बंगाल में राज्यपाल मुख्यमंत्री विवाद का चोली दामन का साथ

काफी लंबे समय से चला आ रहा विवाद, राज्यवासी के साथ अधिकारी होते है परेशान

अशोक झा, सिलीगुड़ी: राज्यपाल मुख्यमंत्री विवाद बंगाल में चोली दामन का साथ है। उदाहरण के तौर पर उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ के पश्चिम बंगाल के राज्यपाल पद से इस्तीफे के बाद ममता बनर्जी और उनकी टीएमसी ने राहत की सांस ली थी। हालांकि, सीवी आनंद बोस का पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनकर आना, मानों सिर मुंडाते ओला पड़ने वाला साबित हुआ।राज्यपाल सीवी आनंद बोस और ममता सरकार में शुरू से जंग लगातार जारी है। राज्यपाल सीवी आनंद बोस और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी फिर एक बार आमने-सामने हैं। दरअसल, आरजीकर मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल में जूनियर डॉक्टर से दुष्कर्म व हत्या के मामले में गिरफ्तार आरोपित सिविक पुलिस वॉलंटियर संजय राय ने घटना के समय कोलकाता पुलिस के आयुक्त रहे विनीत गोयल और कोलकाता पुलिस के खुफिया विभाग के विशेष उपायुक्त पर साजिश करके उसे फंसाने का गंभीर आरोप लगाया है।राज्य सरकार पर भी आरोप लगाया है कि उनका (विनीत गोयल) ने समर्थन किया है। इन आरोपों के बाद राज्यपाल ने इस मामले में मुख्यमंत्री से विस्तृत रिपोर्ट तत्काल तलब किया है। दूसरी तरफ विधानसभाध्यक्ष बिमान बनर्जी दो टूक कहते हैं कि यह राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है। राज्यपाल को अपने अधिकार क्षेत्र को समझना चाहिए। मुख्यमंत्री और राज्यपाल के मध्य छिड़ी यह जंग कोई नई बात नहीं है। ममता बनर्जी के शासनकाल में राज्यपालों केशरी नाथ त्रिपाठी, जगदीप धनखड़ और सीवी आनंद बोस से टकराव राज्य राजनीति के लिए कोई अजूबा घटना भी नहीं है। यह जरूर है कि इतने निम्न स्तर पर इसके पहले नहीं हुआ था। मुख्यमंत्री, राज्यपाल के चरित्र पर उंगली उठाये और राज्यपाल मानहानि के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाये। सुनवाई के दौरान मुख्यमंत्री का वकील कहे कि जो कही हैं वह सही है और उस पर वह अडिग हैं। वैसे पूरे देश में यह पहली घटना थी कि राज्यपाल ने मुख्यमंत्री के खिलाफ मानहानि का मामला दर्ज कराया था। ममता बनर्जी बनाम सीवी आनंद बोस का यह टकराव बताने को काफी है कि उनकी सरकार और राज्यपाल के बीच विवाद कहां तक पहुंच चुका है। वैसे, राज्यपाल हों या फिर केंद्र सरकार, जिस तरह से मुख्यमंत्री रहते हुए कम्युनिस्ट नेता ज्योति बसु विरोध किया करते थे, उसी राह पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी चल रही हैं। राज्य के लिए इसे विडंबना ही कहेंगे कि पिछले 57 वर्षों में जितनी भी पार्टियों की सरकारें बनी, उसमें कांग्रेस को छोड़कर लगभग सभी सत्तासीन दलों का राज्यपालों के साथ 36 का आंकड़ा रहा है। इस पर एक नजर सिलसिलेवार डालते हैं।धर्मवीर बनाम अजय मुखर्जी: राज्य के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो राज्यपाल के साथ सूबे की सरकारों के टकराव की कहानी पहली बार नवंबर ’67 में शुरू हुई थी। तत्कालीन राज्यपाल धर्मवीर ने मुख्यमंत्री अजय मुखर्जी के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार को बर्खास्त कर दिया था। सभी गैर-कांग्रेसी दलों ने धर्मवीर की तीखी आलोचना की थी। वर्ष 1969 में फिर संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी, लेकिन राज्यपाल के साथ विवाद नहीं थमा। हालात यहां तक पहुंच गए कि राज्य सरकार ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से धर्मवीर को पद से हटाने की मांग की जिसे मान लिया गया।
