विश्व पर्यावरण दिवस: बंगाल में माछ-भात संस्कृति पर उत्पन्न हो रहा संकट
आधुनिक जीवनशैली, पृथ्वी पर पेड़-पौधों की कमी, पर्यावरण प्रदूषण का विकराल रूप, मानव द्वारा प्रकृति का बेदर्दी से दोहन इत्यादि कारणों से मानव और प्रकृति के बीच असंतुलन की भयावह खाई उत्पन्न हो रही है। जलवायु परिवर्तन और प्रदूषित वातावरण के बढ़ते खतरे हम अब लगातार अनुभव कर रहे हैं। विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है। पर्यावरण का अर्थ उस प्राकृतिक परिवेश से है, जिसमें हम रहते हैं। हमारे चारों ओर के सभी जीव और निर्जीव तत्व पर्यावरण का हिस्सा है, जैसे हवा, पानी, मिट्टी, पेड़-पौधे और जीव-जंतु। प्रदूषित हो रहे पर्यावरण और नदियों के कारण
अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से घिरे उत्तर बंगाल में माछ-भात संस्कृति पर खतरा उत्पन्न हो गया है। शुद्ध पेयजल की बात तो दूर रही, उत्तर बंगाल के पहाड़ी मैदानों के सीमांत इलाकों के कई गांव साल के सातों महीने बिना किसी कठिनाई के पानी जुटा लेते हैं! कहते है कि बंगाल में सिंचाई और भूमि अधिग्रहण के कारण धान की पैदावार में कमी आई है। जो भी धान उपज रहा है उसे तस्करी के रास्ते नेपाल और बांग्लादेश भेजा जा रहा है। नदी, तालाब और जल संरक्षण के अभाव में इन दिनों उत्तर बंगाल के बाम, काजोरी, बोरोली, मौजोरो, कास नौवला सहित 25 प्रजातियों की मछली विलुप्त हो गई है। मत्स्य विभाग मछली उत्पादन को बढ़ाने पर जोर दे रहा है पर खत्म हो रही मछलियों को कैसे बचाया जाए इस ओर ध्यान नहीं है। पर्यावरण और जल संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाले अनिमेष बसु का कहना है कि बंगाल के माछ-भात संस्कृति को बचाए रखने लिए प्रत्येक गांव में पिछले एक वर्ष से लगातार जागरूकता अभियान प्रारंभ किया गया है। नदी, तालाब व पोखर बचाने की ओर ध्यान नहीं दिए जाने से 20 वर्षो बाद ही लोग दूसरे राज्य के चावल से बने भात और माछ पर आश्रित हो रहे है। बसु का कहना है कि माछ-भात की संस्कृति को बचाने के लिए ही मिथिलांचल की तर्ज पर बड़े लोगों के पास पोखर हुआ करता था। गांव में बहने वाली नदियों की विधिवत पूजा की जाती थी। इसी के माध्यम से सिंचाई और गांव में आग पर काबू पाया जाता था। यह सब नष्ट हो गया है। हम शहरवासियों का कितना ख्याल रखते हैं? सिलीगुड़ी शहर में महानंदा नदी के पानी को पीने योग्य नहीं घोषित किये जाने के बाद अचानक शहर भर में पानी के लिए हाहाकार, पानी की कालाबाजारी, राजनीति, राज्य भर में शोर मच गया। महानंदा अभ्यारण्य पार करने के बाद स्वच्छ महानंदा नदी प्रदूषण की चपेट में है। अवैध क्रशरों से लेकर रेत खनन तक सभी प्रकार की नदियाँ प्रदूषित हो सकती हैं। नदी के दोनों किनारों पर खुले शौचालय, गाय, भैंस, सूअर के कूड़े, मवेशियों के शव, पेट्रोल डीजल ऑटो मोबाइल के साथ कार स्नान, थर्मोकोल-प्लास्टिक सहित शहर भर के कई बाजारों से कचरा आदि सभी महानंदा नदी के तल में हैं। पिछले पांच दशक में ही नदी को ख़त्म कर दिया। महानंदा को छोड़कर उत्तर की कुछ नदियाँ प्रदूषित हैं।
उत्तर बंगाल की नदियों के अस्तित्व पर संकट : कूचविहार से मालदा तक, कई प्राचीन नदियाँ मानव निर्मित प्रदूषण से ग्रस्त हैं। भूटान में डोलोमाइट प्रदूषण के कारण अलीपुरद्वार जिले की एक के बाद एक नदियाँ मर रही हैं। बसरा या कलजानी, जिले की नदियों में से एक, भूटान के औद्योगिक शहर पसाखा के प्रदूषित पानी से प्रदूषित हो गई थी और इसे 17 प्रदूषित नदियों में स्थान दिया गया था। लेकिन क्या पता किसी जादू से प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की दिसंबर 2023 की रिपोर्ट में कालजानी नदी को प्रदूषित सूची से बाहर कर दिया। उदाहरण के लिए, जलपाईगुड़ी में कार्ला नदी को भी छोड़ दिया गया है। तोर्शा कूचबिहार जिले की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक है।