कर्नाटक में शुरू हुई 33 वर्षों बाद राम भक्तों पर कारवाई
नई दिल्ली: जैसे-जैसे अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन की तारीख नजदीक आ रही है, कर्नाटक पुलिस विभाग ने राम मंदिर कार्यकर्ताओं के खिलाफ जांच के लिए मामले खोल दिए हैं, जो तीस साल पहले राम मंदिर के लिए आंदोलन के चरम के दौरान कथित तौर पर संपत्ति विनाश और अन्य अपराधों में शामिल थे। बीच कर्नाटक में मंदिर आंदोलन से जुड़े लोगों की गिरफ्तारियां भी शुरू हो गई है। कर्नाटक पुलिस ने 31 साल बाद मंदिर आंदोलन के दौरान हुई हिंसा की फाइल खोल दी है। कांग्रेस ने जिस बजरंग दल को कर्नाटक में बैन करने का वादा किया है, उस संगठन पर आज से 31 साल पहले भी कांग्रेस बैन लगा चुकी है। ये बात 1992 की है। देश में राम मंदिर आंदोलन चल रहा था। 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में उन्मादी भीड़ ने बाबरी मस्जिद ढहा दिया था। इसके बाद कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार एक्शन में आई और एक साथ 5 संगठनों को प्रतिबंधित कर दिया। ये संगठन थे- राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ , विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, इस्लामिक सेवक संघ, और जमात-ए-इस्लामी हिंद। नरसिम्हा राव सरकार ने 9 दिसंबर 1992 की रात को एक गजट जारीकर 1967 के तहत इन पांच संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया था। हालांकि तब साम्प्रदायिक उन्माद की स्थिति को देखते हुए केंद्र सरकार ने इस संगठनों के किसी बड़े नेता की गिरफ्तारी नहीं की थी। नरसिम्हा राव सरकार की गृह मंत्रालय ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल पर आरोप लगाया था कि इन संगठनों का बाबरी मस्जिद विध्वंस में सक्रिय रोल था, और ये संगठन देश में साम्प्रदायिक उन्माद फैला रहे थे। इसलिए इनकी गतिविधियों को नियंत्रित करना जरूरी था. गुरु गोविंद सिंह और गुरु तेग बहादुर भी अयोध्या जा चुके हैं और उन्होंने भी वहां मंदिर में दर्शन किए थे. इसके बाद बात शुरू होती है 1526 में बाबर हिंदुस्तान आया था और 1528 में उसके आदेश पर उसके असिस्टेंट मीर ने अयोध्या में मस्जिद को ध्वस्त करके मस्जिद बनवाई थी। 1556 में हिंदू और मुसलमानों के बीच वहां पर मंदिर और मस्जिद को लेकर विवाद हुआ था। फिर 1858 में पहली बार सिखों का जत्था था। जिसे ‘निहंग सिख’ कहते हैं, उनके प्रमुख बाबा फकीर सिंह खालसा ने नवंबर के महीने में अपने 25 साथियों के साथ बाबरी मस्जिद में प्रवेश करके वहां कब्जा कर लिया था। 14 दिन तक उन्होंने कब्जा कर रखा था और इस दौरान बाबा फकीर सिंह खालसा ने मस्जिद में प्रवेश करते ही गुरु गोविंद सिंह के नारे तो लगाए ही थे साथ में राम के भी जयकारे लगाए थे और पूरी दीवारों पर उन्होंने राम नाम लिख दिया था।कांग्रेस ने जिस बजरंग दल को कर्नाटक में बैन करने का वादा किया है, उस संगठन पर आज से 31 साल पहले भी कांग्रेस बैन लगा चुकी है। ये बात 1992 की है. देश में राम मंदिर आंदोलन चल रहा था। 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में उन्मादी भीड़ ने बाबरी मस्जिद ढहा दिया था। इसके बाद कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार एक्शन में आई और एक साथ 5 संगठनों को प्रतिबंधित कर दिया। ये संगठन थे- राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS), विश्व हिन्दू परिषद (VHP), बजरंग दल, इस्लामिक सेवक संघ, और जमात-ए-इस्लामी हिंद। नरसिम्हा राव सरकार ने 9 दिसंबर 1992 की रात को एक गजट जारीकर 1967 के तहत इन पांच संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया था। हालांकि तब साम्प्रदायिक उन्माद की स्थिति को देखते हुए केंद्र सरकार ने इस संगठनों के किसी बड़े नेता की गिरफ्तारी नहीं की थी। नरसिम्हा राव सरकार की गृह मंत्रालय ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल पर आरोप लगाया था कि इन संगठनों का बाबरी मस्जिद विध्वंस में सक्रिय रोल था, और ये संगठन देश में साम्प्रदायिक उन्माद फैला रहे थे। इसलिए इनकी गतिविधियों को नियंत्रित करना जरूरी था। विपक्ष सत्ता पक्ष पर धार्मिक कार्यक्रम का राजनीतिकरण करने का आरोप लगा रहा है तो सत्ता पक्ष की ओर से भी पलटवार किया जा रहा है. अब केंद्रीय मंत्री और बीजेपी नेता साध्वी निरंजन ज्योति ने विपक्षी नेताओं पर तीखा हमला बोला है.
