जै सियाराम: श्री रामजनमोत्सव पर विशेष
जै सियाराम: श्री रामजनमोत्सव पर विशेष
संजय तिवारी
रामनवमी की सभी को बधाई।
श्री अयोध्या धाम को प्रणाम।
श्री सरयू जी की सादर नमन।
बालरूप दशरथ नंदन को सादर दंडवत। तीनों माताओं को सादर सादर चरणस्पर्श। जगज्जननी मां भवानी के श्री चरणों मे समर्पण।आदिदेव भगवान शिव को सादर नमन। ऋषि याज्ञवल्क्य जी, ऋषि भारद्वाज जी और गोस्वामी तुलसी दास जी को पावन प्रणाम।
श्री राम कथा गंगा में श्री नारायण के नर रूप अवतरण के प्रवाह को कोटि कोटि प्रणाम। किसी भी कार्य की सफलता के लिए उस पर चिंतन, मंथन और रणनीति के साथ सुगठित योजना का होना आवश्यक है। रामकथा की यह बहुत बड़ी शिक्षा है। सर्वशक्तिमान परमात्मा को भी अपने कार्य निष्पादन के लिए उचित कारण , उसके निवारण और संपादन के लिए ठोस रणनीति और योजना तैयार करनी पड़ती है। मानव जीवन संहिता के रूप में श्री रामचरित मानस की इस कथा गंगा का प्रवाह योजनाओं से भरा पड़ा है। इन योजनाओं के निर्माण से लेकर क्रियान्वयन तक का विवेचन करने से जीवन को सही दिशा मिलती है। माता पार्वती की जिज्ञासा को समाधान तक पहुचाने के लिए भगवान शिव विधाता की इस योजना को ही रेखांकित कर रहे हैं। मां जानना चाहती हैं कि निर्गुण निराकार ब्रह्म को सगुण साकार मनुष्य स्वरूप में आने के कारण क्या है। शिव पांच कारण बता कर कथा को विस्तार दे रहे हैं । साथ मे यह भी कह चुके हैं कि कोई जरूरी नही कि केवल यही कारण हों। इनके अलावा भी कारण हो सकते हैं। जय विजय को शाप , नारद मोह, मनु शतरूपा की तपस्या, जालंधर वध और वृंदा को वरदान तथा चक्रवर्ती सम्राट सत्यकेतु के पुत्र प्रतापभानु की कथाएँ वह पार्वती को सुना चुके हैं। इन सभी कथाओं में पर्याप्त कारण और योजनाएं हैं। इन कारणों में प्रमुख है कि धरती पर अत्याचार करने वाले प्रत्येक कारक को समाप्त करने के लिए उसके पूर्व जन्म की स्थिति के अनुसार ईश्वर को भी श्रम करना पड़ा है। प्रताप भानु और उसके परिजन जब धरती पर रावण और उसके कुटुंब के रूप में आ कर अत्याचारों की श्रृंखला शुरू कर चुके हैं तो धरती कांप उठती है। देवता अत्यंत दैन्य अवस्था मे आ चुके हैं। लोक में हाहाकार है। सामान्य जीवन दुरूह हो चुका है। आत्याचार इतना बढ़ गया है कि किसी को कोई समाधान नही सूझ रहा। ऐसे में भगवान की शरण समाधान का मार्ग बचा है। पृथ्वी समेत सभी देवता भगवान की शरण मे जाकर अत्याचार से मुक्ति की प्रार्थना करते हैं । उस समय भगवान सभी को आश्वस्त करते हैं कि मैं स्वयं मनुष्य रूप में आ रहा हूं। गोस्वामी जी इस कथा को इस प्रकार से वर्णित कर रहे हैं –
बाढ़े खल बहु चोर जुआरा।
जे लंपट परधन परदारा॥
मानहिं मातु पिता नहिं देवा।
साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥
पराए धन और पराई स्त्री पर मन चलाने वाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ़ गए। लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे और साधुओं (की सेवा करना तो दूर रहा, उल्टे उन) से सेवा करवाते थे।
जिन्ह के यह आचरन भवानी।
ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी।
परम सभीत धरा अकुलानी॥
श्री शिवजी कहते हैं कि- हे भवानी! जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना। इस प्रकार धर्म के प्रति (लोगों की) अतिशय ग्लानि (अरुचि, अनास्था) देखकर पृथ्वी अत्यन्त भयभीत एवं व्याकुल हो गई।
गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही।
जस मोहि गरुअ एक परद्रोही।
सकल धर्म देखइ बिपरीता।
कहि न सकइ रावन भय भीता॥
वह सोचने लगी कि पर्वतों, नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं जान पड़ता, जितना भारी मुझे एक परद्रोही (दूसरों का अनिष्ट करने वाला) लगता है। पृथ्वी सारे धर्मों को विपरीत देख रही है, पर रावण से भयभीत हुई वह कुछ बोल नहीं सकती।
धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी।
गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥
निज संताप सुनाएसि रोई।
काहू तें कछु काज न होई॥
अंत में हृदय में सोच-विचारकर, गो का रूप धारण कर धरती वहाँ गई, जहाँ सब देवता और मुनि (छिपे) थे। पृथ्वी ने रोककर उनको अपना दुःख सुनाया, पर किसी से कुछ काम न बना।
सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा
गे बिरंचि के लोका।
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी
