देश को चाहिए यूसीसी ना की शरियत एक्ट, बंटवारे का कारण बना था 1937 वाला एक्ट?

अशोक झा

लोकसभा चुनाव के बीच जहां विपक्ष यूसीसी और सीएए को लेकर मुस्लिम विरोधी बता रही है वही भाजपा इसे सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास बताने में लगी है। यूसीसी लागू होने से समाज के सभी समुदायों को एक समान कानून लागू होंगे। मुसलमानों का कहना है कि इससे उनके व्यक्तिगत अधिकारों का हनन होगा जो उन्हें 1937 के शरियत एक्ट के तहत मिले हैं। क्या है शरियत एक्ट इसकी जानकारी विस्तार से जानकारी दी जायेगी। उत्तराखंड आजादी के बाद यूसीसी अपनाने वाला पहला राज्य बन जाएगा। गोवा भारत का एकमात्र राज्य है जहां ‘धर्म, लिंग और जाति की परवाह किए बिना’ समान नागरिक संहिता लागू है। ​हालांकि गोवा में पुर्तगाली शासन के दिनों से ही यूसीसी लागू है। यूसीसी के तहत प्रदेश में सभी नागरिकों के लिए एकसमान विवाह, तलाक, गुजारा भत्ता, जमीन, संपत्ति और उत्तराधिकार के कानून लागू होंगे चाहे वे किसी भी धर्म को मानने वाले हों। मुसलमानों को डर है कि यूसीसी के लागू होने से उनका शरियत से चलने वाला मुस्लिम पर्सनल लॉ खत्म हो जाएगा।क्या है 1937 का शरियत ऐक्ट?: ब्रिटिश हुकूमत ने 1937 में शरियत अधिनियम पारित किया था। मुसलमान नेता 1937 के शरियत ऐक्ट का हवाला देते हुए यूसीसी का विरोध करते हैं। भारत में मुसलमान शरिया नियमों पर आधारित मुस्लिम पर्सनल लॉ का पालन करते हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ मुख्य रूप से 1937 के मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) एप्लिकेशन ऐक्ट से संचालित होता है। यह ऐक्ट मुसलमानों के बीच विवाह, तलाक, विरासत और रखरखाव के मामलों में इस्लामी कानून को लागू करने को मान्यता देता है। शरियत यानी इस्लामी कानून की बात करें तो यह कुरान के प्रावधानों और पैगंबर मोहम्मद की शिक्षाओं से बना है।कैसे अस्तित्व में आया 1937 का शरियत ऐक्ट? शरियत ऐक्ट को समझने से पहले ये जानना जरूरी है कि आखिर यह अस्तित्व में कैसे आया। भारत में जब अंग्रेजी हुकूमत आई तो उन्होंने सभी समुदायों से जुड़े फैसले एक ही रिवाज के तौर पर देने शुरू कर दिए। उन्हें लगा कि भारत में सभी एक ही रिवाज को मानते हैं। इसलिए उन्होंने फैसले स्थानीय रिवाज के हिसाब से देने शुरू कर दिए। अंग्रेजों के शासनकाल में 1873 के मद्रास सिविल कोर्ट एक्ट और 1876 के अवध लॉज एक्ट आया। इसमें लिखा गया कि मजहबी कानून पर स्थानीय परंपरा को तरजीह दी जाएगी।इससे महिलाएं सबसे ज्यादा पीड़ित हुईं क्योंकि स्थानीय प्रथाओं में महिलाओं को कोई अधिकार नहीं दिए गए थे। जायदाद में भी महिलाओं को कोई शेयर नहीं मिलता था। जानकार बताते हैं कि मुसलमानों में औरतों को जायदाद में आधा हिस्सा मिलने का रिवाज है। ये कदम हिन्दू कानून के मुताबिक था लेकिन शरिया के बिल्कुल विपरीत था। इसे ही खत्म कराने के लिए उलेमाओं ने एक अभियान छेड़ा और तब जाकर 1937 में मुस्लिम पर्सनल लॉ एक्ट बना।कोडिफाइड नहीं है शरियत ऐक्ट: भारत के मुसलमान मुस्लिम पर्सनल लॉ को मानते हैं जो 1937 के मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) एप्लिकेशन अधिनियम से संचालित होता है। यह अधिनियम मुसलमानों के बीच विवाह, तलाक, गोद लेने, विरासत और उत्तराधिकार जैसे व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करने में इस्लामी कानून को लागू करने को मान्यता देता है। 1937 के मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) एप्लिकेशन अधिनियम में जो बातें लिखी गई हैं वे सभी 1935 के मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) एप्लीकेशन एक्ट 1935 ली गई हैं जो सबसे पहले मौजूदा पाकिस्तान के सूबा सरहद (खैबर-पख्तूनख्वाह) में लाया गया था। 1937 वाले अधिनियम में कोई कानून कोडिफाइड (संहिताबद्ध) नहीं है। 1937 में मुस्लिम पर्सनल लॉ एक्ट में सिर्फ लिखा है कि दोनों पक्ष मुसलमान हों तो शरियत के हिसाब से फैसला हो। पर्सनल लॉ कोडिफाई नहीं किया गया है। इसमें ये कहीं नहीं लिखा है कि आखिर शरियत का कानून क्या है। ऐक्ट में कुछ मुद्दे लिखे हुए हैं, जैसे कि शादी, तलाक, जायदाद, विरासत से जुड़े मामले हों और दोनों पक्ष मुसलमान हों, तो फैसला शरियत के हिसाब से होगा। मामला थोड़ा पेंचीदा है। इसलिए अदालतें इस्लामी विद्वानों की किताबों से मार्गदर्शन लेती हैं।
देश के बंटवारे का कारण बना था 1937 वाला एक्ट?
1937 अधिनियम पारित होने के बाद, मुस्लिम लीग एक मुस्लिम जन पार्टी के रूप में उभरी और गांधी जी के नेतृत्व वाली ताकतवर कांग्रेस को चुनौती देना शुरू कर दिया था। तब तक इकलौती कांग्रेस थी जिसके पास भारतीय जनता पर पूरी ताकत थी। 1937 के अधिनियम ने कांग्रेस के प्रभाव से बाहर इस्लामी धार्मिक और सांप्रदायिक भावनाओं की शक्तिशाली ताकतों को जन्म दिया। जैसा कि ब्रिटिश हुकूमत और मुस्लिम लीग का इरादा था, इस अधिनियम ने गांधी जी के नेतृत्व वाली कांग्रेस से मुसलमानों को बड़े पैमाने पर अपनी ओर खींच लिया था। बदलाव इतना बड़ा और इतना तेज था कि यह भारत के विभाजन पर जाकर रुका। 1937 अधिनियम अक्टूबर 1937 में पारित किया गया और केवल ढाई साल के भीतर, मार्च 1940 में जिन्ना ने लाहौर विभाजन प्रस्ताव पारित कर दिया।

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