साध्वी निरंजन ज्योति ने सोमवार को कहा, “राजनीतिक सोच वाले लोगों को राम मंदिर का निर्माण हजम नहीं हो रहा है. उन्हें हजम नहीं हो रहा कि ये राम मंदिर कैसे बन रहा है? जो भगवान राम को नकारते रहें, राम सेतु को नकारते रहें और हमें बोलते रहें कि मंदिर वहीं बनाएंगे लेकिन तारीख नहीं बताएंगे और अब तो तारीख भी बता दी गई है. ऐसे लोगों को भगवान सद्बुद्धि दें.”
राम मंदिर के उद्घाटन को लेकर राजनीति
इससे पहले बीजेपी के वरिष्ठ नेता और यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य में भी इस मामले को लेकर विपक्ष पर जोरदार हमला बोला था. उन्होंने कहा था, “श्रीराम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर के लिए इंडी गठबंधन के दल और नेता नफरत फैलाना बंद करें.” बता दें कि, हाल ही में विपक्षी गठबंधन इंडिया के कई नेता ये एलान कर चुके हैं कि वे राम मंदिर के उद्घाटन समारोह का हिस्सा नहीं बनेंगे। इन नेताओं ने किया समारोह में जाने से इनकार
शिवसेना (यूबीटी) सांसद संजय राउत ने कहा था, “ये कोई राष्ट्रीय कार्यक्रम नहीं है. ये बीजेपी की रैली है. उसमें पवित्रता कहां है? बीजेपी का कार्यक्रम खत्म होने के बाद हम अयोध्या जाएंगे.” वहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भी 22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन में शामिल नहीं होने की चर्चा है. मंगलवार को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी पोलित ब्यूरो ने भी एक बयान जारी कर घोषणा की थी कि पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी उद्घाटन कार्यक्रम में शामिल नहीं होंगे। राम के विरोधी को पता है क्या गुरु गोविंद सिंह और गुरु तेग बहादुर भी अयोध्या जा चुके हैं और उन्होंने भी वहां मंदिर में दर्शन किए थे. इसके बाद बात शुरू होती है 1526 में बाबर हिंदुस्तान आया था और 1528 में उसके आदेश पर उसके असिस्टेंट मीर ने अयोध्या में मस्जिद को ध्वस्त करके मस्जिद बनवाई थी। 1556 में हिंदू और मुसलमानों के बीच वहां पर मंदिर और मस्जिद को लेकर विवाद हुआ था। फिर 1858 में पहली बार सिखों का जत्था था। जिसे ‘निहंग सिख’ कहते हैं, उनके प्रमुख बाबा फकीर सिंह खालसा ने नवंबर के महीने में अपने 25 साथियों के साथ बाबरी मस्जिद में प्रवेश करके वहां कब्जा कर लिया था। 14 दिन तक उन्होंने कब्जा कर रखा था और इस दौरान बाबा फकीर सिंह खालसा ने मस्जिद में प्रवेश करते ही गुरु गोविंद सिंह के नारे तो लगाए ही थे साथ में राम के भी जयकारे लगाए थे और पूरी दीवारों पर उन्होंने राम नाम लिख दिया था। श्रीराम, श्रीकृष्ण और भगवान शंकर इस राष्ट्र के आराध्य देव हैं। इन्हें प्रांत-भाषा-संप्रदाय, राजनीतिक प्रतिबद्धता तथा दलों के दायरे से ऊपर उठकर देखा जाता है।
बर्बर इस्लामिक आक्रांताओं ने भारत-भारतीयता के आराध्य देव भगवान श्रीराम के जन्मस्थान पर स्थित मंदिर तोड़कर मस्जिद का निर्माण किया था। इस जगह को मुक्त कराने के लिए हिंदू सदियों से संघर्ष कर रहे थे। ऐसे में इस संघर्ष को राजनीतिक चश्मे से देखना ठीक नहीं होगा। अयोध्या में श्रीराम मंदिर की चर्चा जब भी होती है तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद और भाजपा का नाम लेकर यह आरोप लगाया जाता है कि अपने राजनीतिक लाभ के लिए इन्होंने यह मुद्दा उठाया। तथ्यों पर ध्यान दें तो यह सही साबित नहीं होता। वर्ष 1985 में सर्वोच्च न्यायालय का एक फैसला आया, जिसमें कहा गया कि तलाकशुदा शाहबानो को गुजारा भत्ता दिया जाए। इस फैसले का मुस्लिम संगठन विरोध करने लगे। मुस्लिम वोट के लालच में कांग्रेस ने संसद में कानून बनाकर न्यायालय के फैसले को पलट दिया। कांग्रेस पर तुष्टीकरण के आरोप लगे। इसी बीच अयोध्या में जन्मभूमि पर 37 वर्ष पूर्व लगे ताले को खोलने का आदेश कोर्ट ने दे दिया। हिंदू वोट के लालच में कांग्रेस और राजीव गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन केंद्र सरकार को इसका श्रेय दिया जाने लगा।