परम बिकल भय सोका॥
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना
मोर कछू न बसाई।
जा करि तैं दासी सो अबिनासी
हमरेउ तोर सहाई॥
तब देवता, मुनि और गंधर्व सब मिलकर ब्रह्माजी के लोक (सत्यलोक) को गए। भय और शोक से अत्यन्त व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी गो का शरीर धारण किए हुए उनके साथ थी। ब्रह्माजी सब जान गए। उन्होंने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलने का। तब उन्होंने पृथ्वी से कहा कि- जिसकी तू दासी है, वही अविनाशी हमारा और तुम्हारा दोनों का सहायक है।
धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरि पद सुमिरु।
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥
ब्रह्माजी ने कहा- हे धरती! मन में धीरज धारण करके श्री हरि के चरणों का स्मरण करो। प्रभु अपने दासों की पीड़ा को जानते हैं, वे तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेंगे।
बैठे सुर सब करहिं बिचारा।
कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥
पुर बैकुंठ जान कह कोई।
कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥
सब देवता बैठकर विचार करने लगे कि प्रभु को कहाँ पावें ताकि उनके सामने पुकार (फरियाद) करें। कोई बैकुंठपुरी जाने को कहता था और कोई कहता था कि वही प्रभु क्षीरसमुद्र में निवास करते हैं।
जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती।
प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥
तेहिं समाज गिरिजा मैं रहेऊँ।
अवसर पाइ बचन एक कहेउँ॥
जिसके हृदय में जैसी भक्ति और प्रीति होती है, प्रभु वहाँ (उसके लिए) सदा उसी रीति से प्रकट होते हैं। हे पार्वती! उस समाज में मैं भी था। अवसर पाकर मैंने एक बात कही-
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं।
कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥
मैं तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं, देश, काल, दिशा, विदिशा में बताओ, ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ प्रभु न हों।
अग जगमय सब रहित बिरागी।
प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥
मोर बचन सब के मन माना।
साधु-साधु करि ब्रह्म बखाना॥
वे चराचरमय (चराचर में व्याप्त) होते हुए ही सबसे रहित हैं और विरक्त हैं (उनकी कहीं आसक्ति नहीं है), वे प्रेम से प्रकट होते हैं, जैसे अग्नि। (अग्नि अव्यक्त रूप से सर्वत्र व्याप्त है, परन्तु जहाँ उसके लिए अरणिमन्थनादि साधन किए जाते हैं, वहाँ वह प्रकट होती है। इसी प्रकार सर्वत्र व्याप्त भगवान भी प्रेम से प्रकट होते हैं।) मेरी बात सबको प्रिय लगी। ब्रह्माजी ने ‘साधु-साधु’ कहकर बड़ाई की।
सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।
अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥
मेरी बात सुनकर ब्रह्माजी के मन में बड़ा हर्ष हुआ, उनका तन पुलकित हो गया और नेत्रों से (प्रेम के) आँसू बहने लगे। तब वे धीरबुद्धि ब्रह्माजी सावधान होकर हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे।
जय जय सुरनायक जन सुखदायक
प्रनतपाल भगवंता।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी
सिंधुसुता प्रिय कंता॥
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी
मरम न जानइ कोई।
जो सहज कृपाला दीनदयाला
करउ अनुग्रह सोई॥
हे देवताओं के स्वामी, सेवकों को सुख देने वाले, शरणागत की रक्षा करने वाले भगवान! आपकी जय हो! जय हो!! हे गो-ब्राह्मणों का हित करने वाले, असुरों का विनाश करने वाले, समुद्र की कन्या (श्री लक्ष्मीजी) के प्रिय स्वामी! आपकी जय हो! हे देवता और पृथ्वी का पालन करने वाले! आपकी लीला अद्भुत है, उसका भेद कोई नहीं जानता। ऐसे जो स्वभाव से ही कृपालु और दीनदयालु हैं, वे ही हम पर कृपा करें।
जय जय अबिनासी सब घट बासी
ब्यापक परमानंदा।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं
मायारहित मुकुंदा॥
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी
बिगत मोह मुनिबृंदा।
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं
जयति सच्चिदानंदा॥
हे अविनाशी, सबके हृदय में निवास करने वाले (अन्तर्यामी), सर्वव्यापक, परम आनंदस्वरूप, अज्ञेय, इन्द्रियों से परे, पवित्र चरित्र, माया से रहित मुकुंद (मोक्षदाता)! आपकी जय हो! जय हो!! (इस लोक और परलोक के सब भोगों से) विरक्त तथा मोह से सर्वथा छूटे हुए (ज्ञानी) मुनिवृन्द भी अत्यन्त अनुरागी (प्रेमी) बनकर जिनका रात-दिन ध्यान करते हैं और जिनके गुणों के समूह का गान करते हैं, उन सच्चिदानंद की जय हो।
