लाल बॉर्डर और सफेद साड़ी वाले लुक में महिलाएं पहुंच रही पूजा पंडाल

सिलीगुड़ी: नवरात्रि का त्योहार देश भर में अलग-अलग तरीके से मनाया जा रहा है। बंगाल में नवरात्रि का त्योहार मुख्य रूप से पांच दिन का मनाया जाता है। आज नवमी है। नवरात्रि के बाद दशहरे वाले दिन खत्म होता है। जिसमे बंगाल में देवी दुर्गा के बड़े पंडाल सजाए जाते हैं। जहां पर सारी महिलाएं दशहरे वाले दिन इकट्ठा होकर सिंदूर खेला खेलती हैं। वहीं इस त्योहार को सेलिब्रेट करने के लिए ज्यादातर महिलाएं बिल्कुल ट्रेडिशनल लाल बॉर्डर और सफेद साड़ी वाले लुक में तैयार होती हैं। बंगाली महिलाओं का ये ट्रेडिशनल लुक बेहद खूबसूरत लगता है और लगभग हर महिला को इसकी तरफ आकर्षित करता है। लेकिन क्या आप जानती हैं कि आखिर क्यों महिलाएं सिंदूर खेला के लिए बिल्कुल ट्रेडिशनल साड़ी में तैयार होती हैं। बंगाल में दुर्गा पूजा के दौरान बड़े बड़े पंडाल बनाएं जाते हैं। बंगाल में महिलाएं लाल बॉर्डर वाली सफेद साड़ी पहने नजर आती हैं। रेड बॉर्डर वाली व्हाइट महिलाएं बहुत ही खूबसूरत दिखती हैं। यह साड़ी खास कपड़े की बनती है जिसे जामदानी कहते है जामदानी साड़ी हाथ से बुन कर बनाया जाता है। यह कॉटन और सिल्क की साड़ी होती है। क्या आप जानते बंगाली महिलाएं रेड बॉर्डर वाली व्हाइट साड़ी क्यों पहनती हैं। दरअसल, देवी दुर्गा को बंगाल में बेटी मानते हैं, जो पृथ्वी पर पांच दिनों की सैर करने आती हैं। इसलिए ये त्योहार सुहागन बेटियों के लिए बेहद खास है। वो दुर्गा पूजा के पांच दिनों में मायके आती हैं। और पांचवे दिन यानी दशहरे वाले दिन मां दुर्गा को विदाई देती हैं। इस दौरान सारी सुहागन महिलाएं इकट्ठा होकर सिंदूर लगाती हैं और खेलती हैं। जिसके लिए ज्यादातर महिलाओं को सफेद और लाल रंग के बॉर्डर वाली ट्रेडिशनल साड़ी पहनना पसंद होता है। क्योंकि ये साड़ी ज्यादातर महिलाएं अपनी शादी के दौरान भी पहनती हैं। हालांकि समय के साथ अब महिलाएं कई तरह की साड़ी को खरीदती हैं। लेकिन आज भी उनकी लिस्ट में सफेद रंग की एक साड़ी जरूर होती है। जिसका बॉर्डर लाल होता है। पहले के समय में ये लाल रंग के बॉर्डर वाली साड़ी जामदानी कपड़े की होती थी। जो खास किस्म के धागों को बुनकर बनाई जाती थी। जिसमे कॉटन के धागे शामिल होते है। प्रत्येक वर्ष शारदीय नवरात्रि के समय पश्चिम बंगाल में बड़े ही हर्षोल्लास के साथ दुर्गा पूजा का आयोजन किया जाता है। नवरात्रि के नौ दिनों तक मां शक्ति की पूजा-अर्चना की जाती है। पश्चिम बंगाल में जगह-जगह पर भव्य पंडाल सजाए जाते है। बंगाल के विभिन्न शहरों में दुर्गा पूजा की रौनक देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। भव्य पंडाल और आकर्षक मूर्तियों के साथ बंगाली समाज देवी दुर्गा की पूजा-आराधना करते हैं, जिस दिन मां दुर्गा को विदाई यानी जिस दिन मां दुर्गा की मूर्तियां विसर्जन के लिए ले जाई जाती है, उस दिन बंगाल में सिंदूर उत्सव मनाया जाता है। विदाई उत्सव के दिन विजयदशमी भी होती है। इस दिन शादी-शुदा महिलाएं पान के पत्ते से मां दुर्गा को सिंदूर अर्पित कर एक दूसरे को