गोरखा रेजीमेंट की स्थापना की वर्षगांठ, जान ले इसके शौर्य की पूरी कहानी
दार्जिलिंग से अशोक झा
गोरखा और गोरखा रेजीमेंट की बात इस लोकसभा चुनाव में सुर्खियां बटोर रहा है। कहते है की कोई व्यक्ति अगर कहता है कि मौत से उसे डर नहीं लगता तो या वह झूठ बोल रहा है या फिर गोरखा है। फील्ड मार्शल जनरल एसएचएफजे मानेकशॉ की कही यह बात आज भी उतनी ही सच है। गोरखा सिपाहियों की वीरता की कहानियां पूरी दुनिया में मशहूर हैं। पाकिस्तान और चीन तक इन्हें अपनी सेना में शामिल करना चाहते हैं। यहां तक कि भारत की गुलामी के वक्त इनकी वीरता के आगे अंग्रेज भी नतमस्तक हो गए और बाकायदा इनके नाम पर एक रेजीमेंट बना डाली।आज भारतीय सेना में गोरखाओं की भर्ती सात गोरखा रेजीमेंट में होती है। ये सातों रेजीमेंट मिलकर 43 बटालियन बनती हैं। गोरखाओं की भर्ती के लिए दो गोरखा रिक्रूटमेंट डिपो एक पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग और दूसरा उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में है। भारत से इन रेजीमेंट में भर्ती होने वाले गोरखा उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, दार्जिलिंग, असम और मेघालय के होते हैं। अग्रेजों ने गोरखाओं पर कर दिया था हमला: यह साल 1814 की बात है. भारत की सत्ता पर काबिज अंग्रेजों की कंपनी यानी ईस्ट इंडिया कंपनी पड़ोसी देश नेपाल पर भी कब्जा करना चाहती थी। भारत में तो उसकी जड़े गहरी हो ही रही थीं। धीरे-धीरे अंग्रेजों ने सरहदों की ओर खिसकना शुरू कर दिया था। 31 अक्तूबर को ब्रिटेन के 3500 सैनिकों ने गोरखाओं के किले पर हमला कर दिया, जो उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के पास स्थित है। खलंगा नाम का यह किला आज भी एक महीने तक चले भीषण नालापानी युद्ध का गवाह है।धनुष-बाण, खुखरी और पत्थरों से बने हथियार लेकर भारी पड़े थे गोरखा: अंग्रेजों के पास भारी भरकम फौज थी, जिसके पास तोप और गोला-बारूद थे तो उनके सामने गोरखा थे, जिनके हाथों में धनुष-बाण, खुखरी और पत्थरों से बने हथियार थे। इसके बावजूद केवल 600 गोरखा सैनिकों ने नालापानी के पहाड़ पर ब्रिटेन की सेना के तीन हमलों को नाकाम किया। इसमें नेपाली बच्चों और महिलाओं ने भी अपने जवानों का साथ दिया और अंग्रेजों से दो-दो हाथ किया था। बार-बार की कोशिशें नाकाम होने पर साल भर में ही अंग्रेजों को समझ आ गया था कि यह हमला उल्टा पड़ रहा है। हालांकि, अंग्रेजों की सेना में जवानों की अधिक संख्या थी और उनके पास धन की भी कमी नहीं थी. ऐसे में गोरखाओं के लिए भी अधिक समय तक टिक पाना मुश्किल था।शुरुआती दौर में गोरखा रेजीमेंट के पास धनुष-बाण, खुखरी और पत्थरों से बने हथियार थे। इसके बावजूद अंग्रेजों की सेना को बड़ा नुकसान हुआ।
अंग्रेजों की सेना के मेजर जनरल रॉबर्ट रोलो जिलेस्पी समेत 800 सैनिक मारे गए थे : रिपोर्ट में बताया गया है कि इस युद्ध में अंग्रेजों की सेना के मेजर जनरल रॉबर्ट रोलो जिलेस्पी समेत 800 सैनिक मारे गए थे। इस पर ब्रिटिश सेना ने खलंगा के किले में पानी की आपूर्ति रोक दी थी. इससे गोरखाओं की परेशानी बढ़ने लगी तो नेपाली सेना के कमांडर बलभद्र कुंवर ने खुद नालापानी छोड़ दिया. उनके अपनी सेना के साथ जाने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने नालापानी में दो स्मारक बनवाए थे। एक पर अंग्रेजों की सेना के मेजर जनरल जिलेस्पी का नाम लिखा गया और दूसरे पर बलभद्र कुंवर का। बलभद्र कुंवर को अंग्रेजों ने वीर दुश्मन की उपाधि दी थी।