उत्तर प्रदेश विधानसभा की तब कुल 425 सीटों में कांग्रेस ने 1980 में 309 तथा 1985 में 269 सीटें जीत कर अपनी सरकार बनाई थी, पर ताला खुलने के बाद 1989 के चुनाव में वह मात्र 94 सीटें ही जीत पाई। बोफोर्स घोटाले के आरोप के कारण कांग्रेस की हार हुई, पर उसे लगा कि मुस्लिम नाराज हो गए, अतः उसकी हार हो गई। पराजय की इसी खीझ ने उसे मंदिर विरोध के रास्ते पर भी धकेल दिया।
छह दिसंबर, 1992 को कारसेवकों ने विवादित ढांचे को ध्वस्त कर दिया। ढांचा गिरने के कारण उस समय उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। इसके साथ ही राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा हिमाचल प्रदेश की भाजपा सरकारों को भी बर्खास्त कर दिया गया। अयोध्या अगर राजनीतिक मुद्दा होता तो उपरोक्त राज्यों में 1993 में हुए विधानसभा के चुनावों में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिलना चाहिए था। उत्तर प्रदेश में ढांचा गिरने के पहले 1991 में विधानसभा में भाजपा को 221 सीटें मिली थीं, पर 1993 में ये घटकर 177 रह गईं। मध्य प्रदेश में भी 1990 में भाजपा को तब विधानसभा की कुल 320 सीटों में से 220 सीटों पर सफलता मिली थी। 1993 में सीटें घटकर 117 हो गईं। हिमाचल में उलटफेर की राजनीति चलती है, पर वहां भी उलटफेर आश्चर्यजनक था। 1990 में 68 सीटों वाली हिमाचल विधानसभा में 46 सीटें जीत कर भाजपा ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी, पर ढांचा गिरने के बाद 1993 के चुनाव में उसे मात्र आठ सीटें मिलीं। केवल राजस्थान में उसकी सीटों की संख्या 85 से बढ़कर 95 तो हुई, पर 199 सीटों वाली विधानसभा में उसे पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया। इस पराजय के बाद तो भाजपा को इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल देना चाहिए था, पर यह राष्ट्रीय ‘स्व’ का विषय था, अतः उसने इसे नहीं छोड़ा।।राष्ट्र विरोधी ताकतें किस-किस प्रकार का दुष्प्रचार करती हैं, यह 1992 के बाद देखने को मिला। श्रीराम जन्मभूमि पर प्रस्तावित मंदिर का शिलान्यास अनुसूचित जाति से आने वाले कामेश्वर चौपाल ने किया, फिर भी राष्ट्रीय स्वाभिमान विरोधी ताकतों ने विवादित ढांचा गिरने पर यह दुष्प्रचार शुरू किया कि ‘ये आरएसएस वाले हैं। इनकी शाखा में संस्कृत में आदेश दिया जाता है। अनुसूचित जाति को पहले भी मंदिरों में प्रवेश नहीं दिया जाता था और आगे भी नहीं दिया जाएगा। ये देश पर संस्कृत थोप देंगे। संस्कृत में ही वेद लिखे गए हैं। वेदों को पढ़ने की बात तो छोड़ो, वेद सुनने पर भी शूद्रों के कान में गर्म शीशा घोल कर डाला जाता था।’ इसके अतिरिक्त हिंदुओं को हीन साबित करने के लिए यह भी कहा गया कि ‘तुर्क आए-हिंदू हार गया, मुगल आए-हिंदू हार गया, अंग्रेज आए-हिंदू हार गया।’ इस दुष्प्रचार के बावजूद श्रीराम जन्मभूमि का आंदोलन जारी रहा। छह दिसंबर, 1992 को एक युग का अंत हुआ और दूसरे युग की शुरुआत हुई। अगर अयोध्या राजनीति की बात होती है तो भाजपा को केंद्र और उत्तर प्रदेश में लंबे समय तक सत्ता से बाहर नहीं होना पड़ता। यह ध्यान रहे कि भाजपा को केंद्र में 2014 में तथा उत्तर प्रदेश में 1991 के बाद 2017 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का मौका मिला। उस समय तक तो न सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया था, न ही वहां भव्य मंदिर बन रहा था। इसके बावजूद भाजपा ने अयोध्या मुद्दा छोड़ा नहीं, क्योंकि वह उसे राजनीतिक नहीं, राष्ट्रीय ‘स्वाभिमान’ का मुद्दा मानती रही। लिहाजा अयोध्या को राजनीतिक चश्मे से न देखें, बल्कि दलों के दलदल से ऊपर उठकर श्रीराम जन्म स्थान मंदिर का स्वागत करें। रिपोर्ट अशोक झा