लोकसभा चुनाव के पहले असम में स्वदेशी मुसलमानों के सामाजिक, आर्थिक सर्वे खूब चर्चा में

गुवाहाटी: असम में इन दिनों स्वदेशी मुसलमानों के सामाजिक, आर्थिक सर्वे की खूब चर्चा हो रही है। इसको लेकर स्थानीय लोग असमंजस की स्थिति में हैं। स्थानीय मुसलमानों ने मीडिया से बातचीत के दौरान कहा है कि वो उधेड़बुन में हैं कि सरकार आखिर उनके साथ करना क्या चाहती है। इसी महीने के आखिर में इनपर सर्वे शुरू होने जा रहा है। ये वे लोग हैं, जो असम की भाषा बोलते हैं। दूसरी तरफ एक और समुदाय भी है, जो बांग्लाभाषी है, लेकिन इन्हें देसी मुसलमानों की तरह नहीं देखा जा रहा।
क्या वाकई बांग्लादेश से आए थे लोग: असम में मुस्लिम आबादी काफी है। इसे लेकर राज्य में अक्सर विवाद भी होता रहा। अलग-अलग समय पर सरकारें आरोप लगाती रहीं कि बॉर्डर होने के कारण असम में पड़ोसी देशों से मुस्लिम आ रहे हैं। वैसे उनके भागकर भारत में घुसपैठ करने की शुरुआत साठ के दशक से ही हो चुकी थी, जब पाकिस्तान से टूटकर बांग्लादेश बना भी नहीं था। पूर्वी पाकिस्तान के इन लोगों का आरोप था कि सरकार उनसे भेदभाव कर रही है। हर तरह से त्रस्त लोग भागकर भारत आने लगे। शुरुआत में इनसे कोई कड़ाई नहीं हुई। माना जा रहा था कि बांग्लादेश बनने के बाद वे वापस लौट जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बल्कि घुसपैठ अब तक जारी है। पांच उप-समूहों में बांटा गया: डेढ़ साल पहले हिमंत बिस्वा सरकार ने एक फिल्टर लगाने की बात की ताकि भारतीय मुस्लिमों को बाहरी से अलग किया जा सके। इसमें एक वर्ग वो था, जो असम की भाषा बोलने और उसी तरह का कल्चर फॉलो करने वाला था। माना गया कि ये स्वदेशी या देसी बिरादरी है। इनमें गोरिया, मोरिया, जोलाह, देसी और सैयद समुदाय हैं।इस दौरान हुआ होगा धर्म परिवर्तन: ये सभी लोग भौगोलिक स्थिति के आधार पर पहचाने जा रहे हैं। जैसे मोरिया, जोलाह और गोरिया चाय बागानों के करीब बसी आबादी है। वहीं सैयद और देसी नीचे की तरफ बसे हुए हैं लेकिन ये कई पीढ़ियों से असमिया ही बोलते आए हैं। मौजूदा सरकार का मानना है कि ये लोग असम के मूल निवासियों में से हैं, और बांग्लादेश से इनका कोई संबंध नहीं। माना जाता है कि ये समुदाय 13 वीं से 17 वीं शताब्दी के मध्य इस्लाम में परिवर्तित हुए थे, और इनकी संस्कृति हिंदुओं से मिलती-जुलती है। ब्रिटिश काल में असम के पहले प्राइम मिनिस्टर सैयद मुहम्मद सादुल्ला उन्हें छोटा नागपुर से लेकर आए थे। ट्री गार्डन में काम करने वाले जोलाह हो गए, जबकि सूफी संतों को मानने वाले सैयद कहलाने लगे।
ये समुदाय लगातार विवादों में: फिलहाल जिस मियां समुदाय पर विवाद है, वो अच्छा-खासा वोट बैंक हैं। ये निचले असम या ब्रह्मपुत्र तट पर बसा हुआ है। यही वो वर्ग है जो निशाने पर है। राज्य की कुल आबादी में केवल 40 प्रतिशत ही पहले से यहां रहते मुस्लिम वर्ग का है, जबकि 60 प्रतिशत कथित तौर पर मियां मुस्लिमों का है, जो बाद में यहां आए। ये बंगाली बोलते हैं, और राजनैतिक तौर पर काफी मुखर रहे। हालांकि दोनों वर्गों के बीच संघर्ष के हालात बन रहे हैं। असमिया बोलने वाला वर्ग मानता है कि वे मूल निवासी होने के बाद पिछड़े रह गए, जबकि मियां मुस्लिम भी खुद को पीढ़ियों से यहीं रहता बताते हैं।
