दलितों का सम्मान किया – पुरुषोत्तम श्रीराम ने !!

 

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का अवतार संसार के समस्त जीवों के कल्याण के लिए ही हुआ था । राम-राज्य में जाति या वर्ण के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता था । जो लोग यह सोचते हैं कि श्रीराम केवल ब्राह्मण व अन्य उच्च वर्ग के लोगों का ही हितैषी थे और शूद्रों के प्रति उनका व्यवहार अनुदार था, वे बहुत बड़े भ्रम में हैं ।
श्रीराम राज्य में अधम से अधम श्वान को भी न्याय सुलभ हो, उसकी सत्यनिष्ठा तथा निष्पक्षता को संदेह की दृष्टि से देखना निस्संदेह अधर्म है ।
राम-राज्य में न्याय किसी का मुख देखकर
नहीं किया जाता था,
जो न्याय संगत होता था, केवल वही किया जाता था –

‘आसीत्सत्य सदैवात्र नान्यायस्तन्मुखेक्षणात्’
(आनंद रामायण, १०/४९) ।

श्रीराम ने अपनी अनुकम्पा का आधार जाति को नहीं, भक्त चरित्र को बनाया । श्रीरामचरितमानस में उल्लिखित है –

सहज सनेह बिबस रघुराई

रघुनाथ जी स्वाभाविक भक्ति के अधीन हैं।
उनकी प्राप्ति में न जाति बाधक है न वर्ण ।

‘भक्त्यातुष्यति केवलं

केवल भक्ति से ही संतुष्ट हो जाते हैं भगवान् ।

श्रीराम का सम्पूर्ण जीवन पतितोद्धार, दलितोद्धार तथा अछूतोद्धार में बीता । इस संदर्भ में अहिल्या पर प्रभु की कृपा ध्यातव्य है ! जनश्रुति है कि महर्षि गौतम की धर्मपत्नी अहिल्या पापाचरण के कारण शिला में परिवर्तित हो गई थी और श्रीराम के चरणों के पावन स्पर्श के बाद ही उनका जीवन सार्थक हुआ । अहिल्या के सम्बन्ध में विभिन्न ग्रन्थों में परस्पर विरोधी बातें मिलती हैं, परन्तु उनके आश्रम में श्रीराम के आगमन के कारण उनका शाप मोचन हुआ और उन्हें एक नये दिव्य जीवन की प्राप्ति हुई, इस पर कोई मतभेद नहीं । इस पर भी विद्वान सहमत हैं कि अहिल्या अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या करके पापों से मुक्ति पा चुकी थी । फिर भी किये हुए पापों की गुरुता को ध्यान में रखकर यदि श्रीराम के स्थान पर कोई और लकीर का फकीर होता तो अहिल्या को पत्थरों से मरवा देना ही पसंद करता, उससे सम्भाषण या उसको स्पर्श करने की बात तो दूर की बात होती । श्रीराम का शील लोकोत्तर था । सच्चे हृदय से पश्चाताप करनेवाले के अपराधों को वे क्षमा कर देते थे । श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण के अनुसार श्रीराम तथा लक्ष्मण ने बड़ी प्रसन्नता के साथ तपःपूत अहिल्या के
दोनों चरणों का स्पर्श किया –

राघवौ तु तदा तस्याः पादौ जगृहतुर्मुदा (बाल काण्ड ४९/१७)

उपरोक्त घटना से प्रमाणित होता है कि पापी से पापी व्यक्ति भी, यदि भगवान् की शरण में चला जाता है, तो वे उस पर अनुग्रह करते हैं । उनकी कृपा का आधार जाति, लिंग, रंग, वर्ण – सा सम्प्रदाय विशेष नहीं, प्रत्युत निष्कलुष प्रेम है । उनकी भक्ति में सब का समान अधिकार है ।

केवट प्रसंग

गोस्वामी तुलसीदास जी के श्रीरामचरितमानस तथा अन्य रामायणों में भी केवट का प्रसंग आता है । गंगा के तट पर पहुंचने के बाद जब श्रीराम ने केवट से नाव मांगी, तो उसने उनके आदेश का अनुपालन नहीं किया । वह तो प्रभु के चरणों को पखारने की हठ पर अड़ा रहा रहा केवट की ढिठाई को देखकर लक्ष्मण क्रुद्ध हो उठे । केवट को इसका आभास हो गया, परन्तु वह श्रीराम के स्वभाव को जानता था । उसे दृढ़ विश्वास था कि जाति से शूद्र होने पर भी प्रभु उसकी भक्ति का विचार करके उसका तिरस्कार नहीं करेंगे। इसलिए उसने कहा-

