डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के सपनों को साकार कर रही केंद्र की सरकार
सिलीगुड़ी: डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जयंती पर आज 06 जुलाई को नमन करते हुए भाजपाइयों ने कहा कि देश की एकता को मजबूत करने में उनके अद्वितीय प्रयासों के लिए हर भारतीय ऋणी है। कहा कि डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारत की प्रगति के लिए कड़ी मेहनत की और एक मजबूत तथा समृद्ध राष्ट्र का सपना देखा। हम उनके सपनों को पूरा करने के लिए केंद्र की सरकार प्रतिबद्ध हैं।देश की एकता को और अधिक मजबूत करने की दिशा में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के ‘‘अद्वितीय प्रयासों’’ के लिए प्रत्येक भारतीय उनका ऋणी है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारत की प्रगति के लिए कड़ी मेहनत की और एक मजबूत तथा समृद्ध राष्ट्र का सपना देखा। हम उनके सपनों को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। उन्होंने भारतीय राजनीति और समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को मजबूत किया। उनके विचार और आदर्श आज भी हमें प्रेरित करते हैं। उनके आदर्शों पर चलते हुए हम एक समृद्ध और सशक्त भारत के निर्माण के लिए संकल्पित हैं। जहां हुए बलिदान मुखर्जी वो कश्मीर हमारा है” ये गगनभेदी नारा जब भी गूंजता है,हर राष्ट्रभक्त के रौंगटे खड़े हो जाते हैं, भुजाएं फड़कने लगती हैं तथा लहू में राष्ट्रभक्ति का ज्वार लावा बनकर दौड़ने लगता है। जिन अमर हुतात्मा श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम पर हम ये नारा लगता हैं। आज उन्हीं श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जन्मजयंती है।कश्मीर को पूरी तरह से भारत का हिसा बनाने के लिए तथा धारा 370 के खिलाफ आज के ही दिन डॉ. श्यामा मुखर्जी देश की धर्मनिरपेक्ष राजनीति की बलि चढ़ा दिए गए थे। दूसरे शब्दों में कहें तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी को राष्ट्रप्रेम की ऐसी क्रूर सजा मिली थी कि आज तक देश को अपने इस आदर्श की मृत्यु का रहस्य जान्ने से वंचित रखा गया है। नकली धर्मनिरपेक्ष राजनीति की आंधी तथा हिंदू विरोध की सुनामी में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कश्मीर की रक्षा के लिए स्वयं को स्वाहा कर दिया था। श्यामाप्रसाद मुखर्जी को इसलिए रहस्यमय से मौत दे दी गई थी क्योंकि वह कश्मीर में धारा 370 लगाने का ज्वलंत विरोध कर रहे थे और जब देश की सेक्यूलर सत्ता नहीं मानी तो उन्होंने कश्मीर कूच का एलान कर दिया था। भारतमाता का ये सपूत कश्मीर तो चला गया लेकिन ज़िंदा वापस नहीं लौट सका। भारत माता के इस वीर पुत्र का जन्म 6 जुलाई 1901 को एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। इनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी बंगाल में एक शिक्षाविद् और बुद्धिजीवी के रूप में प्रसिद्ध थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक होने के पश्चात श्री मुखर्जी 1923 में सेनेट के सदस्य बने। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात, 1924 में उन्होंने कलकत्ता उच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में नामांकन कराया। 1926 में उन्होंने इंग्लैंड के लिए प्रस्थान किया जहाँ लिंकन्स इन से उन्होंने 1927 में बैरिस्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की। 33 वर्ष की आयु में आप कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुए और विश्व का सबसे युवा कुलपति होने का सम्मान प्राप्त किया। मुखर्जी 1938 तक इस पद को सुशोभित करते रहे। अपने कार्यकाल में उन्होंने अनेक रचनात्मक सुधार किये तथा इस दौरान ‘कोर्ट एंड काउंसिल ऑफ़ इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस बैंगलोर’ तथा इंटर यूनिवर्सिटी बोर्ड के सक्रिय सदस्य भी रहे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी नेहरू की पहली सरकार में मंत्री थे. जब नेहरू-लियाक़त पैक्ट हुआ तो उन्होंने और बंगाल के एक और मंत्री ने इस्तीफ़ा दे दिया। उसके बाद उन्होंने जनसंघ की नींव डाली। आम चुनाव के तुरंत बाद दिल्ली के नगरपालिका चुनाव में कांग्रेस और जनसंघ में बहुत कड़ी टक्कर हो रही थी। इस माहौल में संसद में बोलते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कांग्रेस पार्टी पर आरोप लगाया कि वो चुनाव जीतने के लिए वाइन और मनी का इस्तेमाल कर रही है। विडम्बना यह है कि तात्कालीन सत्ता के खिलाफ जाकर सच बोलने