सुगौली की संधि के तहत हुआ था गोरखा रेजीमेंट का आगाज: इस युद्ध के बाद साल 1815 में ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के राजा के बीच सुगौली की संधि हुई। इसके अनुसार नेपाल के कुछ हिस्सों को ब्रिटिश भारत में शामिल किया गया।।काठमांडू में एक ब्रिटिश प्रतिनिधि की नियुक्ति की गई। गोरखाओं की वीरता से प्रभावित अंग्रेजों ने इसी साल गोरखा रेजीमेंट की शुरुआत की। तब इसका नाम नसीरी रेजीमेंट था। बताया जाता है कि जो टोपी आज गोरखा सैनिक पहनते हैं, वह सबसे पहले बलभद्र कुंवर ने ही पहनी थी। आज भी गोरखा सैनिक अपने साथ यह टोपी और खुखरी रखते हैं। बलभद्र कुंवर के बारे में रिपोर्ट में बताया गया है कि साल 1824 में अफगानिस्तान में अंग्रेजों की ओर से लड़ाई के दौरान बलभद्र कुंवर शहीद हुए थे। भारतीय सेना में गोरखाओं की भर्ती सात गोरखा रेजीमेंट में होती है।
पहले स्वाधीनता संग्राम में क्रांतिकारियों के खिलाफ लड़ना पड़ा:
पहले भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान साल 1857 में गोरखा सैनिक ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन थे, इसलिए अंग्रेजों की तरफ से क्रांतिकारियों के विरुद्ध लड़े थे। अंग्रेजों की ओर से दोनों विश्वयुद्ध भी लड़े और इनकी वीरता देखकर अंग्रेजों ने इन्हें नया नाम दिया मार्शल रेस। साल 1947 में भारत की आजादी के वक्त गोरखा रेजीमेंट के बंटवारे का मुद्दा भी उठा। तब तक 10 गोरखा रेजीमेंट तैयार हो चुकी थीं। तब गोरखा सोल्जर पैक्ट1947 हुआ, जिसके अनुसार इस बात का फैसला गोरखाओं पर ही छोड़ गया था कि वे किसके साथ रहेंगे।तत्कालीन 10 में से छह रेजीमेंट ने भारतीय सेना को अपने लिए चुना। चार रेजीमेंट अंग्रेजों के साथ गईं, जो आज भी ब्रिटिश सेना का हिस्सा हैं। इस समझौते में यह भी तय हुआ था कि भारत और ब्रिटेन की सेनाओं में गोरखा सैनिकों की नियुक्ति नेपाली नागरिक के तौर पर ही होगी। ऐसा ही आज भी होता है। भारत और नेपाल ही नहीं, यूके की सेना में भी भर्ती होते: नेपाल के नागरिक भारत और यूनाइटेड किंगडम की सेना में आज भी नेपाली नागरिक के रूप में जवान और अधिकारी के तौर पर शामिल होते हैं। नेपाल का कोई भी नागरिक भारत की राष्ट्रीय रक्षा अकादमी या संयुक्त रक्षा सेवा परीक्षा में हिस्सा ले सकता है। नेपाली सेना भी अपने अधिकारियों को प्रशिक्षण के लिए भारतीय सैन्य अकादमियों और युद्ध कॉलेजों में भेजती है। आजादी के बाद पाकिस्तान ने भी गोरखाओं को अपनी सेना में शामिल होने का लालच दिया। साल 1962 युद्ध के बाद चीन ने भी गोरखाओं से अपनी सेना में शामिल होने के लिए कहा पर नेपाल ने स्पष्ट मना कर दिया था।
वहीं नेपाल के गोरखाओं की भर्ती के लिए भारत, यूनाइटेड किंगडम और नेपाल संयुक्त रूप से भर्ती रैली की तारीख तय करते हैं। उस दिन नेपाल में तीनों देशों की ओर से लिखित और शारीरिक परीक्षा होती है। इस परीक्षा को पास करने वाले गोरखा तीनों देशों की सेना में भर्ती किए जाते हैं।