महाकुंभ का आयोजन एक प्राचीन परंपरा,स्नान में अखाड़े का विशेष महत्व
अखाड़ों का प्रमुख उद्देश्य समाज को धर्म और संस्कृति की गहराई से जोड़ना और समाज में समरसता बनाए रखना
– नागा साधु अखाड़ों का एक प्रमुख वर्ग है, जो कुंभ मेले के शाही स्नान में विशेष भूमिका
– सबसे पहले नागा साधु और प्रमुख संत स्नान करते हैं, जिसे कहा जाता है ‘प्रथम स्नान अधिकार’
अशोक झा, सिलीगुड़ी: 2025 में प्रयागराज में आयोजित होने वाले महाकुंभ मेले की तैयारी जोरों पर है। यह धार्मिक आयोजन न केवल श्रद्धा और आस्था का प्रतीक है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर को दर्शाने वाला एक अनूठा उत्सव भी है। सिलीगुड़ी में पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी के अनंत श्री विभूषित महामंडलेश्वर 1008 स्वामी जयकिशन गिरि जी महाराज से महाकुंभ और उससे जुड़ी परम्पराओं के संबंध में बहुत कुछ जानने का मौका मिला। वह आप सभी सनातनियों को भी जानना चाहिए। उन्होंने बताया कि
महाकुंभ का आयोजन एक प्राचीन परंपरा है, जो वैदिक काल से चली आ रही है। इसके पीछे का मुख्य तात्पर्य है पवित्र नदियों में स्नान करना, जो मान्यता के अनुसार मनुष्य के पापों का नाश करता है और मोक्ष की प्राप्ति में सहायक होता है। कुंभ मेले का आयोजन चार स्थानों पर होता है: प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। ये स्थान हर तीन वर्षों में कुंभ मेला आयोजित करते हैं, जबकि महाकुंभ हर 12 वर्ष में होता है, जो विशेष महत्व रखता है। कुंभ का अर्थ होता है ‘कलश’। जब देवताओं और दानवों ने मिल कर समुद्र मंथन किया तब समुद्र से 14 दुर्लभ रत्न प्रकट हुए। इनमें अमृत से भरा कलश भी प्रकट हुआ। इस अमृत कलश को प्राप्त करने के लिए देवताओं और दानवों में धरती पर 12 वर्षों तक युद्ध होता रहा। इस युद्ध के दौरान अमृत कलश से अमृत की कुछ बूंदें प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में गिरीं। ये बूंदें प्रयाग और हरिद्वार में गंगा जी में, उज्जैन में शिप्रा तथा नासिक में गोदावरी नदी में गिरीं। 12 वर्ष तक चले युद्ध के कारण 12 वर्षों के अंतराल के बाद इन सभी स्थानों पर कुंभ का योग बनता है जबकि हरिद्वार तथा प्रयाग में छ: वर्षों के बाद अर्थात अर्ध कुंभ का योग बनता है।जब दुर्वासा ऋषि के श्राप से देवता शक्तिहीन हो गए तथा दैत्य राज बलि का तीनों लोकों में स्वामित्व था। तब देवताओं ने भगवान विष्णु के पास जाकर प्रार्थना की और अपनी विपदा सुनाई। तब श्री भगवान बड़ी ही मधुर वाणी से बोले कि इस समय आपका संकट का काल है, दैत्य, असुर, उन्नति को प्राप्त हो रहे हैं। अत: आप सब देवता दैत्यों से मित्रता कर लो। आप देवता और दैत्य क्षीर सागर का मंथन कर अमृत प्राप्त करो तथा उसका पान करो। तब श्री भगवान की आज्ञा से देवताओं और असुरों ने समुद्र मंथन कर अमृत से भरे कुंभ अथवा कलश को प्राप्त किया। अखाड़ों का प्रमुख उद्देश्य समाज को धर्म और संस्कृति की गहराई से जोड़ना और समाज में समरसता बनाए रखना है। कुंभ मेले में इनकी उपस्थिति श्रद्धालुओं को भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म की दिव्यता का अनुभव कराती है। महाकुंभ में अखाड़ों और उनके साधु-संतों की उपस्थिति श्रद्धालुओं के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र होती है। करोड़ों लोगों की भीड़ के बीच ये दिव्य व्यक्तित्व मानो आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार करते हैं। 