आज थाली बजाकर उठाए जाएंगे जग के पालनहार
अशोक झा, सिलीगुड़ी: हर साल कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को देवउठनी एकादशी का पर्व मनाया जाता है। यह एकादशी दिवाली के बाद आती है. इसे देवोत्थान एकादशी भी कहा जाता है।ऐसा माना जाता है कि देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह करने से जीवन में फैली नकारात्मकता दूर हो जाती है। इस आर्टिकल में आपको तुलसी विवाह की विधि और विवाह में उपयोग होने वाली सामग्री के बारे में बताएंगे।
किस शुभ मुहूर्त में करें तुलसी विवाह? : तुलसी विवाह का आयोजन द्वादशी तिथि पर करना चाहिए।12 नवंबर की शाम को द्वादशी तिथि शुरू हो जाएगी।12 या 13 नवंबर को कभी तुलसी विवाह किया जा सकता है। 12 नवंबर शाम 4 बजकर 6 मिनट पर द्वादशी तिथि शुरू हो जाएगी। 13 नवंबर की दोपहर 1 बजकर 2 मिनट तक द्वादशी तिथि रहेगी।तुलसी विवाह के लिए पूजन सामग्री : तुलसी का पौधा। शालिग्राम जी,पानी वाला नारियल कलश,16 श्रृंगार की सामग्री (चूड़ियां, बिछिया, पायल, सिंदूर, मेहंदी, कागज, कजरा, हार, आदि, लाल रंग का कपड़ा
हल्दी की गांठ ,पूजा के लिए लकड़ी की चौकी
पूजन सामग्री (कपूर, धूप, आम की लकड़ियां, चंदन आदि।)
फल और सब्जियां (आंवला, शकरकंद, सिंघाड़ा, सीताफल, अनार, मूली, अमरूद आदि) तुलसी विवाह की विधि : देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह की विशेष पूजा विधि का पालन करना अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। इस दिन विशेष रूप से उन लोगों को व्रत रखना चाहिए, जिन्हें कन्यादान करना होता है। तुलसी विवाह में पुरुष और महिला दोनों पक्ष एकत्रित होकर विवाह की प्रक्रिया का पालन करते हैं। इस दिन घर में आंगन में चौक सजाकर रंगोली बनाई जाती है और तुलसी माता का विधिवत श्रृंगार किया जाता है। पूजा की शुरुआत घर के आंगन में चौकी स्थापित करने से होती है, जहां तुलसी के पौधे को सजाकर उनकी पूजा की जाती है। तुलसी माता को लाल रंग की चुनरी, साड़ी या लहंगा पहनाकर सजाया जाता है और गन्ने से मंडप तैयार किया जाता है। इसके बाद शालिग्राम की पूजा की जाती है, जिसे अष्टदल कमल पर स्थापित किया जाता है।
कलश की स्थापना में पानी, गंगाजल, नारियल और आम के पत्ते रखे जाते हैं। फिर शालिग्राम को तुलसी माता के दाएं तरफ रखा जाता है और घी का दीपक जलाकर ओम श्री तुलस्यै नम: मंत्र का उच्चारण किया जाता है। इस दौरान शालिग्राम और तुलसी माता पर गंगाजल का छिड़काव किया जाता है। पूजन के अंत में शालिग्राम जी को गोद में उठाया जाता है और महिला तुलसी माता को उठाकर दोनों की सात परिक्रमा कराई जाती है। इस दौरान मंगल गीत गाए जाते हैं और विवाह मंत्रों का उच्चारण किया जाता है। अंत में खीर और पूड़ी का भोग अर्पित किया जाता है। पूजा समाप्त होने पर माता तुलसी और शालिग्राम की आरती उतारी जाती है। सभी भक्तों को प्रसाद वितरित किया जाता है।इस दिन से रुके हुए सभी धार्मिक कार्यों की शुभारंभ हो जाती है. ऐसी मान्यता है कि जो भी व्यक्ति इस एकादशी के दिन माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु की पूजा सच्चे मन से करता है उसके सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। देव उठनी एकादशी के दिन ये क्या न करें। इसके अलावा जो भी मनुष्य इस व्रत को करता है उसके जीवन में आ रही समस्याओं से भी छुटकारा मिल जाता है। चूंकि इस एकादशी को साल के अन्य एकादशी से ज्यादा महत्व दिया जाता है तो ऐसे में हमें इस दिन कई विशेष बातों का ख्याल रखा जाना चाहिए। तो आज हम आपको बता रहे हैं कि देव उठनी एकादशी के दिन क्या न करें. क्योंकि अगर आप ऐसा करते हैं तो माता लक्ष्मी नाराज हो जाती हैं और जीवन में कंगाली की स्थिति आ जाती है। नहीं खानी चाहिए चावल: देवउठनी एकादशी के दिन चावल नहीं खाना चाहिए. जो लोग व्रत कर रहे हैं वो तो बिल्कुल भी चावल का सेवन न करें. इसके अलावा भी बाकी सभी लोग भी इस बात का विशेष ध्यान रखें कि एकादशी के दिन चावल का सेवन न करें. अगर आप ऐसा करते हैं तो यह शुभ नहीं माना जाता है. हालांकि, विशेष परिस्थितियों में मरीजों और बच्चों को इस नीयम से छूट दी जाती है। मूली और बैंगन से करें परहेज: जो लोग देवउठनी एकादशी का व्रत कर रहे हैं उन्हें मूली से भी दूरी बना कर रखनी चाहिए. इसके अलावा खाने में बैंगन और साग का भी प्रयोग वर्जित है. मान्यता है कि अगर आप ऐसा करते हैं तो भगवान आपसे नाराज हो सकते हैं. देव उठनी एकादशी का व्रत रखने के बाद जब पारण हो जाए यानि कि द्वादशी तिथि को दिन में नहीं सोचा चाहिए. लेकिन अगर नींद आ भी रही हो तो तकिये के नीचे तुलसी का पत्ता रखकर सो सकते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, आषाढ़ शुक्ल एकादशी को भगवान विष्णु योग निद्रा में चले जाते हैं और पूरे चार महीने इसी अवस्था में रहते हैं। इस दौरान सृष्टि का संचालन भगवान शिव के हाथों में रहता है।कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन घरों और मंदिरों में थाली बजाकर या सूप पीटकर भगवान विष्णु को जगाने की परंपरा है।मान्यता है कि क्षीरसागर में भगवान विष्णु चार माह तक सोते हैं और फिर देवोत्थान एकादशी के दिन जागते हैं।