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई
संग सहाय न दूजा।
सो करउ अघारी चिंत हमारी
जानिअ भगति न पूजा॥
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन
गंजन बिपति बरूथा।
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी
सरन सकल सुरजूथा॥
जिन्होंने बिना किसी दूसरे संगी अथवा सहायक के अकेले ही (या स्वयं अपने को त्रिगुणरूप- ब्रह्मा, विष्णु, शिवरूप- बनाकर अथवा बिना किसी उपादान-कारण के अर्थात् स्वयं ही सृष्टि का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण बनकर) तीन प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की, वे पापों का नाश करने वाले भगवान हमारी सुधि लें। हम न भक्ति जानते हैं, न पूजा, जो संसार के (जन्म-मृत्यु के) भय का नाश करने वाले, मुनियों के मन को आनंद देने वाले और विपत्तियों के समूह को नष्ट करने वाले हैं। हम सब देवताओं के समूह, मन, वचन और कर्म से चतुराई करने की बान छोड़कर उन (भगवान) की शरण (आए) हैं।
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा
जा कहुँ कोउ नहिं जाना।
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे
द्रवउ सो श्रीभगवाना॥
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर
गुनमंदिर सुखपुंजा।
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर
नमत नाथ पद कंजा॥
सरस्वती, वेद, शेषजी और सम्पूर्ण ऋषि कोई भी जिनको नहीं जानते, जिन्हें दीन प्रिय हैं, ऐसा वेद पुकारकर कहते हैं, वे ही श्री भगवान हम पर दया करें। हे संसार रूपी समुद्र के (मथने के) लिए मंदराचल रूप, सब प्रकार से सुंदर, गुणों के धाम और सुखों की राशि नाथ! आपके चरण कमलों में मुनि, सिद्ध और सारे देवता भय से अत्यन्त व्याकुल होकर नमस्कार करते हैं।
जानि सभय सुर भूमि सुनि बचन समेत सनेह।
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥
देवताओं और पृथ्वी को भयभीत जानकर और उनके स्नेहयुक्त वचन सुनकर शोक और संदेह को हरने वाली गंभीर आकाशवाणी हुई।
जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा।
तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा।
लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥
हे मुनि, सिद्ध और देवताओं के स्वामियों! डरो मत। तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का रूप धारण करूँगा और उदार (पवित्र) सूर्यवंश में अंशों सहित मनुष्य का अवतार लूँगा।
कस्यप अदिति महातप कीन्हा।
तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
ते दसरथ कौसल्या रूपा।
कोसलपुरीं प्रगट नर भूपा॥
कश्यप और अदिति ने बड़ा भारी तप किया था। मैं पहले ही उनको वर दे चुका हूँ। वे ही दशरथ और कौसल्या के रूप में मनुष्यों के राजा होकर श्री अयोध्यापुरी में प्रकट हुए हैं।
तिन्ह कें गृह अवतरिहउँ जाई।
रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥
नारद बचन सत्य सब करिहउँ।
परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥
उन्हीं के घर जाकर मैं रघुकुल में श्रेष्ठ चार भाइयों के रूप में अवतार लूँगा। नारद के सब वचन मैं सत्य करूँगा और अपनी पराशक्ति के सहित अवतार लूँगा।
हरिहउँ सकल भूमि गरुआई।
निर्भय होहु देव समुदाई॥
गगन ब्रह्मबानी सुनि काना।
तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना॥
मैं पृथ्वी का सब भार हर लूँगा। हे देववृंद! तुम निर्भय हो जाओ। आकाश में ब्रह्म (भगवान) की वाणी को कान से सुनकर देवता तुरंत लौट गए। उनका हृदय शीतल हो गया।
तब ब्रह्माँ धरनिहि समुझावा।
अभय भई भरोस जियँ आवा॥
तब ब्रह्माजी ने पृथ्वी को समझाया। वह भी निर्भय हुई और उसके जी में भरोसा (ढाढस) आ गया।
निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।
बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ॥
देवताओं को यही सिखाकर कि वानरों का शरीर धर-धरकर तुम लोग पृथ्वी पर जाकर भगवान के चरणों की सेवा करो, ब्रह्माजी अपने लोक को चले गए।
गए देव सब निज निज धामा।
भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा॥
जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा।
हरषे देव बिलंब न कीन्हा॥
