सिलीगुड़ी की सड़कों पर बांग्लादेश में हिंदुओ संग अत्याचार के खिलाफ जनजागरण पदयात्रा
अशोक झा, सिलीगुड़ी: बांग्लादेश में उत्पन्न परिस्थिति में वहां के अल्पसंख्यक हिंदुओं पर जेहादी ताकतों के लगातार हमले, अत्याचार और निर्जातन के विरोध में चौथी सोमवार यानि कल सोमवार 12 अगस्त 2024 को सिलीगुड़ी महानगर में एक जन जागरण पदयात्रा का आयोजन किया गया है। इसका आह्वान हिंदू सुरक्षा मंच महानगर की ओर से किया गया है। पदयात्रा बघायतिन पार्क से दिन के 1 बजे शुरू होकर कोर्ट मोड़, वीनस मोड़, सेवक मोड़, एयरव्यू मोड़ और जंक्शन होते हुए सिलीगुड़ी महकमा शासक के कार्यालय के सामने समाप्त होगा। यहां एसडीओ सिलीगुड़ी के माध्यम से राष्ट्रपति को मांगपत्र सौप बांग्लादेश के हिंदुओ की सुरक्षा की मांग की जाएगी। धार्मिक और सामाजिक संगठनों से जुड़े सीताराम डालमिया ने बताया की
धार्मिक कट्टरता और जातीय उन्माद के बीच लोकतंत्र कभी सजीव नहीं रह सकता। पाकिस्तान और बांग्लादेश इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। 1972 में बांग्लादेश बना। तब भारत की अहम भूमिका थी। मगर हम अपनी सैन्य भूमिका को तो समझ पाए, वैचारिक भूमिका से अनजान बने रहे। 1921 में तुर्की में खलीफा का अंत कर कमाल पाशा का शासन स्थापित हुआ। पश्चिम (यूरोप ) रुका नहीं। उसी से संतुष्ट नहीं हुआ। एक वैचारिक जिम्मेवारी का भी निर्वाह किया। कमाल पाशा ने उस प्रत्यक्ष और परोक्ष नैतिक मदद से तुर्की को धर्मनिरपेक्ष बनाया और व्यापक सामाजिक-धार्मिक सुधार किए। हिंदुओ पर हमला करने वालो को पता नहीं की बांग्लादेश के राष्ट्रीय ध्वज का डिजाइन एक हिंदू शिवनारायण दास ने किया था। आज भी यह मुल्क इस्लामिक कट्टरपंथियों के उभार के प्रति सचेत है। देश के भीतर या बाहर 82,923 मस्जिदों पर राज्य की पैनी नजर रहती है। भारत इस भूमिका से चूक गया। अगर व्यापक सामाजिक-धार्मिक सुधार किए जाते तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता। अखंड बंगाल की सांस्कृतिक भावना को जीवंत करना कठिन कार्य नहीं था। बांग्लादेश का राष्ट्रगान ‘आमार सोनार बंग्ला’ रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा बंग विभाजन (1905) के बाद 1906 में लिखा गया था। उसके राष्ट्रीय ध्वज का डिजाइन एक हिंदू शिवनारायण दास ने किया था। हम सैन्येतर भूमिका क्यों नहीं निभा पाए?हिंसक तांडव के गवाह ही भविष्य की पीढ़ियों के साथ के लिए हैं जिम्मेदार है। इसका कारण भारत के मस्तिष्क में आरोपित नेहरूवाद है। इंदिरा गांधी इस वैचारिक विरासत से ग्रस्त थीं। 1947 में विभाजन के समय हिंसक तांडव के जो लोग गवाह थे, उन्होंने ही तबकी और आने वाली पीढ़ियों के साथ छल किया। इसका उदाहरण 8 अप्रैल, 1950 का नेहरू-लियाकत समझौता है। नेहरू ने अपने बौद्धिक संपन्न और सहयोगियों से इस पर सलाह-मशविरा तक नहीं किया। इस समझौते में दोनों ही देशों को अपने-अपने यहां के अल्पसंख्यकों की हिफाजत की जिम्मेदारी दे दी गई। सुनने में तो अच्छा लगता है, लेकिन परिणाम अत्यंत जहरीला निकला। नेहरू और उनकी हिमायत करने वाले इस परिणाम से कतई अनभिज्ञ नहीं थे। उन्होंने अपने आप को वहां के हिंदुओं के लिए पराया बना लिया। पाकिस्तान के कानून मंत्री और मोहम्मद अली जिन्ना के करीबी जोगेंद्रनाथ मंडल पाकिस्तान में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार से व्यथित थे। अंतत: इस्तीफा देकर भारत वापस आ गए। ऐसा नहीं कि नेहरू को चेताया नहीं गया था। लोकप्रियता और आधिपत्य के सामने अधिकांश की चुप्पी के बीच उनके मंत्रिमंडल के