सैर सपाटा: रोचेस्टर की डायरी 11 @ लोग भारत से दूर भले ही हों, पर दिलों में भारतीय संस्कृति ही बसती है
सैर सपाटा: रोचेस्टर की डायरी 11
अपनी सभ्यता और संस्कृति अपनी ओर अपनों को जरूर ही खींचती है। चूंकि इसबार गुरुद्वारे पर चर्चा करनी है , इसलिए सतश्री अकाल से अपनी बात शुरू करते हैं । रोचेस्टर शहर में गुरद्वारा भी है, यह जानकर वहां जाने के लिए मन लालायित हो उठा। वैसे कहा भी गया है कि जहां चाह हो, वहां राह निकल ही जाती है । रविवार के दिन हम वहां के लिए निकले । क्योंकि अमूमन अवकाश के दिन ही लोग ऐसे स्थानों पर पहुंचते हैं।
यहां पर एक घटना की चर्चा करने का प्रलोभन मैं छोड़ नहीं पा रहा हूं। दरअसल घर से निकल कर जब हमारी कार कुछ किमी आगे बढ़ी , तब एक कार हमारा पीछा करने लगी थी। लेकिन गाड़ी चला रही बिटिया ने उस पर ध्यान नहीं दिया। कुछ दूरी तक ऐसा ही चलता रहा। आखिर एक रेड सिग्नल पर हमारी कार रुकी, तब तक पीछे वाली कार वहां पहुंच चुकी थी ।
कार चालक एक लड़की थी । उसने तुरंत ही संकेतों से हमें कार रोकने को कहा । एकबारगी हम समझ नहीं पाए कि ऐसा क्या हो गया है । मन में यह शंका होने लगी कि कहीं सड़क यातायात के किसी नियम का उल्लंघन तो नहीं हो गया है। बहरहाल हम रुक गए । असमंजस की स्थिति तब समाप्त हुई, जब कार वाली लड़की आई और उसने हमारी कार की छत पर रखा हुआ मोबाइल हमें दिया और हंसते हुए चली गई ।
यह सब इतनी शीघ्रता से हुआ कि बिटिया के मुंह से धन्यवाद के अलावा कुछ निकला ही नहीं। कार तो गुरुद्वारे की तरफ बढ़ गई , लेकिन मेरा मन काफी समय तक वहीं अटका रहा। दरअसल महंगा मोबाइल देवेश जी ( दामाद ) का था , जो उन्होंने कार की छत पर भूलवश छोड़ दिया था। अगर कार वाली लड़की ने हमारी भूल का अहसास न कराया होता, तो सड़क पर झटका लगने पर मोबाइल गिर सकता था। इसलिए हमारा नुकसान बचाने के लिए कार वाली लड़की ने इतनी दूर तक पीछा किया था।
पर मैं काफी देर तक यही सोचता रहा कि यह उस लड़की का स्वभाव था अथवा ऐसा करना आम अमेरिकी लोगों की आदत में शामिल है ।
दूसरी बात जो भारत के संदर्भ में अधिक महत्वपूर्ण है , वह यह कि रोचेस्टर की सड़कें ही ऐसी हैं कि कार को कई किमी तक चलने के बाद भी झटका नहीं लगा। अर्थात सड़क की गुणवत्ता की प्रशंसा तो करनी ही पड़ेगी । यद्यपि हम तो मोबाइल सुरक्षित बच जाने को वाहेगुरु की कृपा ही मानते हैं ।
आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास, हिंदी में मुहावरा है । कुछ ऐसा ही विषयांतर यहां दिख सकता है । इसलिए बिना देरी किए सीधे अब गुरुद्वारे ही पहुंंचते हैं । गुरुद्वारे के बाहर गाड़ियां निर्धारित स्थान पर ही खड़ी दिखती हैं। पार्किंग के लिए सड़क पर पट्टियां बना दी गई हैं।
गुरुद्वारे में उपलब्ध रुमाल सिर पर रखकर हाल में आ जाए । उस वक्त ग्रंथी गुरुग्रंथ साहिब का पाठ कर रहे थे । वहां पर मत्था टेकने के बाद हम भी अन्य श्रद्धालुओं में शामिल हो गए। बीच-बीच में वाहेगुरू का खालसा वाहेगुरू की फ़तेह का ग्रंथी उच्चारण करते थे, जिसे सभी लोग दोहरा भी रहे थे । अपनी बुद्धि से मैंने अनुमान लगाया कि वाहेगुरु संभवत: परमात्मा के लिए इस्तेमाल होता है। वाहेगुरु को दिल में बसाने वाला ही खालसा है। और जो वाहेगुरु है उसकी जीत तो पक्की है। अर्थात उसकी ही मर्जी हमेशा चलती है ।
इस अवसर पर सुंदर भजन सुनाए गए। चूंकि उनके बोल अच्छे से समझ में आ रहे थे, तो मन भी रमने लगा था। कई भजनों के बाद कार्यक्रम का समापन हुआ ।
मैंने संकोचवश न तो वीडियो बनाया न ही तस्वीरें खींची। हां उसकी समाप्ति के बाद कुछ तस्वीरें जरूर मोबाइल से ले लीं ।
सत्संग के बाद गुरुद्वारे के एक अन्य हाल में कतार में बैठकर लंगर का आनंद उठाया। खाने में घी लगी हुई रोटियां, सब्जी, दाल, चावल, गुलाब जामुन, हलवा जैसे भारतीय व्यंजन थे।
अपने देश में भी लंगर में जाने का मौका मिला है । यहां भी सब कुछ अपने देश जैसा ही महसूस हो रहा था । वही विनम्रता, प्रेम, मुस्कान के साथ अच्छे से खाना खिलाना यादगार रहेगा ।
यहां तो सेवक बनने में ही गौरव महसूस होता है । सचमुच यह गुरुवाणी और गुरुद्वारे का प्रभाव नहीं तो और क्या है ! साथ ही यह भी प्रतीत होता है कि लोग भारत से दूर भले ही हों, पर दिलों में भारतीय संस्कृति ही बसती है। वैसे रोचेस्टर में एक गुरुद्वारा और भी है।
क्रमश: ……-लेखक आशुतोष पाण्डेय अमर उजाला वाराणसी के सीनियर पत्रकार रहे हैं, इस समय वह अमेरिका घूम रहे हैं,उनके संग आप भी करिए दुनिया की सैर