सब देवता अपने-अपने लोक को गए। पृथ्वी सहित सबके मन को शांति मिली। ब्रह्माजी ने जो कुछ आज्ञा दी, उससे देवता बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने (वैसा करने में) देर नहीं की।
बनचर देह धरी छिति माहीं।
अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं॥
गिरि तरु नख आयुध सब बीरा।
हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥
पृथ्वी पर उन्होंने वानरदेह धारण की। उनमें अपार बल और प्रताप था। सभी शूरवीर थे, पर्वत, वृक्ष और नख ही उनके शस्त्र थे। वे धीर बुद्धि वाले (वानर रूप देवता) भगवान के आने की राह देखने लगे।
यहां से इस कथा गंगा को गोस्वामी जी लेकर चलते हैं श्री अयोध्या जी की ओर। अयोध्या यानी अवध, जो अवध्य है, जहां कोई वध संभव नही, जो आयुधा है, अयुद्ध, युद्ध रहित, अत्यंत पवित्र, जिसकी वंदना गोस्वामी जी मानस रचना के आरंभ में ही कर चुके है। अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट हैं महाराजा दशरथ। उनकी बड़ी पत्नी हैं कौशल्या। ये दोनों पूर्व जन्म में अदिति और कश्यप के रूप में थे। इनके कोई पुत्र नहीं हैं। पुत्र न होने की चिंता में दशरथ जी व्याकुल हैं। कुछ समझ नहीं आता तो वह गुरु वशिष्ठ जी की शरण मे जाते हैं। कथा कहती है की भगवान ने जब देवताओं और पृथ्वी की पीड़ा सुनकर यह घोषणा की कि वे धरती पर मनुष्य रूप में आ कर दैत्यों के संहार करने वाले हैं, इसके बाद सभी देवताओं को भी उनके दायित्व निर्धारित किये गए। भगवान के आगमन से पूर्व ही सभी अपनी अपनी भूमिका में घरती पर आकर भगवान के अवतरण की प्रतीक्षा करने लगे। कथा कहती है-
गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी।
रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥
यह सब रुचिर चरित मैं भाषा।
अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥
वे (वानर) पर्वतों और जंगलों में जहाँ-तहाँ अपनी-अपनी सुंदर सेना बनाकर भरपूर छा गए। यह सब सुंदर चरित्र मैंने कहा। अब वह चरित्र सुनो जिसे बीच ही में छोड़ दिया था।
अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ।
बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥
धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी।
हृदयँ भगति भति सारँगपानी॥
अवधपुरी में रघुकुल शिरोमणि दशरथ नाम के राजा हुए, जिनका नाम वेदों में विख्यात है। वे धर्मधुरंधर, गुणों के भंडार और ज्ञानी थे। उनके हृदय में शांर्गधनुष धारण करने वाले भगवान की भक्ति थी और उनकी बुद्धि भी उन्हीं में लगी रहती थी।
कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।
पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥
उनकी कौसल्या आदि प्रिय रानियाँ सभी पवित्र आचरण वाली थीं। वे (बड़ी) विनीत और पति के अनुकूल (चलने वाली) थीं और श्री हरि के चरणकमलों में उनका दृढ़ प्रेम था।
एक बार भूपति मन माहीं।
भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला।
चरन लागि करि बिनय बिसाला॥
एक बार राजा के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं है। राजा तुरंत ही गुरु के घर गए और चरणों में प्रणाम कर बहुत विनय की।
निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ।
कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी।
त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥
राजा ने अपना सारा सुख-दुःख गुरु को सुनाया। गुरु वशिष्ठजी ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया और कहा- धीरज धरो, तुम्हारे चार पुत्र होंगे, जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध और भक्तों के भय को हरने वाले होंगे।
सृंगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा।
पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें।
प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥
वशिष्ठजी ने श्रृंगी ऋषि को बुलवाया और उनसे शुभ पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया।