आने वाले दिनों में प्रदूषण का स्तर बढ़ेगा क्योंकि भूटान के फुंटशोलिंग शहर के नीचे तोर्शा के किनारे झान की चमचमाती सैटेलाइट टाउनशिप बनाई जा रही है। उत्तर बंगाल की प्रमुख नदी तीस्ता आज भी 17 प्रदूषित नदियों में अपना स्थान रखती है। सिक्किम में हाल ही में अचानक आई बाढ़ की आपदा से नौवहन क्षमता के नुकसान के साथ स्थिति और खराब हो गई। न केवल बड़ी नदियाँ, बल्कि असंख्य मध्यम और छोटी नदियाँ भी प्रदूषण के कारण अत्यधिक प्रदूषित होकर बह रही हैं। उदाहरण के लिए – मैनागुड़ी में जोर्डा और धुपगुड़ी में कुमलाई नदी। कई छोटी नदियाँ नाले में तब्दील हो गई हैं। सिलीगुड़ी शहर में फुलेश्वरी, जोरापानी, पंचानई, महिषमारी अब प्रदूषित नाले हैं। बालासन दार्जिलिंग जिले की दूसरी सबसे बड़ी नदी है। नेपाली में बाला सन का अर्थ है ‘सोने जैसी रेत’। सुनहरी रेत के बीच से साफ धारा में उतरती पहाड़ी नदी का दृश्य सचमुच आंखें खोल देने वाला था। इस समय मीलों दूर तक जहाँ तक नज़र जाती है लोग और लोग। ट्रक, डंपर, अर्थ मूवर के साथ ही ट्रैक्टर नदी का सीना चीरकर रेत और पत्थर उठा रहे हैं। हालाँकि दिनाजपुर या मालदा में किसी भी नदी का नाम प्रदूषित नदियों की आधिकारिक सूची में नहीं है, उत्तर दिनाजपुर में कुलिक और श्रीमती, दक्षिण दिनाजपुर में पुनर्भाबा और अत्रेई और मालदा में महानंदा, फुलहर और बेहुला को भी प्रदूषण से नहीं बचाया गया है। तराई, डुआर्स में कई और प्रदूषित नदियों का नाम स्थानीय स्तर पर नहीं दिया गया है। जिस तरह मैदानी इलाकों में नदियाँ लोगों और पर्यावरण की जरूरतों को पूरा करती हैं, उसी तरह पहाड़ों में नदियाँ भी। वर्तमान में कालिम्पोंग और दार्जिलिंग का 50 प्रतिशत से अधिक हिस्सा अत्यधिक प्रदूषित है। प्रदूषित नदियों की पहचान का एकमात्र मानदंड पानी की गुणवत्ता से निर्धारित होता है। और उत्तरी बंगाल के 50 प्रतिशत हिस्से में सात महीने तक नदी में पानी नहीं रहता! संसाधन विहीन इन असंख्य ख़ाली नदियों के लिए प्रदूषण मानक कैसे निर्धारित होंगे? याद रखना चाहिए कि अगर नदी नहीं रहेगी तो उत्तर बंगाल नहीं बचेगा। नदियों के बिना भूजल को बरकरार नहीं रखा जा सकता। पानी का हाहाकार शहर और गांव भर में दिखना चाहिए।
इसके प्रमुख कारण कुछ इस प्रकार है: कीटनाशक का प्रयोग: उत्तर बंगाल में जो भी नदियां और तालाब बचे हैं वे कीटनाशक दवाओं के प्रयोग से जहरीले हो रहे हैं। अधिक पैदावार के लिए रासायनिक खाद का धड़ल्ले से प्रयोग किया जा रहा है। वही पानी में बह कर पोखर और नदी को जहरीला बना रहे हैं। इसके कारण पोखर और नदियों में पाई जाने वाली छोटी मछलियों को खत्म कर रहा है।
जहर और विस्फोटक का प्रयोग: प्रतिबंद्ध के बावजूद मछली पकड़ने के लिए हिल्स और समतल में जहर और विस्फोटक का प्रयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है। बिजली, पटाखा से विस्फोट कराकर मछलियों को पानी से छान लिया जाता है, लेकिन इससे मछली के अंडे और छोटी मछली पानी में मर जाते हैं।
जाल के स्थान पर मच्छरदानी के कपड़े का प्रयोग: मछली पकड़ने के लिए निर्धारित जाल बनाया गया है। इससे नदी या तालाब से मछली पकड़ने पर वहीं मछली जाल में आती है जिसे पकड़ने पर रोक नहीं है। सुविधा और अधिक पैसे के लिए इन दिनों मच्छरदानी का नेट प्रयोग किया जाता है। इसमें मछली के अंडे तक फंसकर बर्बाद हो जाते हैं।
स्वास्थ्य के लिए खतरनाक : मछली जिसे आंख और हृदय के लिए लाभदायक माना जाता था, अब नये तरीके से उत्पादन में यह जीवन के साथ खिलबाड़ बन गया है। डाक्टर कौशिक भट्टाचार्य तथा डाक्टर तिवारी का कहना है कि कम पानी में मछली पालन के दौरान अक्सर मछलियों का भोजन यूरिया खाद से तैयार होता है। इससे मछली जल्द बढ़ जाती है और चमकदार होती है, लेकिन इसके सेवन से ज्यादातर लोगों को किडनी और लीवर की समस्या सामने आ रही है। चर्मरोग हो रहे हैं। हाईब्रीड के मांगुर मछली जिसे चायनीज मछली कहकर हम लोग रोगियों को खाने से मना करते हैं। इसके सेवन से रोगी घातक बीमारी का शिकार हो सकता है। उत्तर बंगाल उन्नयन मंत्री उदयन गुहा का कहना है कि मुख्यमंत्री के दिशा निर्देश पर प्रत्येक पंचायत में एक एक तालाब बनाया जाएगा। इसके माध्यम से पंचायत के लोगों को मछली उत्पादन करने के तरीकों को बताया जाएगा। रिपोर्ट अशोक झा