सैर सपाटा : रोचेस्टर की डायरी 17 @ अमेरिकी शहर रोचेस्टर में साल का आखिरी दिन मेरे लिए यादगार बन गया

सैर सपाटा : रोचेस्टर की डायरी 17
अमेरिकी शहर रोचेस्टर में साल का आखिरी दिन मेरे लिए यादगार बन गया । सुबह से सूरज नहीं दिखा। कभी बूंदाबांदी होने लगती। लेकिन ठंड थोड़ी कम थी क्रिसमस की तुलना में । यह राहत देने वाली बात थी। ऋतंभरा की छुट्टी थी । लेकिन यह छुट्टी अनायास ही नहीं थी । इसके पीछे दमदार वजह भी थी ।
दरअसल इसी दिन हमारे देवेश जी (दामाद) का जन्मदिन था । वह हृदय रोग के डॉक्टर हैं क्योंकि डीएम कार्डियोलॉजी में कर रहे हैं। रोचेस्टर जनरल अस्पताल उनके लिए वैसा ही है , जैसे किसी मौलवी के लिए मस्जिद होती है । जन्मदिन होने के बावजूद ड्यूटी पर थे जनाब।
बिटिया ने खाना बना रखा था पूरे मनोयोग के साथ । दूसरी तरफ इस काम में हम पति-पत्नी तो बस पिसान पोतकर भंडारी बने हुए थे ।
केक पहले से आकर रखा हुआ था। वैसे तो दोनों डॉक्टर खाने-पीने की बड़ी निगरानी रखते हैं । लेकिन आज वह मापदंड अपरिहार्य कारणों से थोड़ा शिथिल कर दिया गया था। इसी के बाद सर्वसम्मति से खाने में पूडी. और पनीर की सब्जी को शामिल किया गया था।
दोपहर में देवेश जी आ गए , तो हैप्पी बर्थडे शुरू हो गया। खाने के बाद शाम को केक काटा गया ।
घर में है छोटे सरकार की हुकूमत
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इस घर में एक छोटे सरकार भी हैं। यूं तो वह मात्र 11 महीने के हैं, पर उनकी उम्र पर मत जाइए । सब पर हुकूमत इन्हीं की चलती है । आलम यह है कि इनकी इच्छा के बिना एक पत्ता भी हिल नहीं सकता।
साथ ही किसी भी किस्म की नाफरमानी इन्हें सख्त नापसंद है। मुझ नाचीज को तो छोड़िए, इस मामले में यह अपने मम्मी और पापा को भी बख्शने को तैयार नहीं होते। क्योंकि इनके कानून की नजर में सभी बराबर हैं।
मुझे तो विद्यार्थी जीवन में पढ़ा गया कालिदास रचित रघुवंश का वह प्रसंग आज भी याद आता है , जिसमें कविकुल शिरोमणि कहते हैं कि रघुवंशी राजा दिलीप नंदिनी गाय की सेवा उसी प्रकार करते थे कि जब गाय रुक जाती थी तो वह भी रुक जाते थे। जब धेनु चलने लगती तो वे भी गतिमान हो जाते थे । जब गाय स्थिर होकर बैठ जाती तो राजा भी आसन जमा कर बैठ जाते थे।
अब तक अब जान गए होंगे कि हमारे घर में भी नंदिनी की जगह पर यही छोटे सरकार हैं। जिनके जगने पर हम जगे रहते हैं और सोने पर ही हम सोने की सोच सकते हैं। उनकी इच्छाओं- इशारों का सम्मान करना हम सबका प्राकृतिक और स्वाभाविक धर्म सा है। अपने पापा के जन्मदिन पर छोटे सरकार भला अलग-थलग कैसे रह सकते थे ।
उन्होंने भी एक-दो गुब्बारों को झपट्टा मारकर कर केक काटने से पहले ही और असमय ही फोड़कर यह जता दिया कि मेरे पापा का जन्मदिन है और मैं चाहे जो करुं मेरी मर्जी। इससे इनकी ताकत का अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है। खुदा करे हमेशा इकबाल बुलंद रहे ऐसे हमारे छोटे सरकार का।
