सैर सपाटा : रोचेस्टर की डायरी7@अमेरिका में अपने देश की तरह किलोमीटर में नहीं मील में दूरी बताने का प्रचलन है । ठीक इसी तरह तापमान बताने के लिए यहां फारेनहाइट का प्रयोग किया जाता है।

सैर सपाटा : रोचेस्टर की डायरी7
रविवार हमारे लिए खास दिन था। वह इसलिए क्योंकि दोनों डॉक्टरों (ऋतंभरा- देवेश ) की छुट्टियां थीं। पर्यटन के लिए बिल्कुल उपयुक्त वातावरण को देखते हुए इस बार शहर से थोड़ा दूर तक जाने की योजना थी। दोनों की बनाई गई इस रूपरेखा पर हम पति – पत्नी को सिर्फ समय से तैयार होकर अमल भर करना था । जब मैंने जगह और दूरी का प्रसंग छेड़ा , तो देवेश जी ने बताया कि हम लेचवर्थ स्टेट पार्क चल रहे हैं। वह स्थान रोचेस्टर से लगभग 50 मील दूर है । इस पर मेरा अनुमान यही था कि कम से कम एक- डेढ. घंटे की यात्रा होनी चाहिए। एक बात यहां उल्लेख्य है कि अमेरिका में अपने देश की तरह किलोमीटर में नहीं मील में दूरी बताने का प्रचलन है । ठीक इसी तरह तापमान बताने के लिए यहां फारेनहाइट का प्रयोग किया जाता है।
दिनभर की यात्रा का अनुमान करते हुए हमने जल्द निकलने की सोची। इसलिए नाश्ता के साथ हमने भोजन वाला बर्ताव किया । सहयोग सबने किया। पत्नी ने चाय बना ली और ऋतंभरा ने पोहा। देवेश जी ने ऐसा सूप बनाया था जिसे मैंने पहले कभी नहीं पीया था । नाम पूछने पर हमारे समझने के लिए बताया कद्दू। हालांकि इसे यहां बटर नट स्क्वैश कहा जाता है।
इतना ईंधन शरीर के लिए पर्याप्त समझकर हमने यात्रा की शुरुआत की । नन्हे रिवांंश को मिलाकर कुल 5 लोग थे। जितनी कार में जगह भी थी।
खाने का थोड़ा सामान बैग में भी था। कुछ देर बाद हम शहर की बस्तियों को पीछे छोड़ते हुए आगे निकल आए ।
जिस मार्ग पर हमारी कार दौड़ रही थी, उसके दोनों तरफ खेत थे । बीच-बीच में मकान भी दिखे । जिस पर अनुमान लगाया कि यह किसानों के होंगे। यहां कई घरों के सामने कार , ट्रैक्टर और कृषि उपकरण भी दिखे । बड़े-बड़े खेतों में एक ही फसल काफी दूर तक नजर आ रही थी । अमेरिका के खेतों को देखने की बड़ी इच्छा थी।
मक्के की फसल को देखकर मैंने कार से ही उसका वीडियो भी बनाया। हरे -भरे चरागाहों में पालतू मवेशी भी दिखाई पड़े । यद्यपि सड़क पर मुझे कभी भी कोई पालतू जानवर नहीं दिखा ।
गौर करने लायक बात यह भी थी कि शहरों की तरह गांव के घर भी थे। अधिकतर मकानों की छत देखने में झोपड़ी जैसी लगती थी , पर यह घास- फूस वाली झोपड़ी नहीं थी। सभी सुविधाओं से युक्त पक्का घर था । दिन में 12 बजे घर से निकले थे। करीब सवा घंटे के उपरांत हम उस स्थान पर पहुंच गए जहां प्रकृति नैसर्गिक सौंदर्य के साथ बाहें फैलाए स्वागत के लिए आतुुर दिखी।
यह जगह हरे-भरे घास के मैदानों से युक्त था । पर मैदान समतल नहीं थे। ढलान वाली जमीन पर बच्चे भला शांत कैैसे रह सकते थे।
इसके अलावा ऊंचे – ऊंचे पेड़। पर पत्तियां अलग-अलग थीं। उन पर हरी, लाल, गुलाबी , पीली पत्तियां मानों अलंंकार की तरह सजी थीं। कोई-कोई तरुवर पत्र विहीन ठूंठे खड़े थे । पर उनके भी अकड़ में कोई कमी नहीं थी ।
