देश में अलग-अलग “पर्सनल लॉ” लागू होने से अनेक परेशानियाँ : अश्विनी उपाध्याय

कहा, आज देश को चाहिए एक कानून, संविधान को बदलने की जरूरत


अशोक झा, सिलीगुड़ी: सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक मुद्दों पर जनहित याचिकाएं दायर करने वाले अश्विनी उपाध्याय ने एक बार फिर कहा है कि भारत में एक देश एक कानून की जरूरत है। समान नागरिक संहिता देश में लागू हो इस बारे में अपनी मुहिम को आगे बढ़ाते हुए श्री उपाध्याय ने अपने कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के 15 बिंदुओं पर एक बार जनमानस का ध्यान आकृष्ट करना जरूरी है। वह सिलीगुड़ी में एक देश एक विधान विषय पर आयोजित सम्मेलन में बतौर मुख्यवक्ता बोल रहे थे। इसका आयोजन सर्व हिंदी विकास मंच और भारत विकास परिषद की ओर से आयोजित थी।
अश्विनी उपाध्याय ने भारतीय कानून में बदलाव की वकालत करते हुए कहा कि अगर विदेशी कानूनों से ही देश चलाना है तो 150 साल पुराने अंग्रेजी कानून से क्यों। जो आज अमेरिका में चल रहा है वो लाओ और कोई गलती करे तो उसको तुरंत सजा मिले।। जहां-जहां हिंदू खत्म हो चुके हैं वहां सेक्युलिरिज्म काम नहीं करता है। कश्मीर, लद्दाख और लक्ष्यद्वीप में सेक्युलिरिज्म काम नहीं करता है। जिन नौ राज्यों हिंदू खत्म हो गए, वहां सेक्युलिरिज्म काम नहीं करता है। इस देश में जो भाई चारा बना हुआ है वह हिंदुओं की वजह से है। अश्विनी उपाध्याय ने कहा, पीएफआई पर बैन का समर्थन करते हुए जोरदार हमला बोला। उन्होंने कहा कि पीएफआई आतंक फैलाता है, लव जिहाद करवाता है, धर्मांतरण करवाता है। विदेशी फंडिंग लेता है। मदरसे चला रहा है। ऐसी-ऐसी किताबें चला रहा है। जिसमें कहा जा रहा है जो इस्लाम को नहीं मानता वह काफिर हैं। काफिरों को खत्म करो, उसको कन्वर्ट कराओ।शासक कितना भी अच्छा हो, लेकिन अगर कानून अच्छा नहीं तो अराजकता फैलेगी और वो फैल रही है। उन्होंने अमेरिका का फेडरल पीनल कोड दिखाते हुए कहा कि भारत में जिस तरह की चीजें हो रही हैं, वैसा अमेरिका में किसी की करने की हिम्मत नहीं है। उन्होंने कहा, “वहां कोई बदजुबानी नहीं होती है। वहां कोई क्यों नहीं कहता कि 15 मिनट के लिए पुलिस हटा दो मैं सारे अमेरिका वालों को काटकर फेंक दूंगा। वहां कोई ईसा मसीह का अपमान इसलिए नहीं करता क्योंकि वहां 50 साल से लेकर 100 साल तक की सजा होती है। यहां चूंकि 1860 का वो घटिया इंडियन पीनल कोड चल रहा है, जिसे मैकाले ने बनाया था। मुस्लिम पर्सनल लॉ में बहु-विवाह करने की छूट है लेकिन अन्य धर्मो में ‘एक पति-एक पत्नी’ का नियम बहुत कड़ाई से लागू है। बाझपन या नपुंसकता जैसा उचित और व्यावहारिक कारण होने पर भी हिंदू ईसाई पारसी के लिए दूसरा विवाह करना एक गंभीर अपराध है और भारतीय दंड संहिता की धारा 494 में बहुविवाह के लिए 7 वर्ष की सजा का प्रावधान है इसीलिए कई लोग दूसरा विवाह करने के लिए मुस्लिम धर्म अपना लेते हैं. भारत जैसे सेक्युलर देश में मौज मस्ती के लिए भी चार निकाह जायज है जबकि इस्लामिक देश पाकिस्तान में पहली बीवी की इजाजत के बिना शौहर दूसरा निकाह नहीं कर सकता हैं. मानव इतिहास में ‘एक पति – एक पत्नी’ का नियम सर्वप्रथम भगवान श्रीराम ने लागू किया था और यह किसी भी प्रकार से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं बल्कि “सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू डिग्निटी” का मामला है इसलिए यह जेंडर न्यूट्रल और रिलिजन न्यूट्रल होना चाहिए। कहने को तो भारत में संविधान अर्थात समान विधान है लेकिन विवाह की न्यूनतम उम्र भी सबके लिए समान नहीं है। मुस्लिम लड़कियों की वयस्कता की उम्र निर्धारित नहीं है और माहवारी शुरू होने पर लड़की को निकाह योग्य मान लिया जाता है इसलिए 9 वर्ष की उम्र में लड़कियों का निकाह कर दिया जाता है जबकि अन्य धर्मो मे लड़कियों की विवाह की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष और लड़कों की विवाह की न्यूनतम उम्र 21 वर्ष है. विश्व स्वास्थ्य संगठन कई बार कह चुका कि 20 वर्ष से पहले लड़की शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्व नहीं होती है और 20 वर्ष से पहले गर्भधारण करना जच्चा-बच्चा दोनों के लिए अत्यधिक हानिकारक है, विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार लड़का हो या लड़की, 21 वर्ष से पहले दोनों ही मानसिक रूप से परिपक्व नहीं होते हैं, 21 वर्ष से पहले तो बच्चे ग्रेजुएशन भी नहीं कर पाते हैं और आर्थिक रूप से माता-पिता पर निर्भर होते हैं इसलिए विवाह