भारतीयों के बीच नए साल का स्वागत
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रोचेस्टर में इंडिया कम्युनिटी सेंटर वह स्थान है , जहां पर भारतीय खास अवसरों पर इकट्ठे होकर अमेरिका में भी अपने देश का एहसास कराते हैं। दीपावली में भी यहां पर कार्यक्रम हुए थे ।
नए साल के स्वागत में होने वाले जलसे में शरीक होने के लिए हमने पहले से ही टिकट खरीद रखी थी। हालांकि दीपावली की तुलना में इस बार का टिकट महंगा था । शायद यही वजह थी कि भीड़ भी पहले से कुछ कम थी।
अपने देश में ना सही पर अपने देशवासियों के बीच नए साल के जश्न में शामिल होना महत्वपूर्ण तो है ही।
आयोजन स्थल वातानुकूलित हाल था। यहां विविध सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अलावा खाने-पीने की व्यवस्था थी। दीपावली की तरह ही इस बार भी हिंदी सिनेमा के गीत और नृत्य आकर्षक थे । पर इन पर लिखने का मतलब उनका पिष्टपेषण ( दोहराव ) करना मात्र है।
पर आगे बढ़ने से पूर्व एक-दो प्रसंगों की चर्चा जरूर करूंगा। जैसे एक प्रतियोगिता के पूर्व बताया गया कि आपसे जो भी पूछा जाएगा उसका गलत उत्तर बताना है। लेकिन जिससे पूछा गया कि आपका नाम, तो उन्होंने सही वाला बता दिया । इसी तरह कहां से आए हैं इसका उत्तर भी किसी ने सही सही बताया।
एक और मिसाल देखिए- एक बच्चे से गाने के लिए उद्घोषक ने कहा तो उसने जन-गण – मन गाना शुरू कर दिया। इस असहज स्थिति में कुछ लोग सीट से खड़े होने लगे । यह तो हुई हंसने और हंसाने वाली बातें। इससे आगे बढ़ते हैं।
नए साल के जश्न में ठंडा और गर्म दोनों तरल पेय उपलब्ध थे। चाहे तो कोक आदि से काम चलाइए या अपनी पसंद का ब्रांड चुन लीजिए । खुशी का मौका है फिर कैसा संकोच । इसके बाद भी शालीनता अपनी जगह पर कायम रहेगी।
खाने में खा गए गच्चा
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अंत में खाने पर विमर्श। टेबल पर खाद्य सामग्री सजी थी। यद्यपि किसी पर व्यंजन का नाम नहीं लिखा था। लाइन में लगकर मैंने भी अपनी प्लेट में सुरुचिपूर्ण व्यंजन रखना शुरू कर दिया ।
अभी दो-तीन आइटम ही रखे थे कि पत्नी ने बताया कि मैंने प्लेट में चिकन भी सजा रखा है। मैं ठहरा शाकाहारी प्रजाति वाला। और इस मामले में जैनियों से कम नहीं हूं । पर यहां गच्चा खा गया ।
अब क्या करें, किसी को इसे देने की पेशकश करना भी अशालीन बर्ताव करना होगा। कशमकश के बीच बस एक ही रास्ता बचा था कि चुपचाप इसे कूड़ेदान के हवाले कर दिया जाए। मैंने तो प्लेट बदलकर भोजन का लुत्फ भी लिया, लेकिन पत्नी तो मेरी प्लेट देखकर ही अपना भोजन ना कर सकी।
आखिर इसमें मेरा क्या दोष है ? उसने गुलाब जामुन और रसमलाई से काम चला लिया । बहुत लंबी हो रही पतंग की डोर को अब यही समेेटते हैं ।
क्रमश: ………-लेखक आशुतोष पाण्डेय अमर उजाला वाराणसी के सीनियर पत्रकार रहे हैं, इस समय वह अमेरिका घूम रहे हैं,उनके संग आप भी करिए दुनिया की सैर

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