शांतिस्वरूप धवन बनाम ज्योति बसु: शांतिस्वरूप धवन को नए राज्यपाल के रूप में भेजा गया। उसके बाद ऐसा लगा कि अब सरकार और राज्यपाल के बीच टकराव नहीं होगा। परंतु ऐसा नहीं हुआ। वर्ष 1971 में राज्यपाल धवन के साथ एक बार फिर वामपंथियों का विवाद शुरू हो गया। इसी वर्ष विधानसभा चुनाव में वामदलों ने 113 सीटें जीतीं और सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आए। कांग्रेस को 105 सीटें मिली। लेकिन राज्यपाल धवन ने कांग्रेस को सरकार बनाने का न्योता दे दिया। इस पर ज्योति बसु ने राज्यपाल पर तंज कसते हुए कहा था कि धवन के लिए 113 नहीं, 105 बड़ी संख्या है। राज्यपाल धवन का काफी विरोध हुआ था। कांग्रेस का शासनकाल (1972-1977): सिद्धार्थ शंकर राय के नेतृत्व में 1972 से 1977 तक कांग्रेस का शासन था। राज्यपाल एंथनी लैंसलॉट डायस यानी एएल डायस के साथ इस दौरान कभी कोई टकराव देखने या सुनने को नहीं मिला। 1977 में इंदिरा गांधी चुनाव हार गईं। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्र में वामपंथियों की मित्र सरकार थी। उसी वर्ष 1977 में वाममोर्चा ने प्रचंड बहुमत से सरकार बनाई। वाम दलों के अनुरोध पर केंद्र ने बंगाल में राज्यपाल के रूप में त्रिभुवन नारायण सिंह को भेजा। राज्यपाल टीएन सिंह के साथ मुख्यमंत्री ज्योति बसु का कभी कोई टकराव नहीं हुआ।भैरव दत्त पांडे और अनंत प्रसाद शर्मा: समस्या की शुरुआत तब हुई जब 1980 में दिल्ली की गद्दी पर फिर से इंदिरा गांधी सत्तासीन हुईं। इसके बाद इंदिरा गांधी ने बीडी पांडे यानी भैरव दत्त पांडे को राज्यपाल बनाकर भेजा। माकपा के तत्कालीन कद्दावर राज्य सचिव प्रमोद दासगुप्ता ने कहा था कि बीडी का अर्थ भैरवदत्त नहीं, बल्कि ‘बंग दमन’ है। राज्यपाल के साथ तत्कालीन वाम सरकार का टकराव इतना बढ़ गया था कि तमाम वामपंथी बीडी पांडे को बंग दमन पांडे के नाम से पुकारते थे। वर्ष 1984 में बंगाल के राज्यपाल अनंत प्रसाद शर्मा बने। वाम सरकार का एपी शर्मा के साथ भी बहुत विवाद हुआ। टीवी राजेश्वर और गोपालकृष्ण गांधी: दरअसल, वामपंथियों ने राज्यपाल का विरोध करना अपना स्वभाव बना लिया था। कॉमरेड यहां तक कहने लगे थे कि राज्यपाल का पद ही खत्म कर दिया जाना चाहिए। इसलिए जब भी कोई राज्यपाल बनकर आता तो उसके खिलाफ वामपंथी मुखर हो जाते। इसका एक बड़ा उदाहरण टीवी राजेश्वर हैं। देश के पूर्व खुफिया प्रमुख टीवी राजेश्वर 1990 में बंगाल के राज्यपाल बने।वामपंथी नेता कहने लगे कि जासूस को भेजा गया है, ताकि राज्य सरकार की जासूसी कराई जा सके। वाम सरकार का अगला टकराव तत्कालीन राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी के साथ हुआ था। गोपालकृष्ण गांधी, नंदीग्राम की घटना को लेकर वाम सरकार के खिलाफ मुखर हुए थे। मार्च’07 में नंदीग्राम में हुई गोलीबारी को गोपालकृष्ण गांधी ने ‘बोन चिलिंग टेरर’ (हड्डी कंपा देने वाला आतंक) करार दिया था। इस पर राज्य में तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। वाममोर्चा सरकार राज्यपाल के खिलाफ काफी मुखर हो गया था।