विद्रोही कवि काज़ी नज़रुल इस्लाम की जन्मभूमि से भोजपुरी फ़िल्म स्टार पवन सिंह नहीं लड़ेंगे चुनाव
कोलकाता: भाजपा ने जिन चार भोजपुरी अभिनेताओं पर दांव लगाया है उसमें से तीन दिनेश लाल यादव निरहुआ, मनोज तिवारी और रवि किशन पहले से ही भाजपा के सांसद हैं। वहीं भोजपुरी के पावर स्टार पवन सिंह को भाजपा ने पश्चिम बंगाल के आसनसोल सीट से चुनाव मैदान में उतारने की घोषणा की है।लेकिन, पवन सिंह ने इस सीट से लोकसभा चुनाव लड़ने में असमर्थता जताई है। उन्होंने सोशल मीडिया एक्स हैंडल के जरिए ऐलान किया कि वह इस सीट से चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। पवन सिंह ने रविवार को एक्स पर लिखा, ”भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का दिल से आभार प्रकट करता हूं। पार्टी ने मुझ पर विश्वास कर आसनसोल का उम्मीदवार घोषित किया लेकिन किसी कारणवश मैं आसनसोल से चुनाव नहीं लड़ पाऊंगा।” उन्होंने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा को अपना यह संदेश टैग किया है। इससे पहले शनिवार को पवन सिंह ने भाजपा द्वारा आसनसोल से लोकसभा का टिकट दिए जाने पर लिखा था, ”शीर्ष नेतृत्व को दिल से धन्यवाद।”उन्होंने अपने ट्वीट में पीएम नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, भाजपा महासचिव विनोद तावड़े का आभार व्यक्त किया था।पवन सिंह बिहार के आरा के रहने वाले हैं। भाजपा ने उन्हें पश्चिम बंगाल के आसनसोल सीट से टिकट दिया था। फिलहाल यहां से शत्रुघ्न सिन्हा तृणमूल कांग्रेस से सांसद हैं। हालांकि, टिकट मिलने के बाद पवन सिंह ने ट्वीट कर कहा, ‘पार्टी ने मुझ पर विश्वास करके आसनसोल का उम्मीदवार घोषित किया लेकिन किसी कारणवश मैं आसनसोल से चुनाव नहीं लड़ पाऊंगा।’ इस सब के बाद आसनसोल चर्चा में है। आसनसोल कोलकाता के बाद राज्य का सबसे बड़ा शहर है। देश-दुनिया में आसनसोल को काज़ी नज़रुल इस्लाम की जन्मभूमी के तौर पर भी जाना जाता है। वो काज़ी नज़रुल इस्लाम जो पूरी दुनिया में ‘विद्रोही कवि’ के नाम से मशहूर है। उनकी रचनाएं कितनी प्रभावशाली थी, यह इस बात से समझा जा सकता है कि बांग्लादेश के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने उन्हें अपने साथ ले जाने के लिए एडी-चोटी का जोर लगा दिया था। अजान भी दी और कृष्ण कविताएं भी लिखी: काज़ी नज़रुल इस्लाम का जन्म 24 मई 1899 को पश्चिम बंगाल के आसनसोल के पास चुरुलिया गांव में हुआ था। उनके पिता फकीर अहमद एक मस्जिद में इमाम थे। उनकी शुरुआती तालीम मस्जिद द्वारा संचालित मदरसे में हुई। जब वो सिर्फ 10 साल के थे, उनके पिता की मौत हो गई। परिवार को सपोर्ट करने के लिए नजरूल पिता की जगह काम करने लगे। इस दौरान उन्होंने मुअज़्ज़िन का काम भी किया। अज़ान देकर लोगों को मस्ज़िद की तरफ बुलाने वाले को मुअज़्ज़िन कहते हैं। कवि नजरुल इस्लाम का गीत-संगीत में शुरुआत से रुची थी।चाचा फजले करीम की संगीत मंडली का हिस्सा बनकर उन्होंने अपनी कला को और निखारा। नज़रुल मंडली के लिए गाने लिखा करते थे। उन्होंने बांग्ला और संस्कृत भाषा सीखी। इस दौरान न सिर्फ उन्होंने संस्कृत में पुराण पढ़े बल्कि शकुनी का वध, युधिष्ठिर का गीत, दाता कर्ण जैसी नाटक भी लिखे। नज़रुल इस्लाम ने कृष्ण भक्ति पर कविताएं भी लिखीं थी। फौज में शामिल हुए लेकिन लिखना नहीं छोड़ा: जब वो बालिग हुए तो वो फौज में भर्ती हो गए। 1917 से 1920 तक वो फौज में रहे।