यद्यपि मानस में श्रृंगी ऋषि के बारे में कोई विस्तार नही है किंतु आदि कवि महर्षि बाल्मीकि जी ने इनके बारे में रचा है। श्रृंगी ऋषि को इनके पिता विभांडक ऋषि एक नैयष्टिक ब्रह्मचारी बनाना चाहते थे। परिस्थितियां ऐसी हुईं कि अंग देश के राजा रोमपाद की गोद ली हुई पुत्री शांता जी से इनका विवाह हुआ। शांता जी महाराज दशरथ की ही बेटी हैं जिनको उन्हीने अपने मित्र और साढ़ू रोमपाद जी को गोद दे दिया था। शांता जी पति यानि श्रृंगी जी एक प्रकार से महाराज दशरथ के दामाद भी हैं। आज इन्ही श्रृंगी जी ने महाराज के लिए पुत्र कामेष्टि यज्ञ कराया है। श्रृंगी जी ने इस यज्ञ में पूर्ण भक्ति के साथ स्वयं आहुति दी है। जिस स्थान पर यह यज्ञ हुआ है वह स्थान आज बस्ती जनपद में मखौड़ा नाम से जाना जाता है।
इस यज्ञ की विशेषता यह है कि इसमे प्रसाद लेकर स्वयं अग्निदेव प्रकट होते हैं । इस कथा को प्रवाहमय करते गोस्वामी जी कहते हैं कि श्रृंगी मुनि के भक्ति सहित आहुतियाँ देने पर अग्निदेव हाथ में चरु (हविष्यान्न खीर) लिए प्रकट हुए।
जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा।
सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा॥
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई।
जथा जोग जेहि भाग बनाई॥
दशरथ से बोले- वशिष्ठ ने हृदय में जो कुछ विचारा था, तुम्हारा वह सब काम सिद्ध हो गया। हे राजन्! (अब) तुम जाकर इस हविष्यान्न (पायस) को, जिसको जैसा उचित हो, वैसा भाग बनाकर बाँट दो।
तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ।
परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥
तदनन्तर अग्निदेव सारी सभा को समझाकर अन्तर्धान हो गए। राजा परमानंद में मग्न हो गए, उनके हृदय में हर्ष समाता न था।
तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं।
कौसल्यादि तहाँ चलि आईं॥
अर्ध भाग कौसल्यहि दीन्हा।
उभय भाग आधे कर कीन्हा॥
उसी समय राजा ने अपनी प्यारी पत्नियों को बुलाया। कौसल्या आदि सब (रानियाँ) वहाँ चली आईं। राजा ने (पायस का) आधा भाग कौसल्या को दिया, (और शेष) आधे के दो भाग किए।
कैकेई कहँ नृप सो दयऊ।
रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥
कौसल्या कैकेई हाथ धरि।
दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥
वह (उनमें से एक भाग) राजा ने कैकेयी को दिया। शेष जो बच रहा उसके फिर दो भाग हुए और राजा ने उनको कौसल्या और कैकेयी के हाथ पर रखकर (अर्थात् उनकी अनुमति लेकर) और इस प्रकार उनका मन प्रसन्न करके सुमित्रा को दिया।
एहि बिधि गर्भसहित सब नारी।
भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥
जा दिन तें हरि गर्भहिं आए।
सकल लोक सुख संपति छाए॥
इस प्रकार सब स्त्रियाँ गर्भवती हुईं। वे हृदय में बहुत हर्षित हुईं। उन्हें बड़ा सुख मिला। जिस दिन से श्री हरि (लीला से ही) गर्भ में आए, सब लोकों में सुख और सम्पत्ति छा गई।
मंदिर महँ सब राजहिं रानीं।
सोभा सील तेज की खानीं॥
सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ।
जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥
शोभा, शील और तेज की खान (बनी हुई) सब रानियाँ महल में सुशोभित हुईं। इस प्रकार कुछ समय सुखपूर्वक बीता और वह अवसर आ गया, जिसमें प्रभु को प्रकट होना था।
कथा यह स्थापना दे रही है कि विधाता का कोई कार्य अनियोजित नही होता। सामान्य लोक में लोगों को लगता है कि कोई कार्य किसी के प्रयास या पुरुषार्थ से हो रहा है, वास्तव में ऐसा है नहीं। जो होता है उसके पीछे नियंता की योजना होती है। उसी की योजना के अनुसार कुछ भी घटित होता है। महाराज दशरथ के पूर्व जन्म के टप और भगवान की अनेक योजनाओं के क्रियान्वयन का समय आ गया। सभी ग्रह, नक्षत्र, वायु, अग्नि, सूर्य, ऋतु और प्रकृति के सभी तत्व और क्रियाओं में सामंजस्य हुआ तब भगवान के मनुष्य रूप में अवतरण की स्थिति आयी।
जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥
योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी अनुकूल हो गए। जड़ और चेतन सब हर्ष से भर गए। क्योंकि श्री राम का जन्म सुख का मूल है।
नौमी तिथि मधु मास पुनीता।
सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा।
पावन काल लोक बिश्रामा॥
पवित्र चैत्र का महीना था, नवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित् मुहूर्त था। दोपहर का समय था। न बहुत सर्दी थी, न धूप (गरमी) थी। वह पवित्र समय सब लोकों को शांति देने वाला था।
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ।
हरषित सुर संतन मन चाऊ॥
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा।
स्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥
शीतल, मंद और सुगंधित पवन बह रहा था। देवता हर्षित थे और संतों के मन में (बड़ा) चाव था। वन फूले हुए थे, पर्वतों के समूह मणियों से जगमगा रहे थे और सारी नदियाँ अमृत की धारा बहा रही थीं।
सो अवसर बिरंचि जब जाना।
चले सकल सुर साजि बिमाना॥
गगन बिमल संकुल सुर जूथा।
गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥
जब ब्रह्माजी ने वह (भगवान के प्रकट होने का) अवसर जाना तब (उनके समेत) सारे देवता विमान सजा-सजाकर चले। निर्मल आकाश देवताओं के समूहों से भर गया। गंधर्वों के दल गुणों का गान करने लगे।
बरषहिं सुमन सुअंजुलि साजी।
गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥
अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा।
बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥
सुंदर अंजलियों में सजा-सजाकर पुष्प बरसाने लगे। आकाश में घमाघम नगाड़े बजने लगे। नाग, मुनि और देवता स्तुति करने लगे और बहुत प्रकार से अपनी-अपनी सेवा (उपहार) भेंट करने लगे।
सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।
जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम॥
देवताओं के समूह विनती करके अपने-अपने लोक में जा पहुँचे। समस्त लोकों को शांति देने वाले, जगदाधार प्रभु प्रकट हुए।
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला
कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी
अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा
निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला
सोभासिंधु खरारी॥
दीनों पर दया करने वाले, कौसल्याजी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए। मुनियों के मन को हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गई। नेत्रों को आनंद देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था, चारों भुजाओं में अपने (खास) आयुध (धारण किए हुए) थे, (दिव्य) आभूषण और वनमाला पहने थे, बड़े-बड़े नेत्र थे। इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए।
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी
केहि बिधि करौं अनंता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना
बेद पुरान भनंता॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर
जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी
भयउ प्रगट श्रीकंता।।
दोनों हाथ जोड़कर माता कहने लगी- हे अनंत! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ। वेद और पुराण तुम को माया, गुण और ज्ञान से परे और परिमाण रहित बतलाते हैं। श्रुतियाँ और संतजन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं।
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया
रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी
सुनत धीर मति थिर न रहै॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना
चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई
जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥
वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्माण्डों के समूह (भरे) हैं। वे तुम मेरे गर्भ में रहे- इस हँसी की बात के सुनने पर धीर (विवेकी) पुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती (विचलित हो जाती है)। जब माता को ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब प्रभु मुस्कुराए। वे बहुत प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं। अतः उन्होंने (पूर्व जन्म की) सुंदर कथा कहकर माता को समझाया, जिससे उन्हें पुत्र का (वात्सल्य) प्रेम प्राप्त हो ,भगवान के प्रति पुत्र भाव हो जाए।
माता पुनि बोली सो मति डोली
तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला
यह सुख परम अनूपा॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना
होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं
ते न परहिं भवकूपा॥
माता की वह बुद्धि बदल गई, तब वह फिर बोली- हे तात! यह रूप छोड़कर अत्यन्त प्रिय बाललीला करो, (मेरे लिए) यह सुख परम अनुपम होगा। (माता का) यह वचन सुनकर देवताओं के स्वामी सुजान भगवान ने बालक (रूप) होकर रोना शुरू कर दिया। (तुलसीदासजी कहते हैं-) जो इस चरित्र का गान करते हैं, वे श्री हरि का पद पाते हैं और (फिर) संसार रूपी कूप में नहीं गिरते।
बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥
ब्राह्मण, गो, देवता और संतों के लिए भगवान ने मनुष्य का अवतार लिया। वे (अज्ञानमयी, मलिना) माया और उसके गुण (सत्, रज, तम) और (बाहरी तथा भीतरी) इन्द्रियों से परे हैं। उनका (दिव्य) शरीर अपनी इच्छा से ही बना है ,किसी कर्म बंधन से परवश होकर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों के द्वारा नहीं।
सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी।
संभ्रम चलि आईं सब रानी॥
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी।
आनँद मगन सकल पुरबासी॥
बच्चे के रोने की बहुत ही प्यारी ध्वनि सुनकर सब रानियाँ उतावली होकर दौड़ी चली आईं। दासियाँ हर्षित होकर जहाँ-तहाँ दौड़ीं। सारे पुरवासी आनंद में मग्न हो गए।
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना।
मानहु ब्रह्मानंद समाना॥
परम प्रेम मन पुलक सरीरा।
चाहत उठन करत मति धीरा॥
राजा दशरथजी पुत्र का जन्म कानों से सुनकर मानो ब्रह्मानंद में समा गए। मन में अतिशय प्रेम है, शरीर पुलकित हो गया। (आनंद में अधीर हुई) बुद्धि को धीरज देकर (और प्रेम में शिथिल हुए शरीर को संभालकर) वे उठना चाहते हैं।
जाकर नाम सुनत सुभ होई।
मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥
परमानंद पूरि मन राजा।
कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥
जिनका नाम सुनने से ही कल्याण होता है, वही प्रभु मेरे घर आए हैं। (यह सोचकर) राजा का मन परम आनंद से पूर्ण हो गया। उन्होंने बाजे वालों को बुलाकर कहा कि बाजा बजाओ।
गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा।
आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥
अनुपम बालक देखेन्हि जाई।
रूप रासि गुन कहि न सिराई॥
गुरु वशिष्ठजी के पास बुलावा गया। वे ब्राह्मणों को साथ लिए राजद्वार पर आए। उन्होंने जाकर अनुपम बालक को देखा, जो रूप की राशि है और जिसके गुण कहने से समाप्त नहीं होते।
नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।
हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥
भावार्थ:-फिर राजा ने नांदीमुख श्राद्ध करके सब जातकर्म-संस्कार आदि किए और ब्राह्मणों को सोना, गो, वस्त्र और मणियों का दान दिया।
ध्वज पताक तोरन पुर छावा।
कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥
सुमनबृष्टि अकास तें होई।
ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥
ध्वजा, पताका और तोरणों से नगर छा गया। जिस प्रकार से वह सजाया गया, उसका तो वर्णन ही नहीं हो सकता। आकाश से फूलों की वर्षा हो रही है, सब लोग ब्रह्मानंद में मग्न हैं।
बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाईं।
सहज सिंगार किएँ उठि धाईं॥
कनक कलस मंगल भरि थारा।
गावत पैठहिं भूप दुआरा॥
स्त्रियाँ झुंड की झुंड मिलकर चलीं। स्वाभाविक श्रृंगार किए ही वे उठ दौड़ीं। सोने का कलश लेकर और थालों में मंगल द्रव्य भरकर गाती हुईं राजद्वार में प्रवेश करती हैं।
करि आरति नेवछावरि करहीं।
बार बार सिसु चरनन्हि परहीं॥
मागध सूत बंदिगन गायक।
पावन गुन गावहिं रघुनायक॥
वे आरती करके निछावर करती हैं और बार-बार बच्चे के चरणों पर गिरती हैं। मागध, सूत, वन्दीजन और गवैये रघुकुल के स्वामी के पवित्र गुणों का गान करते हैं।
सर्बस दान दीन्ह सब काहू।
जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥
मृगमद चंदन कुंकुम कीचा।
मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥
राजा ने सब किसी को भरपूर दान दिया। जिसने पाया उसने भी नहीं रखा (लुटा दिया)। (नगर की) सभी गलियों के बीच-बीच में कस्तूरी, चंदन और केसर की कीच मच गई।
गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।
हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद॥
भावार्थ:-घर-घर मंगलमय बधावा बजने लगा, क्योंकि शोभा के मूल भगवान प्रकट हुए हैं। नगर के स्त्री-पुरुषों के झुंड के झुंड जहाँ-तहाँ आनंदमग्न हो रहे हैं।
कैकयसुता सुमित्रा दोऊ।
सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥
वह सुख संपति समय समाजा।
कहि न सकइ सारद अहिराजा॥
कैकेयी और सुमित्रा- इन दोनों ने भी सुंदर पुत्रों को जन्म दिया। उस सुख, सम्पत्ति, समय और समाज का वर्णन सरस्वती और सर्पों के राजा शेषजी भी नहीं कर सकते।
अवधपुरी सोहइ एहि भाँती।
प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥
देखि भानु जनु मन सकुचानी।
तदपि बनी संध्या अनुमानी॥