‘बरु तीर मारहुं लखनु पै जब लगनि पाय पखारिहौं ।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारू उतरिहौं ।।

(श्रीरामचरितमानस अयोध्याकाण्ड १००)

केवट की प्रेम से भरी अटपटी वाणी सुनकर श्रीराम ने जानकी और लक्ष्मण की ओर हँसते हुए देखा और उसे शीघ्रतापूर्वक जल लाने की अनुमति दे दी । केवट बड़े उमंग के साथ जल से भरा कठौता लाया और प्रभु के चरण-कमलों को पखारकर उसने अपने जीवन को सफल किया ।

अछूतोद्धार

श्रीराम के लिए कोई अछूत नहीं । वे केवल निश्छल भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं। रामचरित मानस तथा अन्यत्र भी इस बात की बार-बार चर्चा हुई है कि निषादों का अधिपति गुह उनका घनिष्ठ मित्र था । वाल्मीकि रामायण में उसके लिए ‘रामसखा’ शब्द प्रयुक्त हुआ है —

यत्र रामसखा वीरो गुह्ये ज्ञातिगणैवृतः । (अयोध्या ०८३/२०)

विभिन्न रामायणों में निषादराज गुह के शूद्र होने के पर्याप्त वर्णन मिलते हैं। गुह उस निषाद जाति का था, जिसकी छाया के स्पर्श से ही उच्च वर्णों के लोग शुद्ध जल से स्नान कर अपने को पवित्र करते थे । जब लक्ष्मण और सीता के साथ श्रीराम श्रृंग्वेरपुर पहुंचे तो इसकी सूचना निषादराज गुह को मिली। वह अपने
बन्धु-बान्धवों के साथ नाना प्रकार के फल-मूल आदि लेकर उनके स्वागतार्थ गंगा तट पर पहुँचा । यह जानते हुए भी कि गुह अन्त्यज है , श्रीराम ने उसे अपनी बगल में बैठाया –

नाथ कुसल पद पंकज देखे । भयउँ भाग भाजन जन लेंखे ।। देव धरनि धनु धाम तुम्हारा । मैं जनू नीचु सहित परिवारा ।।

(श्रीरामचरितमानस, अयोध्या ८७)

गुह के स्वकथन से भी पता चलता है कि
वह निम्न जाति का था । श्रृंग्वेरपुर में जब प्रथम बार निषादराज गुह ने मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ को आते देखा था, तो उन्हें दूर से ही दण्डवत् प्रणाम किया था –

देखि दूर ते कहि निज नामू । कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू ।।

परन्तु, उसी गुह ने जब श्रीरघुनाथ जी को पदार्पण करते हुए पाया, तो दौड़कर उनसे लिपट गया । इतना ही नहीं उसने भाँति-भाँति के भोज्य-पदार्थ उनकी सेवा में प्रस्तुत भी किये ।
श्रीराम के हृदय की विशालता देखिए कि जब उन्होंने देखा कि उनके दर्शन के लिए निषदराज इतनी दूर से पैदल ही चलकर आया है, तो उन्होंने अपनी आजानु भुजाओं से आलिंगन बद्ध कर लिया ।
यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि भागीरथी के पावन तट पर श्रीराम तथा लक्ष्मण के केशों को जटा का रूप निषादराज गुह ने ही दिलवाया था ।

शबरी के बेर

शबरी कौन थी ? उसने श्रीराम को खाने लिए जूठे बेर क्यों दिये ? श्रीराम ने उसके जूठे बेरों को क्यों ग्रहण किया ? ये प्रश्न स्वाभाविक है कि शबरी अधम जाति की थी और उसके समय में अन्त्यजों द्वारा छूए हुए भोजन को उच्च वर्ण के लोग छूते भी नहीं थे, उस स्थिति में उसके जूठे बेरों को ग्रहण करना तो कल्पनातीत था । लेकिन श्रीराम ने तो उसके जूठे बैर बड़े उमंग से खायें क्योंकि, उन बेरों में सच्चे प्रेम का रस कूटकर भरा हुआ था । शबरी यह सोचकर बार-बार दुखी हो रही थी कि वह अछूत है । वह कैसे फल-मूल आदि के द्वारा आगत प्रभु की अभ्यर्थना करती , श्रीराम ने उसके भय को दूर करते हुए उससे कहा –