की न्यूनतम उम्र सबके लिए एक समान “21 वर्ष” करना नितांत आवश्यक है। ‘विवाह की न्यूनतम उम्र’ किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि “सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू हेल्थ” का मामला है इसलिए यह जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और 21 वर्ष होना चाहिए। तीन तलाक अवैध घोषित होने के बावजूद अन्य प्रकार के मौखिक तलाक (तलाक-ए-हसन एवं तलाक-ए-अहसन) आज भी मान्य है और इसमें भी तलाक का आधार बताने की बाध्यता नहीं है और केवल 3 महीने तक प्रतीक्षा करना है जबकि अन्य धर्मों में केवल न्यायालय के माध्यम से ही विवाह-विच्छेद हो सकता है. हिंदू ईसाई पारसी दंपति आपसी सहमति से भी मौखिक विवाह-विच्छेद की सुविधा से वंचित है. मुसलमानों में प्रचलित मौखिक तलाक का न्यायपालिका के प्रति जवाबदेही नहीं होने के कारण मुस्लिम बेटियों और उनके माता-पिता भाई-बहन और बच्चों को हमेशा भय के वातावरण में रहना पड़ता है. तुर्की जैसे मुस्लिम बाहुल्य देश में भी अब किसी तरह का मौखिक तलाक मान्य नहीं है इसलिए तलाक लेने का तरीका जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए।
मुस्लिम कानून में मौखिक वसीयत एवं दान मान्य है लेकिन अन्य धर्मों में केवल पंजीकृत वसीयत एवं दान ही मान्य है. मुस्लिम कानून मे एक-तिहाई से अधिक संपत्ति का वसीयत नहीं किया जा सकता है जबकि अन्य धर्मों में शत-प्रतिशत संपत्ति का वसीयत किया जा सकता है. वसीयत और दान किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि “सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू लिबर्टी” का मामला है इसलिए यह जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए।
मुस्लिम कानून में ‘उत्तराधिकार’ की व्यवस्था अत्यधिक जटिल है, पैतृक संपत्ति में पुत्र एवं पुत्रियों के अधिकार में अत्यधिक भेदभाव है और अन्य धर्मों में भी विवाहोपरान्त अर्जित संपत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं और उत्तराधिकार के कानून बहुत जटिल है, विवाह के बाद पुत्रियों के पैतृक संपत्ति में अधिकार सुरक्षित रखने की व्यवस्था नहीं है और विवाहोपरान्त अर्जित संपत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं. ‘उत्तराधिकार’ किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि “सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू लाइफ” का मामला है इसलिए यह भी जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए।
विवाह विच्छेद (तलाक) का आधार भी सबके लिए एक समान नहीं है। व्याभिचार के आधार पर मुस्लिम शौहर अपनी बीबी को तलाक दे सकता है लेकिन बीवी अपने शौहर को तलाक नहीं दे सकती है। हिंदू पारसी और ईसाई धर्म में तो व्याभिचार तलाक का ग्राउंड ही नहीं है। कोढ़ जैसी लाइलाज बीमारी के आधार पर हिंदू और ईसाई धर्म में तलाक हो सकता है लेकिन पारसी और मुस्लिम धर्म में नहीं। कम उम्र में विवाह के आधार पर हिंदू धर्म में विवाह विच्छेद हो सकता है लेकिन पारसी ईसाई मुस्लिम में यह संभव नहीं है। ‘विवाह विच्छेद’ किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि “सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू लाइफ” का मामला है इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए।
गोद लेने और भरण-पोषण करने का नियम भी हिंदू मुस्लिम पारसी ईसाई के लिए अलग-अलग है। मुस्लिम महिला गोद नहीं ले सकती है और अन्य धर्मों में भी पुरुष प्रधानता के साथ गोद लेने की व्यवस्था लागू है. ‘गोद लेने का अधिकार’ किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि “सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू लाइफ” का मामला है इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए।
विवाह-विच्छेद के बाद हिंदू बेटियों को तो गुजारा-भत्ता मिलता है लेकिन तलाक के बाद मुस्लिम बेटियों को गुजारा भत्ता नहीं मिलता है. गुजारा-भत्ता किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि “सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू लाइफ” का मामला है इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए। “भारतीय दंड संहिता” की तर्ज पर सभी नागरिकों के लिए एक समग्र समावेशी और एकीकृत “भारतीय नागरिक संहिता” लागू होने से विवाह विच्छेद के बाद सभी बहन बेटियों को गुजारा भत्ता मिलेगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई और धर्म जाति क्षेत्र लिंग आधारित विसंगति समाप्त होगी.
