सैरसपाटा : काशी के नामचीन पत्रकार आशुतोष पाण्डेय की पढ़िए अमेरिका के रोचेस्टर की डायरी
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सैरसपाटा : रोचेस्टर की डायरी : आमुख
लगभग 5 वर्ष से मेरी बड़ी बिटिया अमेरिका में रहती है। इस अवधि में उसने 3 साल की एमडी की पढ़ाई भी पूरी कर ली। जीवन के इतने साल उसने अमेरिका में बिताए हैं । बावजूद इसके कभी कोलंबस द्वारा खोजे गए इस नूतन देश के प्रति मेरे मन- मस्तिष्क में कोई विशेष आकर्षण नहीं था। भले ही अमेरिका विश्व की महाशक्ति और सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था क्यों ना हो, पर अपने को इससे क्या मतलब!
हालांकि ऐसा नहीं था कि बिटिया ने कभी इसके लिए प्रेरित या आमंत्रित नहीं किया । लेकिन मैंने प्रेरणा ग्रहण करने में कई साल लगा दिए । मेरे लिए अमेरिका की यात्रा इतनी आसान भी नहीं थी । इसकी वजह भी मेरे हिसाब से दमदार थी।
चूंकि हवाई जहाज की यात्रा न तो मैंने पहले कभी की थी और न ही इसको लेकर मन में कोई रोमांच ही था। जबकि मैंने भी अन्य बच्चों की तरह आसमान में उड़ते हुए जहाज खूब देखे थे।
महज सोचने भर से ही जी घबराने लगता था कि इतने समय तक हवा में रहना होगा। यहां बात 1 घंटे या 20 घंटे यात्रा की नहीं थी । अपितु जहाज के भीतर जाना ही नहीं है , हिमालय जैसी अडिग यह दृढ़ता बाधक बन रही थी। वैसे यात्रा करने में कोई हिचकिचाहट कभी नहीं होती , लेकिन यहां मामला जहाज और विदेश का था।
जमीन पर यात्रा करनी होती, तो मैं कभी पीछे रहने वाला नहीं था ।जबकि इसके उलट पत्नी की चित्तवृत्ति अलग तरह की थी । वह तो बेटी- दामाद की बुलावे पर जाने को तैयार रहती थी ।
पासपोर्ट तो हमने 2016 में ही बनवा लिया था , किंतु यह सोचकर तो नहीं बनवाया था कि जहाज से यात्रा भी करनी है और विदेश जाना है । मेरे पास उदाहरण भी कम नहीं थे ।
कई लोग पासपोर्ट जरूर बनवा लेते हैं , लेकिन वह कहीं आते-जाते नहीं। इस बीच कालचक्र अपनी यात्रा करता रहा।
मेरी इस मनोवृत्ति में बदलाव कैसे हुआ , यहां इस प्रसंग की चर्चा करना पाठकों को शायद रुचिकर लग सकता है ।
मेरे एक बहुत करीबी हैं वसुमित्र उपाध्याय जी । बैंक के बड़े अफसर रहे हैं। दिल्ली के द्वारिका क्षेत्र में रहते हैं । उनकी पत्नी और मेरी पत्नी बचपन की सहेलियां रही हैं ।
हम दोनों के पास दो बेटियां हैं । कभी वाराणसी में हम दोनों की ससुराल आमने-सामने हुआ करती थी। समानता के और भी आधार हैं। मसलन दोनों की एक बेटी और दामाद अमेरिका में रहते हैं । दोनों की ही दूसरी बेटी दिल्ली में रहती है। कुल मिलाकर संबंध पुराना है ।
दिल्ली आना और द्वारका के सेक्टर 23 में न जाना लगभग असंभव जैसा ही था । उपाध्याय जी कई बार अमेरिका जा चुके हैं और मुझे भी अपनी अमेरिका यात्रा के बारे में बताते और जाने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे ।
अब कैलेंडर में 2019 का साल चल रहा था । अमेरिका जाने को लेकर आंतरिक मंथन तो जारी ही था। इसी साल वह दिन भी आया ,जब हम सुबह – सुबह वसुमित्र जी की कार से वीजा के लिए दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास पहुंचे ।