वह प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान डबल कंपनी नाम की रेजिमेंट का हिस्सा थे। युद्ध खत्म होने के बाद नज़रुल की रेजिमेंट को कराची भेज दिया गया। वहां वो खाली समय में रवींद्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र चटर्जी , चट्टोपाध्याय जैसे बांग्ला लेखकों को पढ़ा करते थे। इसी दौरान उनके अंदर लिखने की चाह जगी। कराची में रहते हुए उनकी पहली कविता ‘मुक्ति’ छपी।युद्ध खत्म होने पर उनकी रेजिमेंट खत्म कर दी गई और वह वापस कोलकाता लौट आए। कोलकाता आकर वो पत्रकारिता में जुड़ गए। उन्होंने कविताएं लिखना जारी रखा। 1922 में उनकी ‘विद्रोही’ कविता ने काज़ी नज़रुल को मशहूर कर दिया। देखते ही देखते यह कविता अंग्रेजी राज का विरोध कर रहे क्रांतिकारियों का प्रेरक गीत बन गई। इसके बाद नज़रुल ने धूमकेतु नाम से एक मैगज़ीन भी शुरू की। लेकिन अपने बागी रचनाओं की वजह से पुलिस ने मैगजीन के दफ्तर पर रेड कर दी। अदालत ने नजरूल को जेल की सजा सुनाई गई। हालांकि, जेल में भी वह साहित्य पढ़ते-लिखते रहे। लाइलाज बीमारी में गई आवाज: काज़ी नज़रुल इस्लाम को लंबा रचनात्मक सफर नसीब नहीं हुआ।1942 में 43 साल की उम्र में वो पिक नाम की बीमार का शिकार हो गए। यह एक दुर्लभ लाइलाज न्यूरोडीजेनेरेटिव रोग था। बीमारी में उनकी आवाज और याददाश्त दोनों चली गई। उनकी तबियत खराब ही होती चली गई। 1952 आते-आते तो ऐसे हालात हो गए कि उन्हें मेंटल हॉस्पिटल में भर्ती कराना पड़ा। अगले बीस साल उन्होंने अपनी बीमारियों से जूझते हुए काटे। 1962 में पत्नी के देहांत के बाद वो अकेले पड़ गए। भले ही उन्होंने सालों से कुछ नया नहीं लिखा था, लेकिन कई लोग तब भी उनकी रचना के दिवाने थे। ऐसी ही एक प्रशंसक थे बांग्लादेश के तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान। काज़ी इस्लाम को ढाका ले जाना चाहते थे बांग्लादेश प्रधानमंत्री: फरवरी 1972 के पहले सप्ताह में नए स्वतंत्र हुए बांग्लादेश के प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान कलकत्ता पहुंचे थे। वो राजकीय अतिथि के तौर पर आए थे। यहां उन्होंने भारत सरकार से आग्रह किया कि वो उन्हें कवि काज़ी नज़रुल इस्लाम को अपने साथ ढाका ले जाने दे। रिपोर्ट के मुताबिक, कवि के दो बेटों, काज़ी सब्यसाची और काज़ी अनिरुद्ध को भी सूचित किया कि बांग्लादेश कवि नज़रुल को अपने यहां ले जाकर उनका सम्मान करना चाहता है। फरवरी से मई के दौरान, दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने इसको लेकर चर्चा की। बीमारी की वजह से कवि खुद निर्णय लेने की स्थिति में नहीं थे, इसलिए भारत सरकार ने कवि के परिवार के सदस्यों से इस बारे में बात की। अंत में कवि नजरूल को ढ़ाका ले जाने की इजाजत मिल गई। ऐसा पहली बार ही हुआ था कि किसी देश ने अपने नए पड़ोसी देश को अपने यहां के किसी कवि को भेजा हो। बांग्लादेश ने नज़रुल को अपना राष्ट्रकवि घोषित किया। वहां भी कवि काज़ी का इलाज चलता रहा लेकिन सेहत में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ। पश्चिम बंगाल में जन्मे नज़रूल ने 29 अगस्त 1976 को बांग्लादेश में आखिरी सांस ली। ढाका यूनिवर्सिटी के कैम्पस में उन्हें दफन कर दिया गया। भारत सरकार ने नज़रुल इस्लाम को पद्म भूषण और बांग्लादेश सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय कवि का सम्मान दिया। रिपोर्ट अशोक झा