गांधी देश में रामराज्य के भी थे प्रबल आकांक्षी 

 

आज देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्यतिथि है. 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने गोली मारकर महात्मा गांधी की हत्या कर दी थी. भारत में आज गांधी जी की पुण्यतिथि मनाई जा रही है। यह एक सुविदित तथ्य है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी देश में स्वराज्य के साथ रामराज्य के भी प्रबल आकांक्षी थे। वे इन दोनों को अन्योन्याश्रित मानते थे और उनके मन-मस्तिष्क में इन दोनों की तस्वीरें बिल्कुल साफ थीं।
‘मेरे सपनों का भारत’ में उन्होंने लिखा है कि भारत अपने मूल रूप में कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं और इस कर्मभूमि को लेकर मेरा सबसे बड़ा स्वप्न है- रामराज्य की स्थापना। उनका मानना था कि आत्मानुशासन व आत्मसंयम से अनुप्राणित स्वराज्य के बगैर रामराज्य कतई संभव नहीं है, जबकि भारत के गांवों का देश होने के नाते उनके स्वराज्य की परिधि ग्राम स्वावलंबन और ग्राम स्वराज्य तक फैली हुई थी।जानकारों के अनुसार, स्वराज्य के लिए सत्याग्रह की प्रेरणा उन्होंने मीराबाई से ली थी, जिन्हें वे प्रथम सत्याग्रही मानते थे, तो रामराज्य की तुलसीदास से, चरखा कबीर से और पराई पीर को अपनी पीर समझने की भावना नरसी मेहता से। अपनी सबसे प्रिय प्रार्थना ‘रघुपति राघव राजाराम पतितपावन सीताराम’ में उन्हें इन सबका अक्स नजर आता था। अपने सपनों के रामराज्य में वे जन्म, धर्म, संप्रदाय, नस्ल, रंग, भाषा या क्षेत्र आदि किसी के भी आधार पर किसी भेदभाव की कोई जगह नहीं रखते थे। लेकिन संयोग कहें या दुर्योग कि जिस रामराज्य को लेकर लेकर वे इतने आग्रही थे, अपने समूचे जीवन में उसके प्रदाता भगवान राम की राजधानी कहें, जन्मभूमि या राज्य अयोध्या वे सिर्फ दो बार जा पाये। उनकी पहली अयोध्या यात्रा में 10 फरवरी, 1921 को दिये गये इस संदेश की अभी भी कभी-कभार चर्चा हो जाती है कि हिंसा कायरता का लक्षण है और तलवारें कमजोरों का हथियार. यह भी कहा जाता है कि इस यात्रा में उन्होंने अयोध्या के साधुओं के बीच जाकर उनसे आजादी की लड़ाई लड़ने को कहा और विश्वास जताया था कि देश के सारे साधु, जो उन दिनों 56 लाख की संख्या में थे, बलिदान के लिए तैयार हो जायें, तो अपने तप तथा प्रार्थना से भारत को स्वतंत्र करा सकते हैं. उन्होंने साधुओं से कहा था कि जब तक हम अपने धर्म का पालन सेवा और निष्ठा से नहीं करेंगे, तब तक इस राक्षसी (अंग्रेज) सरकार को नष्ट नहीं कर सकेंगे, न स्वराज्य प्राप्त कर सकेंगे और न ही अपने धर्म का राज्य। पर 1929 में हुई उनकी दूसरी अयोध्या यात्रा सर्वथा अचर्चित रह गयी है। संदेश और महत्व की दृष्टि से वह पहली यात्रा से कहीं से भी कमतर नहीं है। दूसरी बार वे अपने ‘हरिजन फंड’ के लिए धन जुटाने के अभियान के सिलसिले में ‘अपने राम की राजधानी’ आये थे। बताते हैं कि इस धन-संग्रह के लिए तत्कालीन फैजाबाद शहर के मोती बाग में उनकी सभा आयोजित हुई तो एक सज्जन ने उन्हें अपनी चांदी की अंगूठी प्रदान कर दी। लेकिन हरिजन कल्याण के अपने मिशन में वे अंगूठी का भला कैसे और क्या उपयोग करते? वे सभा में ही उसकी नीलामी कराने लगे, ताकि उसके बदले में उन्हें धन प्राप्त हो जाये। एक सज्जन ने पचास रुपये की बोली लगायी और नीलामी