अमेरिकी दूतावास के बाहर इतनी लंबी लाइन लगी थी जिसे देखकर यह समझ में आया कि भारतीयों में अमेरिका जाने को लेकर कितना आकर्षण है ।
जबकि अन्य देशों के दूतावास भी आसपास हैं , पर वहां बाहर कोई हलचल नहीं दिखी। दूतावास के भवन में केवल वीजा के अभ्यर्थियों को ही प्रवेश मिल रहा था। जहां पर उनका इंटरव्यू लिया जाता है। लंबी लाइन में खड़े होने से मुझे इतना तो समझ में आ गया कि अमेरिकी वीजा मिलना आसान नहीं है ।
अनुमान लगाया कि 10 में से दो – चार को ही सफलता मिल पाती है अर्थात लाइन में खड़े अधिकतर लोगों को अमेरिकी दूतावास लौटा देता है। वीजा को लेकर कई लोग तनाव में दिखे। जबकि मुझे यह बिल्कुल नहीं था ।
वीजा नहीं मिला तो अपने आप ही अमेरिकी यात्रा का चांस खत्म हो जाएगा । यह कोई नौकरी के लिए इंटरव्यू तो हो नहीं रहा है फिर काहे का टेंशन ।
मेरे आगे खड़ी महिला का एकमात्र बेटा अमेरिका में ही रहता है, जब उसका वीजा आवेदन खारिज हो गया। तब भी अपने राम पर कोई फर्क नहीं पड़ा । जब वीजा ही नहीं मिलेगा , तब अमेरिकी यात्रा का प्रश्न ही खत्म हो जाएगा । यानी जान बची तो लाखों पाए वाला मुहावरा यथार्थ होता । पर मुझे घनघोर आश्चर्य तब हुआ, जब अमेरिकी दूतावास के कर्मचारियों ने कुछ मिनट के प्रश्नोत्तर के बाद हमें पास कर दिया । इस प्रकार हमारे पूरे परिवार को अमेरिका जाने का आधिकारिक अवसर मिल गया । दूतावास के बाहर निकलने पर वसुमित्र जी हमारा इंतजार करते दिखे । उन्होंने हमें मुस्कुराते देखा तो वीजा मिल जाने कीबधाई दी । साथ ही यात्रा की तैयारी के लिए कहा । लेकिन अभी भी इस यात्रा के लिए न उत्साह था और न ही तैयारी की कोई बात थी । समय ने 3 साल का फासला और तय कर लिया। 2022 में पत्नी ने यह कहना आरंभ कर दिया कि वह नाती के लिए अमेरिका जरूर जाएगी । भले ही मैं जाऊं या नहीं । हमारे बीच का विवाद कुछ उसी तरह से होता था जैसे सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच में लोकतांत्रिक व्यवस्था के मध्य देखा सुना- जाता है।
अब मेरे पास आखिरी दांव ही बचा रह गया था। चूंकि मैंने कभी हवाई यात्रा नहीं की है , इसलिए पहले स्थानीय स्तर पर यात्रा का अनुभव जुुटाया जाए । मेरे लिए यह बिल्कुल वैसा ही था जैसे कोई पहलवान अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में भाग लेने के पूर्व स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर के पहलवानों से दांंव आजमाता है । अपने इसी चिंतन के तहत विगत महाराष्ट्र यात्रा के दौरान मुंबई से हवाई यात्रा का चयन किया गया । मुंबई से वाराणसी की यात्रा महज 2 घंटे की थी । लेकिन इसने मेरे मन की झिझक को कुछ हद तक दूर करने में सहायता की।
वस्तुतः यही वह आधार भूमि थी, जिस पर आगे चलकर अमेरिकी यात्रा का सपना साकार हुआ। और नन्हे जादूगर रिवांंश से मिलने अमेरिका पहुंच गए।
क्रमश: ….
-लेखक आशुतोष पाण्डेय अमर उजाला वाराणसी के सीनियर पत्रकार रहे हैं, इस समय वह अमेरिका घूम रहे हैं,उनके संग आप भी करिए दुनिया की सैर