2025 का प्रयागराज महाकुंभ अखाड़ों और उनके साधु-संतों की उपस्थिति के बिना अधूरा है। ये अखाड़े न केवल भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म के प्रतीक हैं, बल्कि समाज में नैतिकता और धर्म का प्रचार-प्रसार करने वाले मुख्य स्तंभ भी हैं। कुंभ मेले में अखाड़ों की परंपरा, उनके उद्देश्य और अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद की भूमिका को समझना इस भव्य आयोजन की गहराई में जाने का एक महत्वपूर्ण कदम है।
अखाड़ा शब्द शाब्दिक अर्थ और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
अखाड़ा: शाब्दिक अर्थ और ऐतिहासिक पृष्ठभूमिअखाड़ा’ शब्द का शाब्दिक अर्थ कुश्ती का मैदान है, लेकिन इसका सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व इससे कहीं अधिक है। माना जाता है कि अखाड़ा प्रणाली की शुरुआत 8वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने की थी। इस प्रणाली का उद्देश्य हिंदू धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र और शास्त्र में निपुण साधुओं का एक ऐसा संगठन बनाना था, जो किसी भी बाहरी आक्रमण से धर्म और संस्कृति की रक्षा कर सके। इन साधुओं का अपना कोई पारिवारिक बंधन नहीं होता था, जिससे वे भौतिक इच्छाओं से दूर रहकर अपने धर्म के लिए समर्पित रहते थे। अखाड़ा शब्द के प्रचलन की शुरुआत मुगलकाल में हुई। कुछ विद्वानों का मानना है कि यह ‘अलख’ शब्द से आया है, जबकि अन्य इसे साधुओं के अक्खड़ स्वभाव से जोड़ते हैं। पहले इन्हें साधुओं का जत्था या बेड़ा कहा जाता था। क्यों की गई अखाड़ों की स्थापना और क्या था इनका उद्देश्य?
आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित यह परंपरा समय के साथ विस्तारित होती गई। शुरुआत में चार अखाड़े थे, जो अब बढ़कर 13 हो गए हैं। इनका उद्देश्य न केवल धर्म की रक्षा करना था, बल्कि समाज में नैतिक मूल्यों को बनाए रखना और लोगों को अध्यात्म की ओर प्रेरित करना भी है। अखाड़ों के साधु-संत धार्मिक ज्ञान, योग, ध्यान, और शस्त्र विद्या में निपुण होते हैं।
क्या होता है शाही स्नान? महाकुंभ में नागा साधुओं की दिव्य यात्रा और आस्था की पेशवाई का जानें महत्व
अखाड़ों का प्रमुख उद्देश्य समाज को धर्म और संस्कृति की गहराई से जोड़ना और समाज में समरसता बनाए रखना है। कुंभ मेले में इनकी उपस्थिति श्रद्धालुओं को भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म की दिव्यता का अनुभव कराती है।प्रयागराज महाकुंभ 2025 मेले का सबसे बड़ा आकर्षण शाही स्नान है। मेले में शाही स्नान को लेकर तैयारियां तेज हो गई हैं। विश्व प्रसिद्ध इस आध्यात्मिक समागम में दुनियाभर के करोड़ों श्रद्धालु, संत-महात्मा, अखाड़े और नागा साधु पहुंचेंगे। जितना इसका आध्यात्मिक महत्व है, उतना ही इसका ऐतिहासिक महत्व है। शाही स्नान न केवल धार्मिक रूप से बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी महत्वपूर्ण है। यह भारतीय परंपरा, आध्यात्म और भक्ति का जीवंत उदाहरण है। लाखों श्रद्धालु इस आयोजन का हिस्सा बनते हैं और इसे अपने जीवन का महत्वपूर्ण क्षण मानते हैं।प्रयागराज कुंभ मेले का शाही स्नान भारतीय संस्कृति, परंपरा और धार्मिक आस्था का प्रतीक है। यह आयोजन दुनिया को भारतीय आध्यात्म और भक्ति की शक्ति का अनुभव कराता है। पेशवाई और नागा साधुओं की उपस्थिति इसे और विशेष बना देती है। इसके कारण यह महान पर्व अद्वितीय बन जाता है। इस बार महाकुंभ मेले का आरंभ 13 जनवरी 2025 को पौष पूर्णिमा के साथ होगा और समापन 26 फरवरी 2025 को महाशिवरात्रि के दिन होगा।