बादलों से मुक्ताकाश, सूरज की चमकदार धूप, लेकिन गर्मी का नामोनिशान नहीं , हम पर्यटकों के लिए प्रत्यक्ष वरदान से कम नहीं था। यदि हम अपनी इंद्रियों को इतना सक्रिय रख सकें , तो प्रकृति सहचरी निश्चय ही हमें अपनी मोहपाश में बांधने में सक्षम है।
गाड़ी पार्किंग वाली जगह से पहली नजर में लेचवर्थ स्टेट पार्क का दृश्य कुछ इसी तरह समझ में आया। अपने देश के पर्यटन स्थलों पर अक्सर जगह-जगह गंदगी से सामना हो ही जाता है, लेकिन यहां पर जहां तक आंखें देख सकती हैं न तो कोई गंदगी दिखी , न कूड़ेदान दिखा। जगह-जगह बने हुए टायलेट जिनको देखने पर 100 में से पूरे नंबर देने का मन करता है ।
पर्यटन स्थलों के बारे में मेरी सामान्य सी आदत है कि जहां भी जानकारियों से संबंधित सूचना पट्ट लगा होता है , वहां पर ध्यान जरूर जाता है। पहले तो उसे पढ़ने की कोशिश करता हूं परंतु विस्तृत हो जाने पर मोबाइल से फोटो खींचकर आगे बढ़ जाता हूं ।
1907 में यह उद्यान बना है । कोई विलियम पी लेचवर्थ नाम के रईस थे। उन्होंने 1000 एकड. भूमि उद्यान बनाने के लिए दान में दिया था । व्योमिंग काउंटी नामक स्थान पर बने पार्क के नामकरण की वजह अब समझ में आ गई थी।
इस पार्क का विस्तार 14500 एकड़ भूमि पर किया गया है। मनोरम पार्क को पूर्व के ग्रैंड कैनियन और पूर्वी अमेरिका के सबसे सुंदर स्थानों में एक माना जाता है ।
यहां का सबसे बड़ा सम्मोहन, जिसे पर्यटक दूर दूर-दूर से देखने आते हैं, वह है पहाड़ों – चट्टानों के बीच से गुजरती जेनसी नदी द्वारा बने तीन प्राकृतिक झरने । जिन्हें यहां अपर, मिडिल और लोअर फाल का नाम दिया गया है ।
झरने के पास ही आर्चनुमा ऊंंचा परंतु छोटा सा पुल बना हुआ है। जिससे रेल गुजरती है । अभी तक मैंने रेल की पटरी तो देखी थी , लेकिन अमेरिकी ट्रेन देखने की हसरत अधूरी थी । इसलिए झरने के पास बैठे-बैठे ट्रेन आने की प्रतीक्षा भी कर रहा था ।
संयोग से मुझे एक मालगाड़ी आती देख गई । जिसका फुर्ती से वीडियो बनाने में जुट गया। यहां से खाली होकर हम अपर फाल की तरफ आगे बढ़े। झरना तो यहां ऊपर से दिख रहा था , तथापि उसे सामने से देखने के लिए दूर तक पत्थर की सीढ़ियों से नीचे की तरफ जाना जरूरी था। तभी हम ऊपर से नीचे पानी गिरते हुए देख सकते थे।
बिना गिने काफी सीढ़ियां नीचे उतरते चले गए। सीढ़ियां तो आगे भी थी। तथापि वहां तक जाने के बाद ऊपर की तरफ लौटना मेहनत वाला काम था।
इसीलिए इस स्थान पर रुक कर गिरते पानी की बौछार को देखने लगे। मन तो यही हो रहा था कि घंटा- दो घंटा यहीं बैठना चाहिए । सचमुच झरनों का संगीत सुनने के लिए सुकून भरा और चैतन्य मन होना चाहिए । जो अपने पास नहीं था।
दो और झरनों को देखने की लालसा हमें और ठहरने कैसे देती। सीढ़ियों पर तस्वीर के लिए सही स्थान तलाशते पर्यटक थे । आजकल सेल्फी लेना तो जैसे व्यसन हो गया है।
यहां से पांव उस तरफ बड़े , जहां मिडिल फाल था। इस झरने को देखने के लिए सतह से अधिक सीढ़ियां नहीं उतरनी थी।