मानऊं एक भगति कर नाता।

अर्थात् , जीव और ईश्वर के सम्बन्ध का केवल एक ही आधार है – कपटरहित भक्ति । ऊँची जाति में जन्म लेनेवाला व्यक्ति भी अगर भक्ति से रहित हो, तो वह समाज में उसी तरह शोभायमान नहीं होता जैसे, जल से रहित बादल —

जाति पांति कुल धर्म बड़ाई धन बल परिजन गुन चतुराई । भगतिहीन नर सोहइ कैसा बिनु जल बारिद देखअ जैसा ।।

श्रीरामचरितमानस, अरण्य काण्ड ३४ के पद्मपुराण के अनुसार प्रेम के वशीभूत श्रीराम ने शबरी के जूठे चार बेरों को खाकर उन्हें भक्तों के बीच शीर्ष स्थान प्रदान किया । स्मरण हो की महर्षि मतङ्ग ने भी जातीयता की अनदेखी कर माँ शबरी को अपनी स्नेह से सींचा ।

शम्बूक – वध

राम-राज्य में किसी की अकाल मृत्यु नहीं होती थी । एक बार एक ब्राह्मण के चौदह वर्ष के एकमात्र पुत्र की मृत्यु हो गयी । शोक संतप्त ब्राह्मण ने राजद्वार पर जाकर धरना दे दिया । श्रीराम ने राजगुरु वसिष्ठ सहित मंत्रियों से विचार-विमर्श किया । निष्कर्ष निकला कि ब्राह्मण के पुत्र की अकाल मृत्यु का कारण किसी शूद्र तपस्वी का अधर्माचरण है ।
वह शूद्र तपस्वी था— शम्बूक । तपस्या करके शम्बूक ने स्वधर्म का परित्याग कर तत्कालीन सामाजिक मर्यादा का अतिक्रमण किया था । इसलिए श्रीराम ने शम्बूक का वध किया, जिससे मृत बालक पुनः जीवित हो उठा ।

श्रीराम का स्वभाव एक ओर फूल की तरह कोमल था, तो दूसरी ओर वज्र की तरह कठोर भी । उनके शासन में सभी समान थे । हमें नही भूलना चाहिए कि श्रीराम ने अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय तथा सदाचारी अनुज लक्ष्मण के विशिष्ट नियम का उल्लन्घन करने के कारण राज्य से निर्वासित कर दिया था । शम्बूक तो स्वेच्छाचारी और पापात्मा था । इसलिए उसके वध को लेकर संशय करना युक्ति संगत नही है ।

श्रीराम के शील में कहीं दोष नहीं है । जैसे सुदूर आकाश में उड़नेवाले पक्षी के पगों को नहीं देखा जा सकता, उसी प्रकार संसार को सत्पथ पर ले जानेवाले महामानवों के आचरणों को समझना कठिन होता है । उनकी प्रत्येक चेष्टा में समस्त प्राणियों के प्रति अपार करुणा छिपी रहती है । स्थूल बुद्धि से उन्हें नहीं समझा जा सकता । महर्षि वाल्मीकि ने ठीक ही कहा है कि रघुनाथजी उसी के हृदय में निवास करते हैं, जो जाति-पांति, परिवार, धन आदि में आसक्त नहीं होता ।

श्रीराम को जाति, रंग, वर्ण, सम्प्रदाय, राष्ट्र आदि की संकीर्ण सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता । श्रीराम को केवल निश्छल भक्ति ही प्यारी है । श्रीराम ने तो गीधराज जटायु का समस्त अन्त्येष्टि कर्म निज कर कमलों से सम्पादित किया ।
यहाँ कतिपय उद्धरण की चर्चा हुई है ।
भगवान् श्रीराम का करुणापात्र कौन नहीं हुआ —

पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना॥

श्रीराम को गरीब नेवाजू भी कहा जाता है ।
अभिप्राय यह कि – श्रीराम का जीवन आदर्श मानव ही नहीं अपितु समस्त जीवों के लिए कल्याणकारी है ।
अर्थात् – निर्बल के बल हैं श्रीराम !!

डाॅ. मनोज कुमार ठाकुर
एस.आर.डी.गुरुकुल , काशी
मो. 9369392702

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