सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से बंगाल की मुख्यमंत्री हुई काफी खुश
कोलकाता: राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच ताकत की लड़ाई में कई बार अप्रिय स्थिति पैदा हो
है। पंजाब, तमिलनाडु और केरल में यही हुआ। वहां के राज्यपालों ने विधानसभा में पारित कानूनों को मंजूरी देने के बजाय लंबे समय तक लटका कर रख लिया।
इस पर इन राज्य सरकारों ने सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई कि राज्यपाल उन कानूनों पर कोई निर्णय नहीं ले रहे। तब न्यायालय ने मौखिक रूप से कहा था कि राज्यपाल कोई चुने हुए प्रतिनिधि नहीं होते और विधानसभा द्वारा पारित कानूनों को लंबे समय तक लटकाने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। अब पंजाब सरकार की याचिका पर विस्तृत फैसला देते हुए कहा है कि विधानसभा द्वारा पारित कानून वैध हैं। इस निर्णय को लेकर बंगाल की मुख्यमंत्री काफी खुश है। दरअसल, पंजाब सरकार ने विधानसभा का विशेष सत्र बुला कर चार कानून पारित किए थे, जिन्हें मंजूरी के लिए राज्यपाल के पास भेजा गया था।मगर उन्होंने इस तर्क के साथ उन्हें दबा कर रख लिया था कि सरकार द्वारा बुलाया गया विशेष सत्र असंवैधानिक है। सर्वोच्च न्यायालय ने उस सत्र को उचित ठहराया है। इस तरह उसमें पारित कानून स्वत: संवैधानिक साबित हो गए। अब राज्यपाल के पास उन कानूनों पर कार्रवाई करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा है। विधानसभा द्वारा पारित कानूनों पर मंजूरी देने या न देने संबंधी राज्यपाल के अधिकार सीमित हैं। वे उन कानूनों को विचार के लिए राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं या कानूनी सलाह के लिए कुछ समय तक रोक कर रख सकते हैं। अगर वे उन्हें अस्वीकृत करते हैं और फिर से वही कानून विधानसभा दुबारा पारित कर देती है, तो राज्यपाल के पास उन्हें मंजूर करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचता। मगर न केवल पंजाब, बल्कि तमिलनाडु और केरल के राज्यपालों ने भी कानूनों को दबा कर रखे रहने का तरीका अपनाया। तमिलनाडु के मामले में तो पिछली सुनवाई के वक्त सर्वोच्च न्यायालय ने यहां तक पूछ लिया कि राज्यपाल तीन सालों तक क्या कर रहे थे। हालांकि उसके बाद राज्यपाल ने मंजूरी के लिए लंबित पड़े कानूनों को नामंजूर कर दिया था और सरकार ने उन्हें दुबारा पारित कराने की तैयारी कर ली थी। दरअसल, इन तीनों राज्यों ने पारित कानूनों में एक कानून यह भी पारित किया है कि विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति राज्यपाल न होकर मुख्यमंत्री होंगे। यह कानून राज्यपालों को अधिक नागवार गुजरा था। हालांकि इन तीन राज्यों के अलावा राजस्थान और पश्चिम बंगाल सरकार ने भी इसी प्रकृति का कानून तैयार किया था, जिसे लेकर सरकार और राज्यपाल के बीच तनातनी का माहौल बना रहा। तीन राज्य सरकारों के सर्वोच्च न्यायालय में अपने अधिकारों की गुहार के बाद एक बार फिर से यह तथ्य रेखांकित हुआ है कि राज्यपाल राजनीतिक मंशा से काम करेंगे, तो ऐसी टकराव की स्थितियां पैदा होती रहेंगी। छिपी बात नहीं है कि जिन राज्यों में केंद्र के विपक्षी दलों की सरकारें हैं, वहां राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच ऐसा तनावपूर्ण माहौल अक्सर बनता रहता है। दिल्ली सरकार के मामले में भी अदालत ने कहा था कि उपराज्यपाल को चुनी हुई सरकार के फैसलों में हस्तक्षेप का अधिकार नहीं है। उसके बाद केंद्र सरकार ने अध्यादेश जारी कर और फिर कानून बना कर उपराज्यपाल को चुनी हुई सरकार से ऊपर अधिकार प्रदान कर दिया था। पंजाब सरकार बनाम राज्यपाल के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने एक तरह से सभी राज्यपालों को संदेश दिया है कि वे चुने हुए प्रतिनिधि की तरह नहीं, संवैधानिक पदाधिकारी की तरह व्यवहार करें। @ रिपोर्ट अशोक झा