एमके नारायणन और केशरी नाथ त्रिपाठी: राज्यपाल एमके नारायणन ने वर्ष 2011 में ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई। ऐसा लगा कि अब सब सही होगा पर स्थिति नहीं बदली। राज्यपाल नारायणन से टकराव के बाद 2014 में लोकसभा चुनाव के बाद राज्यपाल बने केशरी नाथ त्रिपाठी ने सूबे में सांप्रदायिक हिंसा को लेकर मुंह खोला तो संवाददाता सम्मेलन बुलाकर ममता बनर्जी ने कहा कि राज्यपाल ने उनका अपमान किया है।27 जुलाई’19 को बिदाई के पहले राज्यपाल केशरी नाथ त्रिपाठी ने कहा कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तुष्टिकरण नीति राज्य के सामाजिक सौहार्द्र को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रही है। मुख्यमंत्री को प्रत्येक नागरिक से बिना किसी भेदभाव के समान तरीके से व्यवहार करना चाहिए।मेरा मानना है कि कानून एवं व्यवस्था की स्थिति में काफी सुधार की जरुरत है। जो चीज मुझे पसंद नहीं थी वह थी निचले स्तर पर पुलिस का हस्तक्षेप। उच्च पुलिस अधिकारी अच्छे हैं। वे ईमानदार हैं, लेकिन कांस्टेबल और उपनिरीक्षक स्वयं का किसी न किसी पार्टी से जुड़ाव इस सीमा तक रखते हैं कि वे चुनाव प्रक्रिया में लोगों का विश्वास बरकरार नहीं रख पाये।जगदीप धनखड़ बनाम ममता बनर्जी: राज्यपाल जगदीप धनखड़ और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के मध्य तनातनी तो प्रायः रोज की बात थी। कोरोनाकाल में स्थिति बद से बदतर तब हुई जब राज्यपाल जगदीप धनखड़ के दिए बयान और उनके द्वारा लिखे दो पत्रों से नाराज ममता बनर्जी ने राज्यपाल धनखड़ पर सत्ता हड़पने की कोशिश करने का आरोप लगा दिया।ममता बनर्जी ने 14 पेजों के पत्र में लिखा-मैं आपसे विनती करती हूं कि संकट की इस घड़ी में सत्ता हड़पने की अपनी कोशिशें तेज करने से आप बाज आ जाइए।आपको अपने ट्वीट में आधिकारिक पत्रों और लोगो का इस्तेमाल करने से भी बचना चाहिए। ममता बनर्जी ने राज्यपाल पर उपदेश देने और संवैधानिक नियमों का खुद पालन किये बगैर उसका प्रवचन देने तथा उल्लंघन करने का भी आरोप लगाया। उन्होंने लिखा, राज्यपाल मेरी नीतियों से सहमत नहीं हो सकते हैं। लेकिन, दुर्भाग्य है कि उनके पास केवल इसका संज्ञान लेने के सिवाय कोई अधिकार नहीं है। जब तक सरकार के पास बहुमत है, आप कुछ नहीं कर सकते हैं। दरअसल, राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने ममता सरकार पर कोरोना संक्रमितों और मौतों के आंकड़े छिपाने का आरोप लगाया था। उन्होंने कहा था कि ममता बनर्जी को आंकड़े छिपाने की बजाय राज्य में स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरूस्त करने का काम करना चाहिए। केंद्र सरकार की रिपोर्ट का हवाला देते हुए राज्यपाल धनखड़ ने पश्चिम बंगाल में खराब स्थिति की बात कही थी।वहीं, ममता बनर्जी ने पत्र में लिखा, एक निर्वाचित मुख्यमंत्री के लिए एक राज्यपाल की ओर से इस तरह के शब्दों, विषयों और लहजे का इस्तेमाल करना भारत के संवैधानिक और राजनीतिक इतिहास में अनोखा है। मेरे और मेरे मंत्रियों और मेरे अधिकारियों के खिलाफ आपके (राज्यपाल) शब्द अपमानजनक, असयंमित और निंदनीय हैं।मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और राज्यपाल जगदीप धनखड़ के बीच का विवाद सर्वविदित था। दोनों कई मुद्दों पर टकराते रहते थे। ममता बनर्जी, राज्यपाल पर सीधे केंद्र के आदेश थोपने का आरोप लगाती रहती थीं तो वहीं, राज्यपाल कहते थे कि वह जो भी कार्य करते हैं वह संविधान के मुताबिक होता है। चाहे बात विधानसभा का सत्र बुलाने की हो या किसी नए विधायक को शपथ दिलाने की, बंगाल में तकरीबन हर मामले पर मुख्यमंत्री राज्यपाल के बीच सियासी विवाद पैदा हो जाता था। चुनाव के बाद राज्य में हुई हिंसा को लेकर भी मुख्यमंत्री और राज्यपाल में टकराव हुआ था। एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में जगदीप धनखड़ ने ममता बनर्जी की काफी आलोचना की थी और कहा था कि राज्य में लोकतांत्रिक हालात सही नहीं हैं। पश्चिम बंगाल ज्वालामुखी पर बैठा है और काफी क्रिटिकल स्टेज में है। यहां कोई डेमोक्रेसी नहीं है। बंगाल की जो हालत है। अगर सांस लेना है, नौकरी करना है, राजनीति करनी, अच्छी जिंदगी बितानी है तो एक ही रास्ता है, सत्ताधारी पार्टी के साथ हो जाओ।
सीवी आनंद बोस बनाम ममता बनर्जी: देश के राजनीतिक इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि राज्यपाल ने मुख्यमंत्री के खिलाफ मानहानि का मामला दर्ज कराया। राज्यपाल सीवी आनंद बोस ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और टीएमसी के कुछ नेताओं के विरुद्ध कलकत्ता हाई कोर्ट में मानहानि का केस दायर किया। ममता बनर्जी ने बयान दिया था कि महिलाओं ने उनसे शिकायत की है कि वे राजभवन की गतिविधियों के कारण वहां जाने से डरती हैं।इससे पहले उन्होंने हावड़ा में एक रैली में भी कहा था कि राज्यपाल आनंद बोस के बारे में अभी तक सब कुछ सामने नहीं आया है, एक और वीडियो और पेन ड्राइव है। उन्होंने यहां तक कहा था कि अगर अब राजभवन बुलाया जाएगा तो मैं नहीं जाऊंगी। अगर राज्यपाल मुझसे बात करना चाहते हैं तो वह मुझे सड़क पर बुला सकते हैं। मैं उनसे वहीं मिलूंगी, उनके पास बैठना भी अब पाप है। मुख्यमंत्री के पब्लिकली दिए गए इस बयान को राज्यपाल ने गंभीरता से लिया और मुख्यमंत्री के खिलाफ मानहानि केस दायर कर दिया।ममता बनर्जी सरकार भी दूसरी तरफ बंगाल में 8 बिलों को रोके जाने पर राज्यपाल के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंची। दायर याचिका में राज्य सरकार ने विधेयकों को बिना कोई कारण बताए रोकने का मुद्दा उठाया। आरोप था कि राज्यपाल सीवी आनंद बोस 8 विधेयकों को मंजूरी नहीं दे रहे हैं। राज्य सरकार ने अपनी याचिका में कहा कि विधानसभा में पारित विधेयकों को बगैर कोई कारण बताए मंजूरी देने से इनकार करना संविधान के आर्टिकल 200 के खिलाफ है। जिन विधेयकों को राजभवन में रोका गया, उनमें से 6 विधेयक एक साल और 10 महीने से और 2 विधेयक आठ महीने से लंबित थे।बहरहाल, राज्यपाल सीवी आनंद बोस की नियुक्ति के वक़्त ही टीएमसी के मुख्य प्रवक्ता कुणाल घोष ने कहा था कि सीवी आनंद बोस को उन्हीं लोगों ने पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनाया है, जिन्होंने पहले जगदीप धनखड़ को बनाया था। काम करने के तरीके में अंतर होने के बावजूद उनकी जड़ें समान हैं।इसलिए, यह सोचना गलत होगा कि बोस और धनखड़ के टारगेट अलग-अलग होंगे। जब तक राज्यपाल कानूनी प्रावधानों के अनुसार काम करते हैं और शिष्टाचार का माहौल बनाए रखते हैं। तब तक हमारी ओर से भी शिष्टाचार रहेगा। लेकिन अगर राज्यपाल राज्य सरकार के खिलाफ अपनी सीमा से बाहर जाकर काम करते हैं, तो हमारी प्रतिक्रिया बदल जाएगी।

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