पैतृक संपत्ति में पुत्र-पुत्री तथा बेटा-बहू को समान अधिकार प्राप्त नहीं है और धर्म क्षेत्र और लिंग आधारित बहुत सी विसंगतियां व्याप्त हैं विरासत, वसीयत और संपत्ति का अधिकार किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं बल्कि “सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू लाइफ” का मामला है इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए। “भारतीय दंड संहिता” की तर्ज पर सभी नागरिकों के लिए एक समग्र समावेशी और एकीकृत “भारतीय नागरिक संहिता” लागू होने से धर्म क्षेत्र लिंग आधारित विसंगतियां समाप्त होगी और विरासत वसीयत तथा संपत्ति का अधिकार सबके लिए एक समान होगा चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई .
अलग-अलग पर्सनल लॉ लागू होने के कारण विवाह-विच्छेद की स्थिति में विवाहोपरांत अर्जित संपत्ति में पति-पत्नी को समान अधिकार नहीं है जबकि यह किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं बल्कि “सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू लाइफ” का मामला है इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए। “भारतीय दंड संहिता” की तर्ज पर सभी नागरिकों के लिए एक समग्र समावेशी और एकीकृत “भारतीय नागरिक संहिता” लागू होने से धर्म क्षेत्र लिंग आधारित विसंगतियां समाप्त होगी और विवाहोपरांत अर्जित संपत्ति का अधिकार सबके लिए एक समान होगा चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई .
अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ लागू होने के कारण मुकदमों की सुनवाई में अत्यधिक समय लगता है। भारतीय दंड संहिता की तरह सभी नागरिकों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र समावेशी एवं एकीकृत भारतीय नागरिक संहिता लागू होने से न्यायालय का बहुमूल्य समय बचेगा और नागरिकों को त्वरित न्याय मिलेगा
अलग-अलग संप्रदाय के लिए लागू अलग-अलग ब्रिटिश कानूनों से नागरिकों के मन में गुलामी की हीन भावना व्याप्त है। भारतीय दंड संहिता की तर्ज पर देश के सभी नागरिकों के लिए एक समग्र समावेशी और एकीकृत “भारतीय नागरिक संहिता” लागू होने से समाज को सैकड़ों जटिल, बेकारऔर पुराने कानूनों से मुक्ति ही नहीं बल्कि गुलामी की हीन भावना से भी मुक्ति मिलेगी.
अलग-अलग पर्सनल लॉ लागू होने के कारण अलगाववादी और कट्टरपंथी मानसिकता बढ़ रही है और हम एक अखण्ड राष्ट्र के निर्माण की दिशा में त्वरित गति से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं.भारतीय दंड संहिता की तरह सभी नागरिकों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र समावेशी एवं एकीकृत भारतीय नागरिक संहिता लागू होने से “एक भारत श्रेष्ठ भारत” का सपना साकार होगा।
हिंदू मैरिज एक्ट में तो महिला-पुरुष को लगभग एक समान अधिकार प्राप्त है लेकिन मुस्लिम और पारसी पर्सनल लॉ में बेटियों के अधिकारों में अत्यधिक भेदभाव है. भारतीय दंड संहिता की तरह सभी नागरिकों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र समावेशी एवं एकीकृत भारतीय नागरिक संहिता का सबसे ज्यादा फायदा मुस्लिम और पारसी बेटियों को मिलेगा क्योंकि उन्हें पुरुषों के बराबर नहीं माना जाता है.
अलग-अलग पर्सनल लॉ के कारण रूढ़िवाद कट्टरवाद सम्प्रदायवाद क्षेत्रवाद भाषावाद बढ़ रहा है। देश के सभी नागरिकों के लिए एक समग्र समावेशी और एकीकृत “भारतीय नागरिक संहिता” लागू होने से रूढ़िवाद कट्टरवाद सम्प्रदायवाद क्षेत्रवाद भाषावाद ही समाप्त नहीं होगा बल्कि वैज्ञानिक और तार्किक सोच भी विकसित होगी। कार्यक्रम के समापन पर सुशील रामपुरिया ने सभी का आभार व्यक्त किया।

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