झरना सामने ही था और यह पहले वाले से अधिक मुग्धकारी था । 110 फीट की ऊंचाई से गिरने वाले पानी में खूब कोलाहल था । पानी के पास तो हम नहीं जा सकते थे , परंतु हवा के झोंकों के साथ हलकी फुहार का एहसास कई बार चेहरे पर हुआ। देवेश जी ने बताया कि सबसे आकर्षक फाल यही है । यहां की छवि को स्मृतियों की पिटारी में सहेज कर रखने के लिए जब तस्वीरें ले रहे थे, तभी हिंदी सुनकर हमारे कान चौंक पड़े । यहां खूब अच्छा लग रहा है ना ! एक भारतीय की यह टिप्पणी हमारे लिए थी। हम भी प्रत्युत्तर में बिना मुस्कुराए नहीं रह सके । अपने अलावा दूसरे हमवतन को देख कर बहुत अच्छा लगा।
तीसरा झरना कुछ दूरी पर था । यहां 100 से ज्यादा सीढियां नीचे की तरफ उतरनी थी । जाहिर तौर पर पुनः ऊपर आने के लिए भी अधिक परिश्रम करना पड़ता ।
इसके बाद आपसी सहमति से हमने तय किया कि दूसरे झरने पर ही अधिक वक्त बिताना चाहिए । दो झरने तो देख ही चुके हैं , उसी के आधार पर तीसरे की कल्पना कर ली जाए।
शाम तक रोचेस्टर लौटना भी था। नरम नरम मखमली घास पर नन्हे रिवांंश को खूब मजा आ रहा था । झरने के किनारे टहलते टहलते मैं दूर से उनको देख रहा था।
इस मनोरम स्थल पर तस्वीरें खींचने में हम सभी ने अपना कौशल दिखाने की कोशिश की । फाल के आसपास कई स्थानों पर पर्यटकों के लिए सावधानी बरतने के बोर्ड लगे हुए थे। झरने का निर्माण तो कुुदरती है , परंतु जिस पार्क के अंतर्गत यह झरने हैं, उन्हें सजा कर रखने में मनुष्य की भूमिका भी कम सराहनीय नहीं है। पर्यटकों को लुभाने वाले कई अन्य मनोरंजन के साधन यहां सुलभ हैं। बस डालर खर्च करते चलिए।
लोग यहां पैदल चलने के अलावा साइकिलिंंग, घुड़सवारी बाइकिंग , नौकायन , तैराकी, पैराग्लाइडिंग जैसे खेलों में अपना सुख तलाश सकते हैं। यदि कोई कुछ समय यहां रहकर बिताना चाहे , तो केेबिन, हट जैसे विकल्प भी मौजूद हैं।
इस स्थान की लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वर्षों पहले यहां के आवासों को बुक करना पड़ता है ।
वर्तमान में जीना महज दार्शनिक लोकोक्ति मात्र नहीं है , अमेरिकी सुख के हर क्षण का भरपूूर आनंद उठाना चाहते हैं । झरने की ओर जाने वाली सीढ़ियों पर सिर्फ चंचल मन बच्चे ही उछल कूद करते नहीं चल रहे थे, अपितु ऐसे बुजुर्ग भी थे , जो ऊंची – ऊंची सीढ़ियों पर छड़ी के सहारे संभल कर चलते नजर आए।
पार्क के अंदर माउंट मोरिस नाम का बांध बना हुआ है , जो हम समयाभाव में नहीं देख सके । हालांकि जब विजिटर सेंटर पहुंचे तो यहां उपलब्ध पुस्तिका में तमाम जानकारियां मिल गईं जो हम कम समय में नहीं देख पा रहे थे।
यहीं पर पता चला कि 2015 में यूएसए टुडे रीडर्स चॉइस में इसे अमेरिका के स्टेट पार्कों में नंबर वन चुना गया था। पार्क और झरने को देखने लिए अपने पास दो-तीन घंटे ही थे । हमारा यह पर्यटन गागर में सागर को भरने की कोशिश करने जैैसा था। लौटते वक्त भी यही लग रहा था कि काश यहां कुछ समय और गुजार पाते।
क्रमश:…….
-लेखक आशुतोष पाण्डेय अमर उजाला वाराणसी के सीनियर पत्रकार रहे हैं, इस समय वह अमेरिका घूम रहे हैं,उनके संग आप भी करिए दुनिया की सैर

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button