नागा साधुओं का संगम स्नान और परंपरा: शाही स्नान कुंभ मेले में प्रमुख स्नान पर्वों पर आयोजित होता है। इसमें अखाड़ों के साधु-संत, विशेष रूप से नागा साधु संगम में स्नान करते हैं। इसे धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रत्येक अखाड़ा अपने अनुयायियों और नागा साधुओं के साथ भव्य जुलूस के रूप में संगम तट पर पहुंचता है। इस स्नान को ‘शाही’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें संतों और नागा साधुओं की शाही मौजूदगी होती है। वे पूरी शाही शान-शौकत के साथ नाचते-गाते और अपने साथ गदा, तलवार और अन्य शस्त्रों को लेकर भजन-कीर्तन करते हुए रथों, हाथी और पैदल संगम तट पर पहुंचते हैं।शाही स्नान करने का नियम और तिथियां: हिंदू सनातन मान्यता के अनुसार कुंभ मेले के दौरान पवित्र नदियों में स्नान करने से पापों का नाश होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। धार्मिक परंपराओं और शास्त्रों के अनुसार शाही स्नान साधु-संतों और नागा साधुओं के लिए विशेष महत्व रखता है। इसे “देवत्व” प्राप्ति और मोक्ष का प्रतीक भी माना जाता है। इसलिए यह कुंभ की परंपरा का एक महत्वपूर्ण भाग है। शाही स्नान केवल तीन पर्वों पर होता है। पहला शाही स्नान मकर संक्रांति 14 जनवरी 2025 को होगा। दूसरा शाही स्नान मौनी अमावस्या 29 जनवरी 2025 को होगा तथा तीसरा और अंतिम शाही स्नान बसंत पंचमी 3 फरवरी 2025 को होगा। संगम तट पर जिस स्थान पर कुंभ मेला के दौरान अखाड़ों को बसाया जाता है और साधु-संत रहते हैं, वहां पर पहुंचने के लिए पेशवाई निकाली जाती है। यह साधू-संतों का मेला में प्रवेश के समय होता है। मेले में प्रवेश के लिए अखाड़ों और साधु-संतों का भव्य जुलूस निकला जाता है। इसे अखाड़ों का आधिकारिक प्रवेश कहा जा सकता है। पेशवाई में अखाड़े अपने झंडे, चिह्न और पताकाओं के साथ भव्य तरीके से शहर से संगम पहुंचते हैं। इसमें घोड़े, हाथी, बैंड और रथ का इस्तेमाल किया जाता है, जो इस धार्मिक आयोजन को शाही भव्यता प्रदान करते हैं।नागा साधु अखाड़ों का एक प्रमुख वर्ग है, जो कुंभ मेले के शाही स्नान में विशेष भूमिका निभाते हैं। ये साधु नग्न रहते हैं और शरीर पर भस्म लगाते हैं। नागा साधु अपनी कठिन तपस्या और संयम के लिए जाने जाते हैं। उनकी मौजूदगी शाही स्नान को और भी प्रभावशाली बना देती है। नागा साधुओं को “महायोद्धा साधु” भी कहा जाता है, क्योंकि प्राचीन काल में वे धर्म और समाज की रक्षा के लिए सेना के रूप में कार्य करते थे।शाही स्नान की प्रक्रिया विशिष्ट नियमों के तहत की जाती है। स्नान की तिथियां पंचांग के अनुसार निर्धारित की जाती हैं। हर अखाड़ा अपनी तय बारी के अनुसार संगम तट पर स्नान करता है। सबसे पहले नागा साधु और प्रमुख संत स्नान करते हैं, जिसे ‘प्रथम स्नान अधिकार’ कहा जाता है। इसके बाद अन्य अखाड़े और श्रद्धालु स्नान करते हैं।