उन्हीं के नाम पर खत्म हो गयी। वायदे के मुताबिक गांधी जी ने उन्हें अंगूठी पहना दी। लेकिन उस सज्जन के पास सौ रुपये का नोट था। उसे देकर बाकी के पचास रुपये वापस पाने के लिए प्रतीक्षा करने लगे। थोड़ी देर बाद महात्मा ने उन्हें खड़े देखा और कारण पूछा, तो उन्होंने अपने पचास रुपये वापस मांगे। लेकिन महात्मा ने यह कहकर उन्हें लाजवाब कर दिया कि हम तो बनिया हैं, हाथ आये हुए धन को वापस नहीं करते। वह दान का हो, तब तो और भी नहीं। महात्मा इस यात्रा में समर्पित सर्वोदय कार्यकर्ता धीरेंद्र भाई मजूमदार द्वारा अयोध्या के पूरब में लगभग साठ किलोमीटर दूर स्थित अकबरपुर (जो अब अंबेडकरनगर जिले का मुख्यालय है) में स्थापित देश का पहला गांधी आश्रम देखने भी गये थे। वहां ‘पाप से घृणा करो पापी से नहीं’ वाला अपना बहुप्रचारित संदेश देते हुए वे स्वीटमैन नामक अंग्रेज पादरी के बंगले में ठहरे थे। गांधी आश्रम में हुई सभा में उन्होंने लोगों से संगठित होने, विदेशी वस्त्रों का त्याग करने, चरखा चलाने, जमींदारों के जुल्मों का अहिंसक प्रतिरोध करने, शराबबंदी के प्रति समर्पित होने और सरकारी स्कूलों का बहिष्कार करने को कहा था. फिर तो अवध के आंदोलित किसानों ने भी हिंसा का रास्ता त्याग दिया। गौरतलब है कि इन दोनों यात्राओं से पहले 1915 में कोलकाता से हरिद्वार के कुंभ मेले में जाते हुए महात्मा अयोध्या से होकर गुजरे थे, लेकिन उसकी धरती पर कदम नहीं रखा था।तब से इस दिन पूरा देश बापू को याद करता है। शहीद दिवस को लेकर कुछ लोगों में असमंजस की स्थिति बनी रहती है क्योंकि भारत में शहीद दिवस दो बार मनाया जाता है एक जनवरी में और दूसरा मार्च में. चलिये जानते है साल में दो बार शहीद दिवस क्यों मनाया जाता है और दोनों में अंतर क्या है।आजादी की लड़ाई में प्रमुख भूमिका निभाने वाले महात्मा गांधी का पूरा नाम मोहनदास करमचंद गांधी है. गांधी जी ने सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराया था. महात्मा गांधी एक महान शांति समर्थक और दूरदर्शी थे जिन्होंने अंग्रेजों से लड़ने और देश के लिए आजादी हासिल करने के अहिंसक तरीकों का प्रचार किया था। महात्मा गांधी ही थे जिन्होंने प्रस्ताव दिया था कि हम अहिंसक तरीकों से अंग्रेजों से लड़ सकते हैं. अंग्रेजों ने भारत पर 200 वर्षों से अधिक समय तक शासन किया था. हर साल, उन्हें उनकी पुण्य तिथि पर याद किया जाता है. 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई थी।दो बार क्यों मनाया जाता है शहीद दिवस:पूरा देश साल में दो बार शहीद दिवस मनाता है, जिसमें से एक जनवरी महीने की 30 तारीख को और दूसरी बार मार्च में मनाया जाता है। ऐसे में एक स्वाभाविक उठता है कि शहीद दिवस दो बार क्यों मनाया जाता है.शहीद दिवस (30 जनवरी) का इतिहास:30 जनवरी, 1948 को, महात्मा गांधी दिल्ली के बिड़ला भवन में एक शाम की प्रार्थना सभा को संबोधित करने जा रहे थे. उसी समय शाम लगभग 5:17 बजे, नाथूराम गोडसे द्वारा उन्हें तीन गोलियां मार दी गयी थी जिसके बाद उनकी मृत्यु हो गई थी. अहिंसा के पुजारी गांधी जी के निधन के बाद हर साल उनकी पुण्यतिथि (30 जनवरी) को शहीद दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।