की जुर्रत करने वाले डॉ. मुखर्जी को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। उससे भी बड़ी विडम्बना की बात ये है कि आज भी देश की जनता उनकी रहस्यमयी मौत के पीछे की सच को जान पाने में नाकामयाब रही है। उनका कहना था कि, “नेहरू जी ने ही ये बार-बार ऐलान किया है कि जम्मू व कश्मीर राज्य का भारत में 100% विलय हो चुका है, फिर भी यह देखकर हैरानी होती है कि इस राज्य में कोई भारत सरकार से परमिट लिए बिना दाखिल नहीं हो सकता। मैं नही समझता कि भारत सरकार को यह हक़ है कि वह किसी को भी भारतीय संघ के किसी हिस्से में जाने से रोक सके क्योंकि खुद नेहरू ऐसा कहते हैं कि इस संघ में जम्मू व कश्मीर भी शामिल है। उन्होंने इस प्रावधान के विरोध में भारत सरकार से बिना परमिट लिए हुए जम्मू व कश्मीर जाने की योजना बनाई। इसके साथ ही उनका अन्य मकसद था वहां के वर्तमान हालात से स्वयं को वाकिफ कराना क्योंकि जम्मू व कश्मीर के तात्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला की सरकार ने वहां के सुन्नी कश्मीरी मुसलमानों के बाद दूसरे सबसे बड़े स्थानीय भाषाई डोगरा समुदाय के लोगों पर असहनीय जुल्म ढाना शुरू कर दिया था। 1950 के आसपास ईस्ट पाकिस्तान में हिन्दुओं पर जानलेवा हमले शुरु हो गये। करीब 50 लाख हिन्दू ईस्ट पाकिस्तान को छोड़ भारत वापस आ गए। हिन्दुओं की यह हालत देखकर मुखर्जी चाहते थे कि देश पाकिस्तान के खिलाफ सख्त कदम उठाए। वह कुछ कहते इससे पहले जवाहरलाल नेहरु और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने समझौता कर लिया था। समझौते के मुताबिक दोनों देश के रिफ्यूजी बिना किसी परेशानी के अपने-अपने देश आ जा सकते थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी को नेहरु जी की यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आई। उन्होंने तुरंत ही कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया. इस्तीफ़ा देते ही उन्होंने रिफ्यूजी की मदद के काम में खुद को झोंक दिया। आख़िरकार कश्मीर को अलग कर दिया गया। उसे अपना एक नया झंडा और नई सरकार दे दी गई। एक नया कानून भी जिसके तहत कोई दूसरे राज्य का व्यक्ति वहां जाकर नहीं बस सकता। सब कुछ खत्म हो चुका था, लेकिन मुखर्जी आसानी से हार मानने वालों में से नहीं थे। ‘एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान नहीं चलेंगे’ के नारे के साथ वह कश्मीर के लिए निकल पड़े। नेहरु को इस बात की खबर हुई तो उन्होंने हर हाल में मुखर्जी को रोकने का आदेश जारी कर दिया। उन्हें कश्मीर जाने की इजाजत नहीं थी। ऐसे में मुखर्जी के पास गुप्त तरीके से कश्मीर पहुंचने के सिवा कोई दूसरा विकल्प न था। वह कश्मीर पहुंचने में सफल भी रहे. मगर उन्हें पहले कदम पर ही पकड़ लिया गया। उन पर बिना इजाजत कश्मीर में घुसने का आरोप लगा. एक अपराधी की तरह उन्हें श्रीनगर की जेल में बंद कर दिया गया। कुछ वक्त बाद उन्हें दूसरी जेल में शिफ्ट कर दिया गया। कुछ वक्त बाद उनकी बीमारी की खबरें आने लगी। वह गंभीर रुप से बीमार हुए तो उन्हें अस्पताल ले जाया गया। वहां कई दिन तक उनका इलाज किया गया। माना जाता है कि इसी दौरान उन्हें ‘पेनिसिलिन’ नाम की एक दवा का डोज दिया गया। चूंकि इस दवा से मुखर्जी को एलर्जी थी, इसलिए यह उनके लिए हानिकारक साबित हुई। कहते हैं कि डॉक्टर इस बात को जानते थे कि यह दवा उनके लिए जानलेवा है। बावजूद इसके उन्हें यह डोज दिया गया. धीरे-धीरे उनकी तबियत और खराब होती गई। अंतत: 23 जून 1953 को उन्होंने हमेशा के लिए अपनी आंखें बंद कर ली। मुखर्जी की मौत की खबर उनकी मां को पता चली तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने नेहरु से गुहार लगाई कि उनके बेटे की मौत की जांच कराई जाये। उनका मानना था कि उनके बेटे की हत्या हुई है। यह गंभीर मामला था, लेकिन नेहरू ने इसे अनदेखा कर दिया। हालाँकि, कश्मीर में उनके किये इस आन्दोलन का काफी फर्क पड़ा और बदलाव भी हुआ। इस कड़ी में, नेहरु का रवैया लोगों के गले से नहीं उतरा। वह मुखर्जी की मौत के वाजिब कारण को जानना चाहते थे। लोगों ने आवाजें भी उठाई, लेकिन सरकार के सामने किसी की एक नहीं चली. नतीजा यह रहा कि उनकी मौत का रहस्य उनके साथ ही चला गया। इतने सालों बाद भी किसी के पास जवाब नहीं है कि उनकी मौत के पीछे की असल वजह क्या थी? आज कश्मीर की अखंडता के उस महान रक्षक अमर बलिदानी श्यामा प्रसाद मुखर्जी को उनकी जन्मजयंती पर उनकी गाथा को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प लेता है। रिपोर्ट अशोक झा