बीएचयू के वैज्ञानिक फोटोइंजीनियरिंग और जेनेटिक इंजीनियरिंग तकनीकों से कर रहे हैं साइनोबैक्टीरिया (काई) के बेहतर उपभेदों का विकास,

आनुवांशिकी रूप से इंजीनियर सायनोवैक्टीरिया के लिए बीएचयू ने फाइल किया है पेटेंट

बीएचयू के वैज्ञानिक फोटोइंजीनियरिंग और जेनेटिक इंजीनियरिंग तकनीकों से कर रहे हैं साइनोबैक्टीरिया (काई) के बेहतर उपभेदों का विकास
• आनुवांशिकी रूप से इंजीनियर सायनोवैक्टीरिया के लिए बीएचयू ने फाइल किया है पेटेंट
वाराणसी| सायनोबैक्टीरिया (पुराना नाम नीला-हरा शैवाल विशिष्ट रंग के कारण) को आमतौर पर “काई” के नाम से जाना जाता है। ये प्रकाश संश्लेषक जीव प्रोकैरियोटिक ग्राम-नकारात्मक जीवाणु हैं जिन्होंने लगभग 3 अरब साल पहले वातावरण में पहली बार ऑक्सीजन का उत्पादन करके वर्तमान ऑक्सीजनजीवी जीवन को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आदिम पृथ्वी पर इन जीवों द्वारा उत्पादित ऑक्सीजन ने ओजोन परत का निर्माण किया जिसने घातक पराबैंगनी-सी विकिरण से सुरक्षा प्रदान करके वर्तमान जीवन के विकास में मदद की। काई (सायनोबैक्टीरिया) किसी भी जगह जैसे ताजे और समुद्री पानी, मिट्टी, पेड़ों की छाल, कंक्रीट की दीवारों, मूर्तियों/चट्टानों, गर्म झरनों, पौधों और जानवरों के भीतर, ठंडे और समशीतोष्ण स्थानों, या किसी अन्य चरम वातावरण में शानदार ढंग से विकसित हो सकते है। साइनोबैक्टीरिया प्रमुख कार्बन डाइऑक्साइड और डाइनाइट्रोजन फिक्सर हैं और 3 जी और 4 जी जैव ईंधन और मूल्यवान यौगिकों (टॉक्सिन्स, एंटीकैंसरस यौगिक और प्राकृतिक सनस्क्रीन) के स्थायी उत्पादन के लिए संभावित उम्मीदवारों के रूप में उभरे हैं। सायनोबैक्टीरिया ने कार्बन डाइऑक्साइड के कारण होने वाले वैश्विक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिए ग्रीनहाउस गैस को जब्त करने की अपनी शानदार क्षमता भी दिखाई है, और दुनिया भर में इस उद्देश्य के लिए पायलट प्लांट स्थापित किये जा रहे हैं।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान विभाग, विज्ञान संस्थान में काम कर रहे वैज्ञानिक फोटोइंजीनियरिंग और जेनेटिक इंजीनियरिंग तकनीकों का उपयोग करके साइनोबैक्टीरिया को इस तरह से ढाल रहे हैं कि उनमें जैव ईंधन और मूल्यवान यौगिक उत्पादन उद्योग के लिए बेहतर फेनोटाइप हो। डॉ शैलेंद्र प्रताप सिंह के नेतृत्व में समूह ने नीले और हरे रंग की रोशनी में जीव को विकसित करके मॉडल सायनोबैक्टीरियम सिनेकोकोकस एलॉन्गैटस पीसीसी 7942 के लिपिड सामग्री और सेल लंबाई (जो जैव ईंधन उद्योग में उपयोगी हैं) में वृद्धि की है। डॉ. सिंह ने बताया कि साइनोबैक्टीरियम ने दो प्रकाश स्थितियों में धीमी वृद्धि दिखाई, लेकिन बायोमास उत्पादन में कमी की भरपाई लिपिड सामग्री और लम्बी कोशिकाओं की बढ़ी हुई मात्रा से हुई। समूह ने आनुवंशिक रूप से उसी जीव को इंजीनियर कर नवीन उपभेदों का भी विकास किया है जो लगभग दोगुनी मात्रा में लिपिड, उच्च कार्बोहाइड्रेट और कम प्रोटीन का उत्पादन करते हैं और बेहतर अवसादन/संग्रह दक्षता रखते है। आनुवंशिक रूप से इंजीनियर सायनोबैक्टीरिया के लिए काशी हिंदू विश्वविद्यालय की ओर से पेटेंट भी दायर किया गया है, जबकि फोटोइंजीनियरिंग तकनीकों के निष्कर्ष हाल ही में एल्सेवियर जर्नल एनवायरनमेंटल एंड एक्सपेरिमेंटल बॉटनी में प्रकाशित हुए हैं। यह अध्ययन डॉ. सिंह को डीएसटी-एसईआरबी प्रारंभिक कैरियर अनुसंधान पुरस्कार, नई दिल्ली, बीएसआर स्टार्ट-अप अनुदान, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी), नई दिल्ली, एवं इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस इंसेंटिव ग्रांट, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय द्वारा वित्त पोषित किया गया था।
Link: https://www.sciencedirect.com/science/article/abs/pii/S0098847222003276

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