महात्मा गांधी पूरे देश में शांति और अहिंसा का प्रचार किया था. उन्होंने भारत के साथ-साथ विदेशों में भी लोगों को प्रभावित किया. उनके सम्मान में हर साल महात्मा गांधी की जयंती 2 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जाता है। कब मनाया जाता दूसरा शहीद दिवस:हर साल 30 जनवरी के बाद 23 मार्च को पूरा देश एक बार और शहीद दिवस मनाता है. इस दिवस का इतिहास और भी पुराना है. इस दिन पूरा देश शहीदों की शहादत को सलाम करता है. चलिये जानते है 23 मार्च के शहीद दिवस का क्या महत्व है. शहीद दिवस (23 मार्च) का इतिहास:शहीद दिवस (23 मार्च) का जब भी जिक्र होता है तो हर भारतीय की आंखे नम हो जाती है. इस दिन साल 1931 में वीर क्रांतिकारी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई थी. उस समय भारतीयों के आक्रोश के डर के कारण अंग्रेजों ने गुपचुप तरीके से तीनों क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया था. तब से यह दिवस भारतीय इतिहास के पन्नों में अमर हो गया। उन क्रांतिकारियों के सम्मान में पूरा देश शहीद दिवस के रूप में मनाता है। अब आप सभी को दोनों शहीद दिवस में अंतर स्पष्ट हो गया होगा।
नाथूराम गोडसेने महात्मा गांधी की हत्या नहीं की?
रंजीत सावरकर द्वारा लिखित पुस्तक ‘मेक श्योर गांधी इज डेड’ नई दिल्ली में प्रकाशित हुई है। लेकिन रिलीज होते ही उनकी नई किताब विवादों के घेरे में आ गई है​। इस किताब में महात्मा गांधी की हत्या को लेकर एक अलग दावा किया गया है​। रंजीत सावरकर द्वारा लिखित पुस्तक ‘मेक श्योर गांधी इज डेड’ नई दिल्ली में प्रकाशित हुई है। लेकिन रिलीज होते ही उनकी नई किताब विवादों के घेरे में आ गई है​। इस किताब में महात्मा गांधी की हत्या को लेकर एक अलग दावा किया गया है​। स्वतंत्रता सेनानी विनायक दामोदर सावरकर के पोते रंजीत सावरकर की एक नई किताब ने हलचल मचा दी है​।रणजीत सावरकर की एक किताब हाल ही में नई दिल्ली में प्रकाशित हुई है। इस किताब में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या को लेकर सनसनीखेज दावे किए गए हैं​। दिलचस्प बात यह है कि आज 30 जनवरी को महात्मा गांधी की पुण्यतिथि है। उससे पहले रंजीत सावरकर की प्रकाशित नई किताब ने हलचल मचा दी है​। इसके पीछे की वजह बिल्कुल वैसी ही है​। इस किताब में सावरकर ने महात्मा गांधी की हत्या को लेकर बड़ा दावा किया है​। इस किताब में दावा किया गया है कि महात्मा गांधी की हत्या नाथूराम गोडसे ने नहीं की थी​। दिलचस्प बात यह है कि रणजीत सावरकर ने महात्मा गांधी के पोस्टमार्टम पर भी आपत्ति जताई है। ​​​रंजीत सावरकर द्वारा लिखित पुस्तक ‘मेक श्योर गांधी इज डेड’ नई दिल्ली में प्रकाशित हुई है। लेकिन रिलीज होते ही उनकी नई किताब विवादों के घेरे में आ गई है​। इस किताब में महात्मा गांधी की हत्या को लेकर एक अलग दावा किया गया है​। किताब में दावा किया गया है कि नाथूराम गोडसे द्वारा चलाई गई गोलियां और महात्मा गांधी के शरीर में मिली गोलियां अलग-अलग थीं। ​​इस किताब पर रणजीत सावरकर के वकील वीरेंद्र इचलकरंजीकर ने प्रतिक्रिया दी है​ । उन्होंने कहा है कि हम कानूनी मुद्दों पर विचार करने के बाद ही किताब का प्रकाशन कर रहे हैं​। ऐसी संभावना है कि महात्मा गांधी की हत्या को लेकर किए गए दावों के कारण रणजीत सावरकर की किताब विवादों में आ जाएगी​। रिपोर्ट अशोक झा

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