दो सदस्यों, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और केसी नियोगी ने समझौते को हिंदू अल्पसंख्यकों के साथ नाइंसाफी और धोखा बताते हुए त्यागपत्र दे दिया। आधिपत्यवादियों का एक गुण होता है। वे ऐसी आलोचनाओं से न घबराते हैं, न ही उनका दिल दहलता है। वे आलोचनाओं के नैतिक पक्ष को उभरने ही नहीं देते, उसे कुचलने में कुशल होते हैं। यही हुआ मुखर्जी के साथ। इतिहास चुप्पी बनाए रखने वाले ऐसे अवसरवादियों को याद नहीं करता, बल्कि उन्हें सम्मान देता है, जो चुप्पी तोड़ते और सच बोलने की कीमत चुकाते हैं।
विश्व हिंदू परिषद के प्रवक्ता सुशील रामपुरिया और सचिव राकेश अग्रवाल ने बताया की आज बांग्लादेश के तख्तापलट से लाख गुना बड़ी घटना वहां हिंदुओं के साथ ‘पारदर्शिता’ के साथ बर्बरता, अत्याचार और असंवेदनशील व्यवहार है। हिंदू घरों, दुकानों को जलाना, महिलाओं के साथ बलात्कार, तालिबान को भी शर्मिंदा करने वाली हिंसा खुले तौर पर हो रही है। जो लोग नागरिक संशोधन अधिनियम का विरोध कर रहे थे, शाहीनबाग आयोजित कर पंथनिरपेक्षता पर भाषण कर रहे थे, वे जुबान बंद कर शांति से बैठे हैं। ये घटनाएं शेख हसीना के तख्तापलट के कारण अपवाद स्वरूप नहीं हो रही है। दशकों से व्यवस्थित तरीके से हिंदुओं के अस्तित्व को मिटाया जा रहा है। ढाका यूनीवर्सिटी के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अब्दुल बरकत की पुस्तक ‘पोलिटिकल इकोनोमी आफ रिफार्मिक एग्रीकल्चर, लैंड, वाटर बाडीज इन बंग्लादेश’ 2016 में प्रकाशित हुई। उसमें खुलासा किया गया कि 1964 से 2013 तक लगभग एक करोड़ से अधिक हिंदू जनसंख्या मारे जाने, धर्म परिवर्तन या विस्थापित होने के कारण विलुप्त हो गई। उन्होंने हिसाब लगाया कि प्रत्येक दिन औसतन 632 हिंदू विलुप्त होते रहे। 1950-51 में पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बंग्लादेश) में 22 फीसद हिंदू थे। 1974 की जनगणना में यह संख्या घटकर 13.5, 2011 में 9.6 फीसद हो गई। अब 7.59 फीसद है। 1964 में राज्यसभा में समाजवादी सांसद एचवी कामथ ने और 1966 में भारतीय जनसंघ के निरंजन वर्मा ने नेहरू-लियाकत समझौते से ऊपर उठ कर हिंदुओं की सुरक्षा के लिए ठोस पहल की संभावनाओं की ओर सरकार का ध्यान खींचा, पर नेहरूवाद ने भारतीय राज्य के विवेक को चौहद्दी में जकड़ दिया था।
हिंसा का तांडव नया नहीं है। अगस्त 1946 में जिन्ना के आदेश पर ‘प्रत्यक्ष कार्रवाई’ हुई थी। बंगाल में हजारों हिंदू मौत के घाट उतार दिए गए। वही सब जो तब हुआ, वह अब हो रहा है। इस्लामिक कट्टरपंथियों का मन और बुद्धि वहीं ठहर गई है। पर उन्हें दोष देकर बाकी लोगों को अपराध मुक्त नहीं कर सकते हैं। आखिर बाकी इस्लामिक समाज क्यों नहीं अपने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पड़ोसियों के लिए सुरक्षा कवच बनता है?इधर भारत में फिलीस्तीन के प्रति चिंतित समाज बंग्लादेशी हिंदुओं प्रति तटस्थता क्यों दिखा रहा है? इन प्रश्नों को बौद्धिक साहस और पंथनिरपेक्षता के प्रति निष्ठा के साथ व्यापक रूप से उठाने की जरूरत है। पाकिस्तान और बांग्लादेश भले अलग राष्ट्र हैं, पर उनकी आंतरिक समस्याओं को बिलकुल अलग कर नहीं देख सकते। भारत ने पंथनिरपेक्षता का प्रतिमान दिया है। इस वैचारिक प्रतिमान को बंग्लादेश ले जाने की आवश्यकता है। नेहरू-लियाकत समझौते की ऐतिहासिक गलती और इंदिरा गांधी की ऐतिहासिक चूक से आगे कदम बढ़ाना ही समय की मांग है। जिहादी मानसिकता के विरुद्ध लड़ना एक सकारात्मक विचारधारा मानी जाएगी। अन्यथा कल अफसोस के सिवा कुछ नहीं बचेगा।