सरकार ने कैसे की पहचान: पांच सब-कैटेगरी बनाने के लिए राज्य सरकार ने कई सब-कमेटी बनाईं। इनकी जांच और सिफारिश के आधार पर समुदाय को देसी और बाहरी माना गया।आगे कैसे होगा सर्वे: सर्वेक्षण की कमान अल्पसंख्यक आयोग के पास होगी। ये घर-घर जाकर कुछ निश्चित चीजें देखेगा। इसमें दस्तावेज से लेकर बोली और पहनावा भी देखा जा सकता है। पीढ़ियों का रिकॉर्ड भी देखा जाएगा। लेकिन बाकी मुस्लिमों के बारे में कुछ तय नहीं। हलचल का एक कारण ये भी है कि देसी या बाहरी दोनों ही समुदायों में आपसी शादी-ब्याह भी हो रहे हैं बहुत से मामले ऐसे भी होंगे, जिनमें देसी होने का कोई रिकॉर्ड नहीं होगा, सिवाय बोली के। सत्ता पक्ष का क्या है कहना: सरकार हालांकि इसपर भरोसा दिला रही है कि ये सर्वे सिर्फ इंडीजिनस मुस्लिमों को ज्यादा सुविधाएं देने के लिए किया जा रहा है, जो कि काफी पिछड़े हुए हैं। इस सारी उलझन के बीच राज्य के दक्षिणी हिस्से बराक घाटी में बसे मुस्लिमों ने गुवाहाटी कोर्ट में सरकारी सर्वे को चुनौती भी दे दी। यहां पंगल समुदाय के लोग बसे हुए हैं, जो मणिपुर से आए थे। वे खुद को उस सब-कैटेगरी में रखने की मांग कर रहे हैं, जिसे इंडीजिनस या स्वदेशी माना जा रहा है।इन्हें माना गया मियां मुसलमान: निचले असम या ब्रम्हपुत्र के तट पर बसे मुसलमानों को मियां मुसलमान माना गया है। वहीं एक वर्ग ऐसा भी है जो बंगाली बोलता है। उन्हें भी स्वदेशी मुसलमान नहीं माना जा रहा है। अलग-अलग समय पर सरकारों का मानना रहा है कि बॉर्डर होने के कारण असम में पड़ोसी देशों से मुस्लिम आ रहे हैं। उस समय जब पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश बना भी नहीं था तब त्रस्त होकर लोग वहां से भागने लगे थे। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, शुरुआत में तो उनपर कोई कड़ाई नहीं हुई, माना ये जा रहा था कि वो लोग अपनेआप वापस लौट जाएंगे. हालांकि वो वापस नहीं लौटे और घुसपैठ अब भी जारी है। मियां मुसलमानोें का अच्छा खासा वोट बैंक : भले ही मियां मुसलमानों को स्वदेशी नहीं माना जा रहा लेकिन इन मुसलमानों का अच्छा खासा वोट बैंक है। राज्य की कुुल आबादी में 40 प्रतिशत वे मुसलमान हैं जो पहले से ही यहां रहते हैं वहीं 60 प्रतिशत वर्ग कथित तौर पर मियां मुसलमान हैं। जो बाद में यहां आकर बसे हैं। ये मुसलमान बंगाली बोलते हैं और राजनेतिक तौर पर काफी मुखर भी रहे हैं। यही वजह है कि स्वदेशी मुुसलमानों सामाजिक आर्थक सर्वेक्षण की मंजूरी मिलने के बाद मियां मुसलमानों को डर सता रहा है। बीजेपी का कहना है कि ये सर्वे मुसलमानों की शिनाख्त के लिए किया जा रहा है, इसमें बंगाली मुसलमानों को डरने या घबराने की जरुरत नहीं है।
कैसे कहावत बन गया ‘खुद को तुर्रम खान समझते हो क्या’? कौन था तुर्रम खान जिसका नाम संसद में लेना है बैन। रिपोर्ट अशोक झा