अवधपुरी इस प्रकार सुशोभित हो रही है, मानो रात्रि प्रभु से मिलने आई हो और सूर्य को देखकर मानो मन में सकुचा गई हो, परन्तु फिर भी मन में विचार कर वह मानो संध्या बन कर रह गई हो।
अगर धूप बहु जनु अँधिआरी।
उड़इ अबीर मनहुँ अरुनारी॥
मंदिर मनि समूह जनु तारा।
नृप गृह कलस सो इंदु उदारा॥
अगर की धूप का बहुत सा धुआँ मानो (संध्या का) अंधकार है और जो अबीर उड़ रहा है, वह उसकी ललाई है। महलों में जो मणियों के समूह हैं, वे मानो तारागण हैं। राज महल का जो कलश है, वही मानो श्रेष्ठ चन्द्रमा है।
भवन बेदधुनि अति मृदु बानी।
जनु खग मुखर समयँ जनु सानी॥
कौतुक देखि पतंग भुलाना।
एक मास तेइँ जात न जाना॥
राजभवन में जो अति कोमल वाणी से वेदध्वनि हो रही है, वही मानो समय से (समयानुकूल) सनी हुई पक्षियों की चहचहाहट है। यह कौतुक देखकर सूर्य भी (अपनी चाल) भूल गए। एक महीना उन्होंने जाता हुआ न जाना अर्थात उन्हें एक महीना वहीं बीत गया।
मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।
रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥
महीने भर का दिन हो गया। इस रहस्य को कोई नहीं जानता। सूर्य अपने रथ सहित वहीं रुक गए, फिर रात किस तरह होती।
यह रहस्य काहूँ नहिं जाना।
दिनमनि चले करत गुनगाना॥
देखि महोत्सव सुर मुनि नागा।
चले भवन बरनत निज भागा॥
यह रहस्य किसी ने नहीं जाना। सूर्यदेव (भगवान श्री रामजी का) गुणगान करते हुए चले। यह महोत्सव देखकर देवता, मुनि और नाग अपने भाग्य की सराहना करते हुए अपने-अपने घर चले।
औरउ एक कहउँ निज चोरी।
सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥
काकभुसुंडि संग हम दोऊ।
मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥
हे पार्वती! तुम्हारी बुद्धि श्री रामजी के चरणों में बहुत दृढ़ है, इसलिए मैं और भी अपनी एक चोरी (छिपाव) की बात कहता हूँ, सुनो। काकभुशुण्डि और मैं दोनों वहाँ साथ-साथ थे, परन्तु मनुष्य रूप में होने के कारण हमें कोई जान न सका।
परमानंद प्रेम सुख फूले।
बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥
यह सुभ चरित जान पै सोई।
कृपा राम कै जापर होई॥
परम आनंद और प्रेम के सुख में फूले हुए हम दोनों मगन मन से (मस्त हुए) गलियों में (तन-मन की सुधि) भूले हुए फिरते थे, परन्तु यह शुभ चरित्र वही जान सकता है, जिस पर श्री रामजी की कृपा हो।
तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा।
दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥
गज रथ तुरग हेम गो हीरा।
दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥
उस अवसर पर जो जिस प्रकार आया और जिसके मन को जो अच्छा लगा, राजा ने उसे वही दिया। हाथी, रथ, घोड़े, सोना, गायें, हीरे और भाँति-भाँति के वस्त्र राजा ने दिए।
मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहिं असीस।
सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥
गोस्वामी जी का श्रीरामचरितमानस एक जीवन संहिता है। मनुष्य के जीवन का ऐसा संविधान जिसमे प्रत्येक शब्द जीवन को किस प्रकार जिया जाय , यह निर्धारित करता है। मानस के राम को यदि आप सामान्य मनुष्य ही मानकर देखें तो एक मनुष्य के आदर्श की सभी स्थापनाएं मिल जाती हैं। जन्म के बाद जब बालक की अवस्था होती है उस समय संस्कारित बालक का क्या स्वरूप हो। अपने बड़ों के साथ उसका क्या व्यवहार हो। अपने छोटे भाइयों के साथ क्या व्यवहार हो। गुरु के घर विद्या ग्रहण करने जाने पर कैसे रहना है। परिवार के सदस्यों के साथ कैसे व्यवहार करना है। पिता और माता की आज्ञा का क्या महत्व है। हर आदेश और निर्देश में कितनी सकारात्मकता होनी चाहिए। मानस के सभी कांडों में राम की भूमिका और उनके मानवीय आदर्श गहनतम होते जाते हैं। पुत्र राम, भाई राम, पति राम , राजकुमार राम, वन के बनवासी राम, मित्र राम, नायक राम, योद्धा राम, भक्त राम, शासक राम। अनगिनत स्वरूप। अनगिनत भूमिकाएं और सभी मे आदर्श की स्थापना। जीवन को आदर्श बनाने के लिए , संबंध, कुटुंब, राज, समाज और राष्ट्र के संचालन के लिए मानस प्रत्येक मनुष्य को त्याग से जोड़ता है और कठिन परिश्रम की अनिवार्यता बताता है। जीवन मे तप और परिश्रम के बिना कुछ भी हासिल नही हो सकता। मानस के राम जितने परिश्रमी हैं उतने ही तपस्वी हैं। गुरु, ब्रह्म और सभी बड़ों का सम्मान आवश्यक है। मानस के शब्द शब्द में जीवन का संविधान है।
जै सियाराम।।