सिंदूर लगाती हैं और एक दूसरे के सुहाग की लंबी आयु की शुभकामनाएं देती हैं। ऐसा माना जाता है, कि मां दुर्गा जब अपने मायके से विदा होकर ससुराल जाती हैं, तो सिंदूर से उनकी मांग भर पान और मिठाई खिलाया जाता है। इसी वजह से महिलाएं एक दूसरे की मांग में सिंदूर लगाती हैं। इतना ही नहीं, बल्कि कई महिलाएं अपने चेहरे पर भी सिंदूर लगाती हैं। सिंदूर विवाहित महिलाओं के सुहाग की निशानी है। इस अनुष्ठान के जरिए महिलाएं एक दूसरे के लिए सुखद और सौभाग्य वैवाहिक जीवन की कामना करती हैं।
जानें कब शुरू हुआ सिंदूर खेलने की परंपरा
माता के विदाई के दिन सिंदूर खेलने की परंपरा कोई नई नहीं, बल्कि यह पंरपरा सदियों पुरानी है। मुख्य रूप से सिंदूर खेला परंपरा का बंगाली समाज में बहुत महत्व है। इस खेल को लेकर ऐसी मान्यता है, कि जब मां दुर्गा साल में एक बार अपने पीहर आती हैं। मायके आने के बाद मां 10 दिनों तक रूकती हैं, जिसको दुर्गा पूजा के रूप में मनाया जाता है। आपको बता दें,कि सबसे पहले सिंदूर खेला की परंपरा पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के कुछ हिस्सों में शुरू हुई थी। ऐसा कहा जाता है कि आज से करीब 450 साल पहले यहां की महिलाओं ने मां दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, कार्तिकेय और भगवान गणेश की पूजा के बाद उनके विसर्जन से पूर्व उनका श्रृंगार किया और मीठे व्यंजनों का भोग लगाया। इसके साथ ही सुहागन महिलाएं भी सोलह श्रृंगार कर तैयार होती हैं। तैयार होने के बाद सभी महिलाएं माता दुर्गा को लगाए गए सिंदूर से अपनी और दूसरी विवाहित महिलाओं की मांग भरी।
भोग अनुष्ठान
प्रतिमा विसर्जन के दिन अनुष्ठान की शुरुआत महाआरती से की जाती है। आरती के बाद देवी मां को शीतला भोग अर्पित किया जाता है। कोचुर शाक, पंता भात और इलिश माछ को भोग के रूप में शामिल किया जाता है। पूजा के बाद इस भोग को प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। पूजा के दौरान माता के ठीक सामने एक दर्पण को रखा जाता है, ताकि भक्त माता रानी के चरणों के दर्शन कर पाएं। दर्पण में माता के चरणों के झलक दिखने को लेकर यह मान्यता है कि जिसे मां दुर्गा के चरण दर्पण में दिख जाते हैं उन्हें आर्शीवाद की प्राप्ति होती है। देवी बोरोन की बारी
भोग अनुष्ठान के बाद देवी बोरोन किया जाता है, जिस तरह से घर से विदा होने पर बहन-बेटियों को खाने-पीने के सामान के साथ अन्य चीजें भेंट स्वरूप दी जाती हैं। वैसे ही सुहागन महिलाएं देवी को अंतिम विदाई के लिए क्रम में खड़ी होती हैं और उनकी बोरान थाली यानी पूजा की थाल में सुपारी, पान का पत्ता, सिंदूर, आलता, अगरबत्ती और मिठाइयां होती हैं। देवी बोरान में महिलाएं अपने हाथों में पान का पत्ता और सुपारी लेती हैं और मां के चेहरे को पोंछती हैं। माता के चेहरे को पोंछने के बाद मां को सिंदूर लगाती है। सिंदूर लगाने के बाद महिलाएं शाखा और पोला (लाल और सफेद चूडि़यां) माता को पहनाकर विदाई करती हैं। इस प्रथा को ही ‘देवी बोरन’कहा जाता है। @
रिपोर्ट अशोक झा

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