गांधारी की आँख पर काली पट्टी तामसिक श्रद्धा सिद्ध हुई
।।गांधारी की आँख पर काली पट्टी तामसिक श्रद्धा सिद्ध हुई।।
स्वामी मैथिलीशरण ने ज्ञान दीपक की मार्मिक व्याख्या प्रस्तुत की,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवचन का छठवाँ दिन
जिस प्रकार हवन कुण्ड के निर्माण में तीन भागों में नीचे से ऊपर क्रमश:काली, लाल और सफ़ेद रंग की पट्टी बनाई जातीहै, ये तीनों पट्टियाँ तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण की प्रतीक होती हैं । उसी तरह साधक को अपने जीवन में योग कीअग्नि में बैराग्य के मक्खन को तपाना चाहिए ताकि बैराग्य के मक्खन में जो ममता का पानी बाला भाग है (जो हमारा है वहसब ठीक-जो दूसरा कर रहा है वह सब गलत ) वह खट्टा पानी भी जल जाये और शुद्ध घी ही बचे।तब विज्ञान रूपी बुद्धिशुद्ध घी का निर्माण करती है।और साधक चित्त के दिये को समता की दियटि के ऊपर रख देता है।
महाभारत में दुर्योधन की माँ गांधारी ने सांसारिक दृष्टि से बहुत बड़ा त्याग किया, कि यदि मेरे पति धृतराष्ट्र को आँखों सेदिखाई नहीं देता है तो मैं भी अपनी आँखों के ऊपर पट्टी बाँध लेती हूँ, और मैं भी संसार को नही देखुँगी, गांधारी का यहनिर्णय उसको वर्तमान में तो बहुत प्रख्यात कर देता है,पर हमारे पुराण जब संसार के इतिहास में विवाहिता होते हुए भीजिनको पंच कन्याओं के रूप में गिनाते हैं तो उनमें कुँती,अहल्या,मंदोदरी,तारा,और द्रौपदी का नाम लिखा गया, पंचकन्याओं में गांधारी का नाम नहीं लिखा गया।
इसका तात्पर्य है जिनके जीवन का योग भगवान से रहा, भले ही मंदोदरी रावण की पत्नी थी,तारा बाली की, और अहिल्याका पातिवृत इन्द्र के द्वारा नष्ट कर दिया गया, कुंती के पुत्र सूर्य के अंश से जन्म लेते हैं,द्रौपदी के पाँच पती हैं,पर इनकानाम पंच कन्याओं के रूप में सम्पूज्य है, वे सब कन्यायें बताई गई, देवी बताई गईं और जिन्होंने अपनी लौकिकआत्मप्रशंसा के लिए आँख में पट्टी बाँध ली उन्होंने भगवान को ही श्राप दे दिया।
स्वामी मैथिलीशरण जी ने कहा कि हम लौकिक दृष्टि से आत्म प्रसिद्धि के लिए क्या कर रहे हैं, महत्वपूर्ण तो यह है किहमारा ज्ञान, भक्ति, कर्म सब भगवद्विषयक है या नहीं ।
गांघारी अपने परम धर्म के दूध को स्वधर्म नहीं बना सकीं, प्राणी मात्र का धर्म है कि वह अपने जीवन के समस्त गुणों कायोग भगवान से जोड़कर सुयोग बनाले, नहीं तो सारी उपलब्धि बिपरीत हो जाती है।
जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू जहँ नहिं राम प्रेम परिधानू ।
सो सुख धरम करम जरि जाऊ, जहँ न राम पद पंकज भाऊ।।